लॉकडाउन में प्रवासी मज़दूरों की मौत का आँकड़ा नहीं तो ज़िम्मेदारी कैसी!
भारत में जब लॉकडाउन हुआ तो करोड़ों प्रवासी मज़दूरों की जान पर बन आई। भूखे रहे। हज़ारों किलोमीटर पैदल चले। कई लोगों ने तो रास्ते में दम तोड़ दिया। कई दुर्घटना में मारे गए। जब ट्रेनें शुरू हुईं तो ट्रेनों में भी मौत की रिपोर्टें आईं। देश ही नहीं, दुनिया भर में ये ख़बरें बनीं। लेकिन सरकार को इसकी ख़बर ही नहीं लगी। सरकार ने ही संसद में यह बात ख़ुद ही स्वीकारी है। मानसून सत्र में जब यह सवाल पूछा गया कि क्या लॉकडाउन में अपने-अपने घर वापस जाने के दौरान मारे गए प्रवासी मज़दूरों के परिवार वालों को हर्जाना दिया गया है तो केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने कहा कि प्रवासी मज़दूरों की मौत का आँकड़ा ही नहीं है तो हर्जाना देने का सवाल ही नहीं उठता है।
केंद्रीय श्रम मंत्रालय जो भी कहे लेकिन यह सवाल तो उठता ही है कि क्या महाराष्ट्र के औरंगाबाद में 16 मज़दूरों की ट्रेन से कटकर मारे गए लोगों का आँकड़ा सरकार के पास नहीं है क्या उत्तर प्रदेश के औरैया ज़िले में मध्य मई में डीसीएम में एक तेज़ रफ्तार ट्रक के टक्कर मारने से 24 मज़दूरों की मौत की जानकारी नहीं है क्या उत्तर प्रदेश के ही महोबा में ट्रक पलटने से पाँच मज़दूरों की मौत का रिकॉर्ड भी नहीं है
क्या अलग-अलग जगहों पर वाहनों की चपेट में आकर बड़ी संख्या में मारे गए लोगों की संख्या भी सरकार के पास नहीं है मौत के बाद पंचनामे तो बनते थे। जब ट्रेनें चलीं तो ट्रेनें कई-कई दिन की देरी से चलीं और उनमें भूख-प्यास से मरने की लगातार ख़बरें आती रहीं। हालाँकि सरकार ने भूख-प्यास से मरने की ख़बरों को खारिज कर दिया, लेकिन मौतें तो प्रवासी मज़दूरों की हुईं। क्या सरकार इनकी गिनती नहीं कर पाई यह बिल्कुल 2016 में की गई नोटबंदी के बाद की स्थिति जैसी लगती है। नोटबंदी के बाद भी ऐही ही अफरा-तफरी का माहौल बना था। लोगों के सामने नकदी का संकट पैदा हो गया था। खाने-पीने के सामान से लेकर इलाज के लिए रुपयों के लिए बैंकों और एटीएम में घंटों लाइनों में लगना पड़ा था। इस बीच बड़ी संख्या में मौत की ख़बरें आईं। इसकी रिपोर्टिंग भी होती रही, लेकिन सरकार ने बिल्कुल ऐसा ही जवाब दिया था कि उसके पास ऐसी किसी मौत का आँकड़ा नहीं है। यानी एक लाइन में ही पूरी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया! क्या यही लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मज़दूरों की मौत के मामले में नहीं हो रहा है
प्रधानमंत्री मोदी ने अचानक 24 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा की थी। बिल्कुल नोटबंदी के अंदाज़ में। किसी को समय नहीं मिला कि वे अपने-अपने घर जा सकें। लॉकडाउन के बाद काम बंद हो गया तो लोगों के सामने भूखे रहने की नौबत आ गई। जब वे बाहर निकले तो उन्हें पुलिस के डंडे खाने पड़े। भूखे रहने से बेतहर लोगों ने घर के लिए पैदल निकलना ही बेहतर समझा। हज़ार-हज़ार किलोमीटर दूर अपने गृह राज्य के लिए भी लोग पैदल निकल गए। लोगों के साथ बच्चों, बुजुर्गों और गर्भवती महिलाओं की पैदल जाने की तसवीरें सिहरन पैदा करने वाली थीं। क्या सरकार को यह नहीं दिख रहा था
दिल्ली से पैदल ही मध्य प्रदेश में अपने घर लौट रहे उस डेलीवरी एजेंट की मौत तो हर जगह सुर्खियाँ बनी थीं। मार्च महीने की वह घटना है। वह क़रीब 200 किलोमीटर पैदल चल पाया था। ऐसी ही एक रिपोर्ट अप्रैल महीन में 12 साल की किशोरी के बारे में आई थी। तेलंगाना से 150 किलोमीटर तक पैदल चली।
छत्तीसगढ़ के बिजापुर में अपने घर से क़रीब एक घंटे दूर पहुँची ही थी कि उसकी मौत हो गई। वह थक कर चूर हो गई थी। वह डिहाइड्रेट थी यानी उसके शरीर में पानी ख़त्म हो गया था। उसके अंगों ने उसका साथ देना बंद कर दिया था। पैदल चलते न जाने कितने लोगों की जानें गई थीं।
प्रवासी मज़दूरों की बद से बदतर होती हालत के बीच जब मई में ट्रेनें चलाई गईं तो वहाँ से भी अजीब-अजीब ख़बरें आईं। कई श्रमिक स्पेशल ट्रेनों के अपने रास्ते से भटकने की ख़बरें आईं। एक श्रमिक ट्रेन महाराष्ट्र के वसई से उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के लिए चली थी और पहुँच गई ओडिशा के राउरकेला। दो दिन में पहुँचने वाली एक ट्रेन 9 दिन में अपने गंतव्य तक पहुँची थी। इस बीच ट्रेनों में लोगों की मौत की ख़बरें भी आईं। मौत के कई मामलो में परिजनों ने भूख-प्यास से मौत होने का आरोप लगाया, लेकिन रेलवे और सरकार ने इन आरोपों को खारिज कर दिया। ट्रेनों के रास्ते भटकने के सवाल किए गए तो रेलवे ने अजीबोगरीब जवाव दिए कि लाइनें व्यस्त होने के कारण उनका रूट बदला गया था।
ये वे ख़बरें हैं जो छपती रहीं और इस पर सरकार की प्रतिक्रिया भी आती रही। फिर भी सरकार का कहना है कि उसके पास आँकड़ा नहीं है। इस पर केरल के वित्त मंत्री थॉमस इसाक कहते हैं कि जो आँकड़े उपलब्ध हो सकते थे उसे तो दिया जा सकता था। उन्होंने ट्वीट किया, 'पूरी तरह निर्दयीता। केंद्र प्रवासी श्रमिकों की मौतों के बारे में परवाह नहीं करता है, जिसने उन्हें गाड़ियों, अस्थायी गाड़ियों और दूर अपने घरों को पैदल जाने के लिए मजबूर किया। कम से कम रेल श्रमिक ट्रेनों और सड़क दुर्घटनाओं के अस्थायी और अधूरे आँकड़ों को तो मानें।'
Utter callousness- Centre doesn’t care about deaths of migrant workers they caused by pushing them in to trains, makeshift carts and on foot to the distant homes. At least acknowledge tentative and incomplete data of rail Sharmik Trains and road accidents #migrantslivesmatter
— Thomas Isaac (@drthomasisaac) September 15, 2020
राहुल गाँधी ने भी सरकार पर निशाना साधा। उन्होंने ट्वीट कर कहा, 'मोदी सरकार नहीं जानती कि लॉकडाउन में कितने प्रवासी मज़दूर मरे और कितनी नौकरियाँ गयीं।
तुमने ना गिना तो क्या मौत ना हुई
हाँ मगर दुख है सरकार पे असर ना हुई,
उनका मरना देखा ज़माने ने,
एक मोदी सरकार है जिसे ख़बर ना हुई।'
मोदी सरकार नहीं जानती कि लॉकडाउन में कितने प्रवासी मज़दूर मरे और कितनी नौकरियाँ गयीं।
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) September 15, 2020
तुमने ना गिना तो क्या मौत ना हुई
हाँ मगर दुख है सरकार पे असर ना हुई,
उनका मरना देखा ज़माने ने,
एक मोदी सरकार है जिसे ख़बर ना हुई।
अब सरकार ने जो बात स्वीकार की है वह यह कि 1 करोड़ से ज़्यादा प्रवासी मज़दूर अपने-अपने घर लौटे। हालाँकि, यह आँकड़ा कैसे तैयार किया गया है, यह साफ़ नहीं है। क्योंकि मई महीने के आख़िर में ही सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी यानी सीएमआईई ने एक रिपोर्ट में कहा था कि अप्रैल में 12.20 करोड़ लोगों का रोज़गार छिना। इसके बाद तो हाल ही में आई सीएमआईई की एक रिपोर्ट के अनुसार 1.9 करोड़ वेतनभोगी लोगों की नौकरी चली गई। जब इतने लोगों की नौकरियाँ गईं तो क्या वे प्रवासी मज़दूर नहीं होंगे और यदि प्रवासी मज़दूर होंगे तो क्या बिना काम किए वे शहरों में पड़े होंगे हालाँकि सरकार ने यह भी कह दिया कि एक करोड़ से ज़्यादा प्रवासी मज़दूर लौटे हैं तो इसका मतलब स्पष्ट नहीं है कि एक करोड़ से ज़्यादा का मतलब क्या है।
यह तब की बात है जब लाखों लोग शहरों में काम बंद होने के बाद जैसे-तैसे अपने घर पहुँचने की जद्दोजहद में थे। लॉकडाउन शुरू होने पर तो बड़ी संख्या में लोग पैदल ही अपने-अपने घरों के लिए निकल गए थे, लेकिन यह सख़्ती के बाद भी जारी रहा। काम बंद होने के कारण ग़रीब मज़दूरों को शहर में रहना ज़्यादा ही मुश्किल हो रहा था। ऐसे लोगों के पास सबसे बड़ा संकट खाने को लेकर था। भूखे रहने की नौबत आने पर कुछ लोग हज़ार-हज़ार किलोमीटर तक पैदल चलने के लिए जोखिम उठा रहे थे। हालाँकि, सरकारों ने अपनी-अपनी तरफ़ से खाने-पीने की व्यवस्था करने के दावे किए और सरकार ने राहत पैकेज की घोषणा भी की थी, लेकिन ऐसी लगातार रिपोर्टें आती रहीं कि ये नाकाफ़ी साबित हो रहे थे।