'एक देश-एक टैक्स' के दावे के बावजूद जीएसटी (वस्तु और सेवा कर) की कई दरें थीं और 28 प्रतिशत की अधिकतम दर में अब तक विकलांगों की वीलचेयर भी थी। 'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ' का नारा और सैनिटेरी नैपकिन पर भी टैक्स। आख़िरकार मामला अदालत पहुँचा तो सरकार ने उसे टैक्समुक्त किया। बहुमत के दम पर बिना तैयारी के उसी जीएसटी को लागू कर दिया गया जिसका विपक्ष में रहकर विरोध करते थे। कोई बातचीत नहीं, कोई सुनवाई नहीं। सिर्फ एकतरफ़ा मन की बात।
चुनाव के बाद आया समझ
सूरत में कई उद्योग बंद हो जाने, निर्यातकों को भारी परेशानी होने और टैक्स रिटर्न दाख़िल करना बेहद मुश्किल होने के बावजूद यह सब चलता रहा। सिस्टम चलता नहीं था, सरकार कहती थी रिटर्न फ़ाइल करना आसान है। गुजरात चुनाव के समय सरकार को समझ में आया कि जीएसटी वाक़ई मुश्किल है। तीन राज्यों में हार जाने के बाद समझ में आया कि रिटर्न फ़ाइल करना भी मुश्किल है। दर तो ज़्यादा है ही। अभी तक दलील दी जाती थी कि पहले इतना था, अब इतना है। लेकिन चुनाव हारने के बाद स्थिति बदली है।
सुनने में वाहनों के पुर्ज़े, गाड़ी और कार के कारण लग्ज़री आइटम भले लगते हों पर पुर्ज़े पुरानी गाड़ियों के लिए भी ख़रीदे जाते हैं और पुरानी गाड़ियाँ लग्ज़री नहीं हैं। सार्वजनिक वाहनों के रूप में चलने वाली गाड़ी भी लग्ज़री नहीं है। पर इसका टैक्स कम नहीं किया जा सका। पेट्रोल-डीज़ल अभी भी जीएसटी से बाहर है क्योंकि इस पर टैक्स - जीएसटी के अंतिम स्लैब 28% से भी बहुत ज़्यादा दर पर - वसूला जाता है।
जीएसटी काउंसिल की शनिवार को हुई 31वीं बैठक के बाद वित्त मंत्री ने कहा कि “... अगला लक्ष्य परिस्थिति अनुकूल होने के साथ सीमेंट पर जीएसटी में कमी करना है।” मतलब वाहनों के पुर्ज़ों पर अभी यह दर जारी रहेगी। वाहनों के टायरों पर भी जीएसटी दर 28 प्रतिशत है जिसे कम किया जाना है। अभी तक रीट्रेड किए हुए टायर पर 28 प्रतिशत टैक्स था, इसे अब 18 प्रतिशत कर दिया गया है, पर नए टायर पर यह अभी 28 प्रतिशत ही है। यह क़दम सबसे ऊँची कर दर 28 प्रतिशत को तर्कसंगत बनाने के लिए उठाया जाएगा। उसमें सिर्फ लग्ज़री आइटम और सिगरेट-पान मसाला जैसे नुक़सानदेह सामान रहेंगे।
बैठक में कहा गया कि टैक्स दर कम करने से सरकारी राजस्व पर 5500 करोड़ रुपये का प्रभाव पड़ेगा जबकि सीमेंट और वाहनों के पुर्ज़ों पर टैक्स 28 से 18 प्रतिशत कर दिया जाता तो यह प्रभाव 33,000 करोड़ रुपये का होता। काउंसिल ने माना कि इस समय यह बहुत ज़्यादा है।
1 जुलाई को जीएसटी लागू हुए दो साल हो जाएँगे। वार्षिक रिटर्न दाख़िल करना होगा। जीएसटी काउंसिल ने परीक्षण के आधार पर 1 अप्रैल, 2019 से रिटर्न फ़ाइल करने के लिए एक नई प्रणाली शुरू करने की घोषणा की है। 1 जुलाई से यह आवश्यक हो जाएगा। कहने की ज़रूरत नहीं है कि प्रयोग अभी चल रहे हैं। इसका नतीजा यह है कि लेट फ़ाइन का प्रावधान होने के बावजूद अंतिम तारीख़ बढ़ाई जाती है। कुल मिलाकर काउंसिल ने सारे अधिकार अपने पास रखे हैं। जीएसटी काउंसिल ने बिना टेस्ट किए नई टैक्स व्यवस्था थोप दी जिससे कारोबारी परेशान हुए जबकि कारोबारियों को प्रयोग करने की सुविधा दी जाती तो नए उत्पाद आते और क़ीमतें कम हो सकती थीं।
पंजीकरण कराना है ज़रूरी
जीएसटी की सबसे बड़ी गड़बड़ी का शिकार हो रहे हैं लिखने-पढ़ने वाले फ़्रीलांसर्स। चाहे वे अनुवाद करते हों, वेबसाइट के लिए कॉन्टेंट मुहैया कराते हों या प्रकाशकों के लिए किताबों के कवर के लिए चित्र बनाते हों। अगर वे कंप्यूटर से काम करते हैं और इंटरनेट, ईमेल से अपनी सेवाएँ देश भर में मुहैया कराते हैं तो उनके लिए पंजीकरण आवश्यक है। वैसे तो 10 लाख तक के कारोबार को टैक्स पंजीकरण से छूट है और जीएसटी में यह 20 लाख रुपये प्रति वर्ष है तथा इसे अभी और बढ़ाने पर विचार किया जा रहा है। लेकिन कंप्यूटर से काम करने वालों के लिए पंजीकरण ज़रूरी है। ऐसे काम निश्चित रूप से बड़े संस्थान कराते हैं, जो पंजीकृत सेवा प्रदाताओं से ही सेवाएँ लेते हैं। वे जीएसटी पंजीकरण के बिना सेवा प्रदाता का पंजीकरण करने के लिए भी तैयार नहीं हैं।
छोटे कारोबारों के लिए है समस्या
जीएसटी को आमतौर पर छोटे कारोबारों के लिए नुक़सानदेह माना जाता है। बड़े कारोबारों के लिए न तो निवेश की वैसी समस्या होती है, न कर्मचारियों की और न उनके बैठने की जगह की। पर छोटे कारोबारों के लिए तीनों ही गंभीर संमस्याएँ हैं। उसके बावजूद जीएसटी के कुछ प्रावधान ऐसे हैं जिनसे छोटे कारोबारी को काम ही न मिले। इनमें अपंजीकृत कारोबारी से काम न कराना, एक सीमा से ज़्यादा के काम न कराना, अपंजीकृत विक्रेता से सेवा लेने पर टैक्स स्वयं भरना आदि। यही नहीं, नियमों और अपंजीकृत सेवा प्रदाताओं से सेवा लेने और भुगतान को लेकर भ्रम का नुक़सान भी छोटे कारोबारी को है और यह ऐसा नुक़सान है जिसकी भरपाई नहीं हो सकती।
छोटी पार्टियाँ करना हुआ मुश्किल
उदाहरण के लिए, 100 परिवार की एक हाउसिंग सोसाइटी क्रिसमस-नए साल पर पार्टी करती थी। लेकिन इस बार यह पार्टी नहीं हो रही है। पूछने पर पता चला कि कोषाध्यक्ष की माँग रहती है कि सारे बिल जीएसटी पंजीकृत सेवा प्रदाताओं के हों जबकि 100 समोसे और जलेबी जैसी चीज बेचने वाले छोटे विक्रेता सस्ती तो देते ही हैं, कई बार अच्छी और ऑर्डर के अनुसार भी बनाते हैं। उधर बड़े विक्रेताओं की ऐसे छोटे ऑर्डर में दिलचस्पी नहीं होती है। सामान महँगा होता है सो अलग। इसका नतीजा है कि सबके तैयार होने के बावजूद पार्टी नहीं हो रही है। कारण संक्षेप में यही है कि जीएसटी पंजीकृत सेवा प्रदाता से मनलायक सेवा वाज़िब क़ीमत पर उपलब्ध नहीं है। कच्चे बिल पर कोषाध्यक्ष भुगतान नहीं करेंगे तो कोई दूसरा रास्ता नहीं है।