उद्धव ठाकरे सरकार को फ्लोर टेस्ट कराने के महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। शिवसेना की ओर से अभिषेक मनु सिंघवी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने दायर याचिका में कहा है कि राज्यपाल द्वारा कल ही फ्लोर टेस्ट के लिए कहा जाना पूरी तरह गैर क़ानूनी है। सवाल है कि आख़िर राज्यपाल के आदेश को ग़ैर क़ानूनी क्यों कहा गया है? क्या राज्यपाल को फ्लोर टेस्ट कराने का अधिकार नहीं है या फिर उन्होंने इसके लिए पूरे नियमों का पालन नहीं किया है?
इस सवाल का जवाब जानने से पहले इससे पहले के घटनाक्रमों को जान लें। घटनाक्रम की शुरुआत शिवसेना के नेताओं के बागी होने से हुई।
करीब 39 विधायकों के बगावत की बात कही जा रही है। हालाँकि, यह संख्या ज़्यादा होने के भी दावे किए गए हैं। बागियों को जब अयोग्य क़रार देने की प्रक्रिया की शुरुआत की गई तो बाग़ी सुप्रीम कोर्ट गए। सुप्रीम कोर्ट ने बागियों को राहत दी और अयोग्यता वाले नोटिस पर जवाब देने के लिए 12 जुलाई तक के लिए पर्याप्त समय दे दिया।
इस बीच विपक्ष के नेता फडणवीस ने सरकार के अल्पमत में होने का दावा किया और इनकी मांग पर राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने ठाकरे सरकार से कहा है कि वह 30 जून को शाम 5 बजे तक महाराष्ट्र की विधानसभा में बहुमत साबित करें।
अब शिवसेना के नेता ने राज्यपाल के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। उन्होंने कहा है कि अभी 16 बागी विधायकों को अयोग्य ठहराए जाने की प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट में पेंडिंग है।
शिवसेना ने दलील दी है कि जब तक बाग़ियों की अयोग्यता पर फैसला नहीं हो जाता तब तक फ्लोर टेस्ट नहीं कराया जा सकता है।
तो सवाल है कि राज्यपाल ने क्या नियमों से परे जाकर आदेश जारी किया?
राज्यपाल के अधिकार
संविधान राज्यपाल को राज्य विधानसभा को बुलाने, भंग करने और सत्रावसान करने का अधिकार देता है। राज्यपाल के पास कैबिनेट की सहायता और सलाह पर विधानसभा को भंग करने का अधिकार भी है। हालाँकि राज्यपाल अपने विवेक का तब प्रयोग कर सकता है जब मुख्यमंत्री ऐसी सलाह देता है।
संविधान के अनुच्छेद 175 (2) के अनुसार, राज्यपाल सदन का सत्र बुला सकता है और यह साबित करने के लिये फ्लोर टेस्ट का आह्वान कर सकता है कि सरकार के पास विधायकों की पर्याप्त संख्या है या नहीं। जब सदन सत्र में होता है तो अध्यक्ष फ्लोर टेस्ट के लिये सदन बुला सकता है, लेकिन जब विधानसभा सत्र में नहीं होती है तो अनुच्छेद 163 के तहत राज्यपाल अपनी अवशिष्ट शक्तियों का उपयोग करके फ्लोर टेस्ट के लिये बुलाने की अनुमति दे सकता है। हालाँकि, राज्यपाल संविधान के अनुच्छेद 163 के अनुसार ही इस शक्ति का प्रयोग कर सकता है जिसके अनुसार राज्यपाल मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करता है।
फ्लोर टेस्ट में राज्यपाल की भूमिका पर भी सुप्रीम कोर्ट का एक फ़ैसला आया था। सबसे चर्चित मामलों में से एक 2016 में नबाम रेबिया और बामांग फेलिक्स बनाम उपाध्यक्ष का है। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सदन को बुलाने का अधिकार केवल राज्यपाल में निहित नहीं है और इसका उपयोग मंत्रिपरिषद की सहायता एवं सलाह के साथ किया जाना चाहिये, न कि अपने विवेक पर।
अदालत ने यह भी गौर किया कि राज्यपाल एक निर्वाचित ऑथोरिटी नहीं है, वह केवल राष्ट्रपति का नामांकित व्यक्ति है। शीर्ष अदालत ने आगे कहा कि ऐसे नामित व्यक्ति का राज्य विधानमंडल के सदन या सदनों का गठन करने वाले लोगों के प्रतिनिधियों पर ओवर्राइडिंग ऑथोरिटी नहीं हो सकती है।
2020 में शिवराज सिंह चौहान और अन्य बनाम स्पीकर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फ़ैसला दिया था। यदि प्रथम दृष्टया कोई विचार है कि सरकार ने अपना बहुमत खो दिया है तो सुप्रीम कोर्ट ने शक्ति परीक्षण के लिए सदन को बुलाने के लिये स्पीकर के अधिकार को बरकरार रखा।
हालाँकि इसके साथ अदालत ने कहा था कि 'राज्यपाल को फ्लोर टेस्ट का आदेश देने की शक्ति से वंचित नहीं किया जाता है, जहाँ राज्यपाल के पास उपलब्ध जानकारी के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार को सदन का विश्वास प्राप्त है या नहीं। इस मुद्दे का मूल्यांकन फ्लोर टेस्ट के आधार पर किया जाना चाहिए।
बहरहाल, ऐसे मामले या फ़ैसले तो अब तक आते रहे हैं, लेकिन अब महाराष्ट्र के मामले में सुप्रीम कोर्ट क्या फ़ैसला देता है, यह देखने वाला होगा।