सीएए लागू कर रही तो क्या NRC पर डर रही है सरकार?
जिस नागरिकता संशोधन क़ानून यानी सीएए को लेकर पिछले साल पूरे देश में विरोध-प्रदर्शन हुए थे उसके नियमों व उपबंधों को ही तैयार करने में पाँच महीने और लग सकते हैं। संसद से पास कराए गए इस क़ानून को लागू करने में 1 साल से ज़्यादा की देरी हो चुकी है। यह देरी इसलिए हुई है कि किसी क़ानून को लागू कराने के लिए नियम व उपबंध तय किए जाते हैं जो अभी तक तैयार नहीं किए जा सके हैं। सीएए पर सफ़ाई देने वाली सरकार ने ही एनआरसी के मामले में कहा है कि इसको पूरे देश में लागू किए जाने पर अभी तक फ़ैसला नहीं लिया जा सका है। कहा जाता रहा है कि सीएए और एनआरसी आपस में जुड़े हैं और सीएए के बाद एनआरसी को लागू किया जाएगा। इसी वजह से इस पर काफ़ी विवाद हुआ है।
नागरिकता संशोधन अधिनियम को 12 दिसंबर, 2019 को अधिसूचित किया गया था और 10 जनवरी, 2020 को यह क़ानून बन गया था। लेकिन नियमों को बनाने में देरी के कारण यह क़ानून लागू नहीं हो पाया है।
जहाँ लोकसभा समिति ने सरकार को 9 अप्रैल तक का समय दिया है, वहीं राज्यसभा के पैनल ने 9 जुलाई तक की समय सीमा बढ़ा दी है। गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने संसद में यह जानकारी उस एक सवाल के जवाब में दी जिसमें पूछा गया था कि नियमों को कब लागू किया जाएगा।
संसद के नियमों के अनुसार, क़ानून बनने के छह महीने के अंदर ये नियम बन जाने चाहिए थे। इस मामले में पिछले साल दिसंबर में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि कोरोना महामारी के कारण नियमों को बनाने की प्रक्रिया में देरी हुई है। उन्होंने कहा था कि टीकाकरण अभियान शुरू होने के बाद इसे लागू किया जाएगा। देश में कोरोना टीकाकरण अभियान 16 जनवरी को शुरू हो चुका है।
सरकार ने मंगलवार को राज्यसभा में यह भी स्पष्ट किया कि देशव्यापी नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी पर अभी तक कोई निर्णय नहीं लिया गया है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पहले कहा था कि सीएए के बाद एनआरसी को लाया जाएगा। उनके ही शब्दों में - 'आप क्रोनोलॉजी समझिए, पहले नागरिकता क़ानून आएगा, फिर एनआरसी आएगी'। उनके इस बयान का साफ़ मतलब था कि एनआरसी और नागरिकता क़ानून जुड़े हुए हैं।
सीएए व एनआरसी जुड़े हैं, यह इससे भी साफ़ है कि जब एनआरसी से लोग बाहर निकाले जाएँगे तो नागरिकता क़ानून के माध्यम से पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बाँग्लादेश के हिंदू, सिख, पारसी, जैन, बौद्ध और ईसाई धर्म के लोगों को भारत की नागरिकता दी जाएगी।
ऐसा इसलिए कि सीएए ने पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान से हिंदू, जैन, सिख, पारसी, ईसाई और बौद्ध समुदायों से संबंधित अवैध प्रवासियों के लिए नागरिकता को आसान बनाया है और एनआरसी भारत में अवैध प्रवासियों की पहचान करने की योजना है। ऐसा सरकार ने ही ख़ुद कहा था। लेकिन बाद में सरकार दावा करने लगी कि सीएए और एनआरसी अलग-अलग हैं और उनका आपस में कोई संबंध नहीं है।
क्या हैं आशंकाएँ?
लेकिन सरकार की सफ़ाई के बावजूद लोगों के मन में आशंकाएँ बैठ गईं कि एनआरसी के तहत जिनके पास कागज नहीं होगा उन्हें देश से निकाला जाएगा और तब बाक़ी सबको तो देश की नागरिकता मिल जाएगी लेकिन मुसलमानों को नहीं मिल पाएगी। इस क़ानून के विरोधियों को आशंका है कि यह क़ानून मुसलमानों के प्रति भेदभाव करता है और संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप का उल्लंघन करता है। एनआरसी के साथ-साथ एनपीआर यानी राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के प्रति भी आशंका जताई गई है। एनपीआर को अपडेट किया जा रहा है और उसमें जो जानकारियाँ माँगी गई हैं उनको एनआरसी की एक प्रक्रिया के तौर पर देखा जा रहा है। इसीलिए विपक्षी दलों द्वारा शासित कई राज्यों में एनपीआर को अपडेट करने से इनकार कर दिया गया है।
लेकिन सरकार बार-बार सफ़ाई देती रही कि एनआरसी और एनपीआर का कोई संबंध नहीं है। दिसंबर 2019 में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने न्यूज़ एजेंसी एएनआई को दिये एक इंटरव्यू में कहा था कि एनपीआर का एनआरसी से कोई संबंध नहीं है। शाह ने कहा कि दोनों ही अलग-अलग क़ानूनों से संचालित होते हैं और एनपीआर के आँकड़ों को एनआरसी के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाएगा।
जबकि इसके बाद अंग्रेज़ी अख़बार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में छपी एक ख़बर में कहा गया था कि तथ्यों के मुताबिक़, एनआरसी को एनपीआर के आधार पर नागरिकता अधिनियम 1955 के तहत नागरिकता नियम 2003 में निर्दिष्ट किया गया है। वास्तव में एनपीआर एनआरसी के लिए बनाए गए नियमों का हिस्सा और एक भाग है। अख़बार के मुताबिक़, नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में कम से कम नौ बार संसद को बताया था कि एनआरसी को एनपीआर के आँकड़ों के आधार पर बनाया जाएगा।
इन्हीं आशंकाओं के कारण जब सीएए आया तो पूरे देश में विरोध-प्रदर्शन हुए। कई राज्यों में हिंसा हुई। असम, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक में हिंसा में कई लोगों की जानें गई थीं। दिल्ली में भी ज़बर्दस्त प्रदर्शन हुए।
बाद में सीएए के ख़िलाफ़ विरोध-प्रदर्शन का केंद्र शाहीन बाग़ हो गया। यह पूरी तरह शांतिपूर्ण रहा और इसका नेतृत्व अधिकतर महिलाओं के हाथ में रहा। इस आंदोलन की दुनिया भर में तारीफ़ हुई। सरकार ने इसको ख़त्म करने के लिए तरह-तरह के क़दम उठाए। इस बीच शाहीन बाग़ के प्रदर्शन को बदनाम करने के लिए सोशल मीडिया पर अभियान चलाया गया। सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थ भी भेजे। और आख़िरकार कोरोना संक्रमण के बीच ही इस प्रदर्शन को पुलिस ने ख़त्म करा दिया।