क्या गंगा में बहते शवों पर कविता लिखना साहित्यिक नक्सलवाद है?
क्या गंगा में बह रहे शवों पर कविता लिखना अराजकता है? और इसका माओवाद या नक्सलवाद से क्या रिश्ता है?
लेकिन गुजरात साहित्य अकादमी के अनुसार यह अराजकता है। इतना ही नहीं, यह साहित्यिक नक्सलवाद है।
क्या है मामला?
गुजरात साहित्य अकादमी के प्रकाशन 'शब्दसृष्टि' के जून अंक के संपादकीय में गुजराती कवियित्री पारुल खाखर की कविता 'शव वाहिनी गंगा' का नाम लिए बग़ैर उस पर टिप्पणी की गई है और कवियित्री की तीखी आलोचना की गई है।
बता दें कि बिहार व उत्तर प्रदेश में कई जगहों पर गंगा नदी में शव पाए जाने के बाद यह कहा गया था कि ये कोरोना वायरस से संक्रमित हुए और कोरोना से मौत के शिकार हुए लोगों के शव हैं।
इसके बाद पारुर खाखर ने एक कविता लिखी थी, जो मूलत रूप से गुजराती में थी, जिसका हिन्दी व दूसरी भाषाओ में अनुवाद हुआ और वह कविता सोशल मीडिया में छा गई। पारुल खाखर की गुजराती कविता का हिन्दी अनुवाद-
शव वाहिनी गंगा
एक साथ सब मुर्दे बोले 'सब कुछ चंगा-चंगा'
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
ख़त्म हुए श्मशान तुम्हारे, ख़त्म काष्ठ की बोरी
थके हमारे कंधे सारे, आंखें रह गई कोरी
दर-दर जाकर यमदूत खेले
मौत का नाच बेढंगा
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
नित लगातार जलती चिताएं
राहत मांगे पलभर
नित लगातार टूटे चूड़ियां
कुटती छाती घर-घर
देख लपटों को फ़िडल बजाते वाह रे 'बिल्ला-रंगा'
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
साहेब तुम्हारे दिव्य वस्त्र, दैदीप्य तुम्हारी ज्योति
काश असलियत लोग समझते, हो तुम पत्थर, ना मोती
हो हिम्मत तो आके बोलो
'मेरा साहेब नंगा'
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
क्या कहना है अकादमी का?
साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विष्णु पांड्या ने इस संपादकीय की पुष्टि की है और यह भी माना है कि उनका मतलब पारुल खाखर की वह कविता ही है।
इस संपादकीय में कविता को 'क्रोध की स्थिति में ग़ुस्से की बेवजह अभिव्यक्ति' बताया गया है और कहा गया है कि 'केंद्र के विरोधी और केंद्र की राष्ट्रवादी विचारधारा का विरोध करने वालों के द्वारा शब्दों का दुरुपयोग है।'
अराजकता, नक्सलवाद?
गुजरात साहित्य अकादमी की पत्रिका के संपादकीय में कहा गया है, 'इस कविता के कंधे पर बंदूक रख कर उन लोगों के ख़िलाफ़ चलाया गया है जिन्होंने साजिश शुरू कर दी है, जिनकी प्रतिबद्धता भारत नहीं किसी और से है, जो वामपंथी हैं, कथित लिबरल हैं और जिनकी ओर कोई ध्यान नहीं देता है।'
इसके आगे कहा गया है कि 'ऐसे लोग भारत में अफरातफरी फैलाना चाहते हैं और अराजकता की सृष्टि करना चाहते हैं। वे सभी मोर्चों पर सक्रिय हैं और साहित्य में उनकी घुसपैठ हो चुकी है।'
'शब्दसृष्टि' के संपादकीय में कहा गया है,
“
इन साहित्यिक नक्सलियों का मक़सद समाज के उन लोगों को प्रभावित करना है जो अपना सुख-दुख कहना चाहते हैं।
गुजरात साहित्य अकादमी की पत्रिका शब्दसृष्टि
क्या कहना है अकादमी के अध्यक्ष का?
विष्णु पांड्या ने 'इंडियन एक्सप्रेस' के कहा, 'कविता में कोई तत्व नहीं है और न ही इसे कविता की तरह लिखा गया है। यह सिर्फ किसी के क्रोध या कुंठा की अभिव्यक्ति है और लिबरल, केंद्र-विरोधी, मोदी-विरोधी व आरएसएस-विरोधी तत्वों द्वारा इसका दुरुपयोग किया गया है।'