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कई मायनों में याद रहेगा गुजरात विधानसभा चुनाव

कई मायनों में याद रहेगा गुजरात विधानसभा चुनाव

गुजरात विधानसभा चुनाव नतीजे के मायने क्या हैं? आख़िर इस चुनाव को किस नज़रिए से देखा जाएगा? बीजेपी ने ऐतिहासिक जीत कैसे दर्ज की और कांग्रेस आख़िर क्यों इतनी कम सीटों पर सिमट गई?

गुजरात विधानसभा चुनाव कई मायनों में पिछले चुनावों से अलग है और राजनीतिक विश्लेषकों के लिए शोध का विषय बन गया है। बीजेपी ने प्रदेश में 27 साल राज करने के बाद भी ऐतिहासिक जीत दर्ज की है; ऐसी जीत जिसने कांग्रेस के नाम दर्ज रिकॉर्ड भी तोड़ दिया। पार्टी ने एंटी इनकंबेंसी फैक्टर भी हाशिये पर धकेल दिया। इतिहास रचने वाली बीजेपी ने विधानसभा चुनाव लगातार सातवीं बार जीता है। 1995 से गुजरात में सत्तारूढ़ बीजेपी ने 1995, 1998, 2002, 2007, 2012 और 2017 में भी विजय हासिल की थी।

आठ दिसंबर को आए चुनावी नतीजों में बीजेपी ने 157 सीट पर जीत दर्ज कर इतिहास रचा है। इससे पहले कांग्रेस ने 1985 में 149 सीटें जीती थीं और 182 सीटों वाली विधानसभा में सबसे अधिक सीट जीतने का रिकॉर्ड कांग्रेस के नाम दर्ज था। बीजेपी ने 37 साल बाद कांग्रेस का रिकॉर्ड तोड़ा है।

भारतीय लोकतंत्र में मतदाता पाँच साल के कामकाज का आकलन कर मत देते हैं। वायदों पर खरी ना उतरने वाली पार्टी को मतदाता नकार देते हैं और दूसरी पार्टी को सत्ता सौंप देते हैं। यही एंटी इनकंबेंसी है।

दिल्ली नगर निगम चुनाव में बीजेपी की एंटी इनकंबेंसी ने गुल खिलाए और उसे 15 साल बाद सत्ता से बेदखल कर दिया। हिमाचल प्रदेश में तो पाँच साल की एंटी इनकंबेंसी भी बीजेपी नहीं झेल पाई और 19 सीटें गंवा कर 25 सीटों पर अटक गई। अपवाद स्वरूप  कभी कभार ही राजनीतिक दल एंटी इनकंबेंसी से बच पाते हैं। ऐसी स्थिति में पार्टी जीत तो जाती है लेकिन सीटें बढ़ती नहीं हैं। गुजरात में करिश्मा हुआ है; वहाँ 27 साल बाद भी सीटें कम होने के बजाय बढ़ी हैं और यह बढ़ोतरी मामूली नहीं है, पूरी 57 सीटों की है। पार्टी ने 2017 में 99 सीटें जीती थीं।

इस चुनाव में बीजेपी को 52.51 प्रतिशत मत मिले हैं जबकि 2017 के चुनाव में पार्टी को 49.1 प्रतिशत मत मिले थे। मतों में 3.41 प्रतिशत का इजाफा यह साबित करता है कि एंटी इनकंबेंसी जैसा फैक्टर कहीं नहीं था। 

कांग्रेस के मत प्रतिशत में भारी गिरावट आई है। 2017 में कांग्रेस ने 41.4 प्रतिशत मत लेकर 78 सीटें जीती थीं। इस चुनाव में कांग्रेस की हिस्सेदारी घट कर 27.3 प्रतिशत रह गई। मत प्रतिशत 14.4 की गिरावट के साथ सीटें 61 घट गई हैं।

वहाँ कांग्रेस ने दमदार तरीके से प्रचार ही नहीं किया। कांग्रेस के ढीले रवैये से लग रहा था कि उसने चुनाव से पहले ही हार स्वीकार कर ली थी। कांग्रेस के नवनियुक्त अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के बयानों ने भी कांग्रेस को नुक़सान पहुंचाया है, ऐसा राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है।

 

इस चुनाव की खास बात यह भी है कि इस बार त्रिकोणीय मुकाबला हुआ है। अभी तक बीजेपी और कांग्रेस में आमने-सामने की सीधी टक्कर होती थी। इस बार आम आदमी पार्टी यानी आप दमदार तरीके से मैदान में उतर कर मुक़ाबला त्रिकोणीय बना दिया। हालांकि 2017 के चुनाव में भी आम आदमी पार्टी ने अपनी उपस्थिति दर्ज की थी लेकिन उस चुनाव में इस पार्टी का कोई बड़ा वजूद नहीं था। यही वजह है कि पार्टी के सभी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी। उस चुनाव में आम आदमी पार्टी की उपस्थिति के बावजूद मुक़ाबला त्रिकोणीय नहीं हो पाया था। इस बार आम आदमी पार्टी काफी गंभीर थी। भले ही यह पार्टी बड़ी विजय का दावा कर रही थी लेकिन इसका मुख्य मक़सद यह था कि छह प्रतिशत से अधिक मत लेकर राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल कर ले। पिछले चुनाव में आम आदमी पार्टी को क़रीब एक प्रतिशत मत मिला था लेकिन इस बार आम आदमी पार्टी ने 12.91 प्रतिशत मतों के साथ पाँच सीटें जीत कर विधानसभा में प्रवेश किया है। साथ ही, राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा पाने का रास्ता भी खुल गया।

इस चुनाव को इसलिए भी याद रखा जाएगा कि बार-बार बड़ी जीत का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी ने जिस चेहरे को मुख्यमंत्री पद के लिए जनता के सामने पेश किया था वो भारी मतों से चुनाव हार गया। आम आदमी पार्टी ने टीवी पत्रकार ईशुदान गढवी को अपनी पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री का चेहरा बना कर मैदान में उतारा था लेकिन वे खंभालिया सीट पर 19000 मतों से चुनाव हार गए। भारी अन्तर से हार का अर्थ है कि मुख्यमंत्री के रूप में गढवी के चयन का फैसला जनता ने सिरे से नकार दिया। इस चेहरे के कारण पार्टी को पाँच सीटों से ही संतोष करना पड़ा जबकि पार्टी के मुख्य संयोजक अरविंद केजरीवाल प्रचार में सरकार बनाने का दावा करते रहे।

सरकार बनाने का ख्वाब देखने वाली पार्टी दो अंकों का आँकड़ा भी नहीं छू पाई और पार्टी पाँच सीटों पर ही सिमट गई। इसका अर्थ है कि पार्टी की ओर से घोषित मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार दमदार नहीं था।

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