गुजरात दंगों को दो दशक हो चुके हैं। गुजरात के लोग इन दंगों को भूल जाना चाहते हैं लेकिन देश के गृहमंत्री अमित शाह ने शुक्रवार 25 नवंबर को इन दंगों की याद दिला दी। उन्होंने न सिर्फ याद दिलाया बल्कि यह कहा कि हमने दंगाइयों को सबक सिखा दिया। लेकिन पूरी दुनिया में इतिहासकारों और समाज अब अमित शाह ने जब उस दंगे की याद दिला दी है तो हमें उस समय की घटनाओं पर नजर डालनी चाहिए कि क्या अमित शाह जो कह रहे हैं, वो सच है।
इसकी शुरुआत 27 फरवरी 2002 में सबरमती एक्सप्रेस ट्रेन में आग लगाने से हुई। आरोप है कि उस दिन अयोध्या से आई कारसेवकों से भरी ट्रेन को गोधरा के एक प्लेटफॉर्म पर जला दिया गया। जिसमें 9 पुरुष, 25 महिलाएं और 25 बच्चों समेत 59 लोग जिंदा जल गए।
बड़े नरसंहार
रंधिकपुर में हत्या और बिलकीस बानों से गैंगरेप की घटना तो उनके दोषियों की जेल से रिहाई के बाद भारत पर एक बदनुमा दाग बन चुकी है। और उनमें से एक को बीजेपी ने टिकट देकर गोधरा से सम्मानित भी कर दिया है। लेकिन 2002 के उस दंगे में कई और घटनाएं हुईं जो इतिहास में दर्ज हैं, जिसमें नरोदा पाटिया, गुलबर्ग सोसायटी में लोगों को जिन्दा जलाने की घटनाओं को कौन भूल सकता है।सरकार के मुताबिक नरोदा पाटिया में 90 लोग मारे गए थे और गुलबर्ग सोसायटी में 69 लोग मारे गए थे। लेकिन नरोदा पाटिया में सैकड़ों लोग मारे गए थे। तहलका के एक स्टिंग ऑपरेशन के दौरान यह तथ्य सामने आया था। कोई नहीं भूल सकता है कि कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी को इसी गुलबर्ग सोसायटी नरसंहार में टुकड़े-टुकड़े कर जला दिया गया था। उनकी विधवा जकिया जाफरी आज भी अदालतों में भटक रही हैं और उन्हें भारतीय लोकतंत्र में इंसाफ मिलने की उम्मीद है।
बेस्ट बेकरी कांड कौन भूलेगाः इन दंगों में वड़ोदरा भी खून-खराबे में डूब गया था, जब भीड़ ने एक मुस्लिम परिवार द्वारा संचालित बेकरी को निशाना बनाया और जला दिया, जिसके अंदर 14 लोगों (11 मुस्लिम परिवार के सदस्य, और 3 हिंदू कर्मचारी) को जलाकर मार डाला गया। सबूतों की कमी और पुलिस जांच में लापरवाही के कारण निचली अदालत ने सभी 21 अभियुक्तों को बरी कर दिया था। लंबी मुकदमेबाजी के वर्षों बाद और चश्मदीदों के बयानों के आधार पर सिर्फ चार मुलजिमों को उम्रकैद हुई, जिसे बॉम्बे हाईकोर्ट ने बरकरार रखा।
सदरपुरा नरसंहार तो वड़ोदरा से भी भयानक था। 33 मुसलमानों को एक भीड़ ने जलाकर मार डाला था। 2016 में, गुजरात हाईकोर्ट ने इस मामले में 17 व्यक्तियों की सजा को बरकरार रखा।
एक पत्रकार की डायरी
बीजेपी 1995 से गुजरात की सत्ता में है। बीच में एक महीने के लिए राष्ट्रपति शासन लगा। नरेंद्र मोदी 2001 में पहली बार मुख्यमंत्री बने। उर्दू के मशहूर सियासत अखबार ने गुजरात दंगों की असलियत जानने के लिए पत्रकार किंग्शुक नाग से संपर्क किया। किंग्सुक नाग उस समय यानी 2002 में अहमदाबाद में द टाइम्स ऑफ इंडिया के स्थानीय संपादक थे। किंग्सुक ने सियासत को दिए गए इंटरव्यू में उस समय की घटनाओं को याद करते हुए बताया कि वो 2000 में ही इस नौकरी पर गुजरात में आ गए थे। यानी गुजरात दंगे से दो साल पहले वो गुजरात पहुंच चुके थे। उन्होंने कहा-
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पहली बात जो मैंने 2000 में गुजरात आने पर देखी, वह यह थी कि वहां एक बहुत ही ध्रुवीकृत समाज था। देश के बाकी हिस्सों में जिस तरह हिंदू और मुसलमान एक दूसरे से मिलते थे, गुजरात में वैसा नहीं था। वे एकसाथ नहीं मिलते थे। उनके मुहल्ले और बाजार बंटे हुए थे। यह स्पष्ट था कि दोनों समुदायों के बीच तनाव था, हालांकि, कुछ अपवाद भी थे। गुजरात में समाज में इस तरह के बंटवारे को देखकर मैं हैरान था।
- किंग्शुक नाग, टाइम्स ऑफ इंडिया के तत्कालीन स्थानीय संपादक
किंग्शुक नाग ने एक डीआईजी आरडी आगझा, जो जांच के प्रभारी थे, का हवाला दिया। किंग्शुक नाग घटना के एक महीने बाद जली हुई ट्रेन देखने गए थे। डीआईजी जो ट्रेन के पास खड़े थे, उन्होंने कहा था, गोधरा में ... भीड़ भरी ट्रेन प्लेटफॉर्म पर आ गई। कुछ यात्रियों की चाय एक चाय वाले से बहस हो गई। नाग ने आगे डीआईजी के हवाले से कहा कि बाद में प्लेटफॉर्म पर उन्हीं यात्रियों और कुछ लोगों के बीच हाथापाई शुरू हो गई। फिर पथराव हुआ और ट्रेन में आग लगा दी गई। इस घटना के बाद, विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने राज्यव्यापी बंद की घोषणा की, और नरेंद्र मोदी, जो उस समय गुजरात के सीएम थे, ने बीजेपी के बाकी नेताओं के साथ आरोप लगाया कि ट्रेन में आग लगाना एक आतंकी हमला था। यह भी आरोप लगाया गया कि स्थानीय मुसलमानों ने हमले को अंजाम देने के लिए पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के साथ सहयोग किया।
नानावती आयोग ने कहा, यह एक या दो हजार स्थानीय लोगों द्वारा की गई आगजनी का काम था। हालांकि सिटिजन ट्रिब्यूनल संस्था से जुड़े और इतिहासकार आइंस्ली थॉमस एम्ब्री ने कहा कि यह एक हादसा था और इसके आतंकवादी साजिश होने का कोई सबूत नहीं है।
विश्व हिंदू परिषद पर यह भी आरोप है कि गोधरा ट्रेन के जलते हुए पीड़ितों के जले हुए शरीर को वापस उनके परिवारों को देने के बजाय, उन्होंने शवों को अहमदाबाद पहुँचाया और उन्हें सांप्रदायिक जुनून भड़काने के लिए जनता के प्रदर्शन के लिए रखा। तमाम अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टों में यह भी आरोप लगाया गया है कि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी इसके बारे में जानते थे और उन्होंने ऐसा होने दिया।
28 फरवरी के बाद हिंसा ने पूरे राज्य को अपनी चपेट में ले लिया। ह्यूमन राइट्स वॉच (एचआरडब्ल्यू) ने कहा कि जब सहमे लोगों ने सुरक्षा के लिए पुलिस को फोन किया, तो उन्हें सिर्फ यही जवाब मिलता था कि हमारे पास आपको बचाने के लिए ऊपर से कोई आदेश नहीं है। एचआरडब्ल्यू ने कहा, कुछ मामलों में, पुलिस ने खुद को बचाने की कोशिश कर रहे मुसलमानों पर भी गोलियां चलाईं। कुछ रिपोर्टों में आरोप गया गया कि पुलिस और सरकारी अधिकारियों ने दंगाइयों को निर्देशित किया और उन्हें मुस्लिमों के संपत्तियों की सूची दी।
हालांकि, दो नरसंहार अपनी क्रूरता में बाकी लोगों से अलग हैं: नरोदा पाटिया नरसंहार और गुलबर्ग सोसाइटी नरसंहार। अनौपचारिक रिपोर्ट बहुत अधिक (हजारों) हताहतों का दावा करती है। ह्यूमन राइट्स वॉच का दावा है कि कई लोगों को अकेले से या समूहों में बड़ी-बड़ी खाइयों में धकेल कर और एलजीपी सिलेंडरों का इस्तेमाल करके आग लगाकर जिंदा जला दिया गया था।
द हिंदू की एक रिपोर्ट में उस समय बताया गया कि महिलाओं और लड़कियों का यौन उत्पीड़न किया गया, उनका गैंगरेप किया गया और उन्हें जलाकर या छुरा घोंपकर मार डाला गया। सियासत के संपादक जहीर अली खान का आरोप है कि यह राज्य प्रायोजित आतंकवाद था। हालांकि अहमदाबाद के एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार डॉ. सत्तार खान ने कहा कि यह पूर्व नियोजित नरसंहार था।
बहरहाल, इन सबके बीच उम्मीद भरी खबरें भी आती रहीं। तमाम हिन्दू परिवारों ने मुसलमानों को भीड़ से बचाया था। उन्हें अपने घरों में छिपा दिया था और बाद में उन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। ऐसी घटनाएं बहुत हुईं लेकिन गुजरात में बंटे हुए समाज में ऐसे लोग इस तरह का श्रेय लेने सामने नहीं आए। तमाम मुस्लिम परिवारों ने बताया कि उन्हें हिन्दू परिवारों ने बचाया था।
मोदी को क्लीन चिटः मार्च 2008 में, सुप्रीम कोर्ट ने गोधरा के बाद की हिंसा के प्रमुख मामलों के साथ-साथ गोधरा ट्रेन जलाने के मामले की फिर से जाँच करने के लिए एक विशेष जाँच दल (SIT) के गठन का आदेश दिया। 2012 में, एसआईटी ने नरेंद्र मोदी सहित 64 लोगों को, जो उस समय राज्य के मुख्यमंत्री थे, गोधरा के बाद के गुलबर्ग नरसंहार मामले में क्लीन चिट दी थी, जिसमें कहा गया था कि कोई आपत्तिजनक सबूत नहीं मिला।
मुकदमा जारी है
कांग्रेस नेता एहसान जाफरी की पत्नी जकिया जाफरी की याचिका सहित कई मामले अदालतों में लंबित हैं। पीएम मोदी और 63 अन्य लोगों को मिली क्लीन चिट के खिलाफ अपनी शिकायत में जाकिया जाफरी ने आरोप लगाया कि 2002 की गुजरात हिंसा में राज्य सरकार और पुलिस की मिलीभगत थी। नवंबर 2021 में वकील कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट में तर्क दिया कि एसआईटी ने सबूतों की जांच नहीं की, जो स्पष्ट था, जिसमें कॉल विवरण, पुलिस अधिकारियों के रिकॉर्ड और हिंसा फैलाने वाली भीड़ शामिल थी।संजीव भट्ट की भूमिका
गुजरात पुलिस के अधिकारी रहे संजीव भट्ट ने गुजरात दंगों में मोदी का नाम लेकर उनकी तरफ इशारा किया। अब वो कथित हत्या के आरोप में जेल में हैं। इस दौरान सोशल एक्टिविस्ट तीस्ता सीतलवाड़, पूर्व पुलिस अधिकारी बी के श्रीकुमार और संजीव उल्टा साजिश रचने के आरोपों का सामना कर रहे हैं।गुजरात 2002 दंगो के बीच उम्मीद भरी खबरें भी आती रहीं। तमाम हिन्दू परिवारों ने मुसलमानों को भीड़ से बचाया था। उन्हें अपने घरों में छिपा दिया था और बाद में उन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। ऐसी घटनाएं बहुत हुईं लेकिन गुजरात में बंटे हुए समाज में ऐसे लोग इस तरह का श्रेय लेने सामने नहीं आए। तमाम मुस्लिम परिवारों ने बताया कि उन्हें हिन्दू परिवारों ने बचाया था। यही वजह है कि उम्मीद कायम है। एक दिन नफरत फैलाने वालों पर उदार और शांतिप्रिय हिन्दू-मुसलमान विजय पा लेंगे।