केंद्र सरकार ने राम मंदिर-बाबरी मसजिद के विवादित परिसर के पास की ग़ैर-विवादित ज़मीन का एक हिस्सा राम जन्मभूमि न्यास को देने की अनुमति सुप्रीम कोर्ट से माँगी है।
सुप्रीम कोर्ट ने पूरी ज़मीन की स्थिति जस की तस बरक़रार रखने का आदेश दिया था। लेकिन केंद्र सरकार अब चाहती है कि ग़ैर-विवादित ज़मीन से जस की तस स्थिति रखने का आदेश वापस ले लिया जाए। चुनाव के कुछ महीने पहले सरकार की याचिका काफ़ी अहम है।
केंद्र सरकार ने क़रीब 25 साल पहले अयोध्या में ज़मीन का अधिग्रहण किया था। लगभग 67 एकड़ की पूरी ज़मीन पर ही सुप्रीम कोर्ट ने स्थिति जस की तस बरक़रार रखने का आदेश दिया था। लेकिन इसमें से सिर्फ 2.7 एकड़ जम़ीन ही विवादित है। अब सरकार चाहती है कि ग़ैर-विवादित ज़मीन पर से सुप्रीम कोर्ट अपना आदेश वापस ले ले और उसे उस ज़मीन का एक हिस्सा राम जन्मभूमि न्यास को देने की इजाज़त दे दे।
मोदी सरकार ने ग़ैर-विवादित ज़मीन के लिए आज जो प्रस्ताव दिया है, ऐसा ही एक प्रस्ताव 1986 में आरएसएस ने ठुकरा दिया था। उस समय हिन्दू और मुसलिम दोनों ही पक्षकारों ने यह मान लिया था कि ग़ैर-विवादित ज़मीन पर राम मंदिर बना लिया जाए और अदालत का फ़ैसला आने तक विवादित ज़मीन को न छेड़ा जाए। लेकिन संघ प्रमुख बाला साहब देवरस को यह प्रस्ताव मंजूर नहीं था। उनका कहना था कि राम मंदिर आन्दोलन के ज़रिए वे दिल्ली की कुर्सी पर कब्जा करना चाहते हैं न कि मंदिर बनाना। आज केंद्र में बीजेपी की सरकार है और एक बार फिर वह ग़ैर-विवादित ज़मीन पर मंदिर निर्माण की बात कर रही है। आइए, जानते हैं मंदिर निर्माण ठुकराने का क्या था पूरा किस्सा। शीतल पी सिंह की विशेष एक्सक्लूसिव रिपोर्ट।
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राम जन्मभूमि-बाबरी मसजिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई मंगलवार को ही शुरू होने वाली थी। लेकिन खंडपीठ के सदस्य जस्टिस एस. ए. बोबडे के छुट्टी पर होने की वजह से यह टाल दी गई।
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केंद्र सरकार ने 3 अप्रैल 1993 को अयोध्या की विवादित ज़मीन के अधिग्रहण से जुड़े क़ानून की अधिसूचना जारी की थी। इसमें कहा गया था कि परिसर के रख-रखाव, देश में सांप्रदायिक सद्भाव और भाईचारे की भावना को बढ़ावा देने के लिए उस ज़मीन का अधिग्रहण किया जा रहा है।