नशे पर एक नीति ही नहीं तो ड्रग्स कैसे नियंत्रित होगा?
फ़िल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की 14 जून 2020 को संदिग्ध परिस्थितियों में हुई अफ़सोसजनक मौत के बाद एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने, एक-दूसरे को लांछित करने, मीडिया द्वारा इस मुद्दे पर 'नागिन डांस' करते हुए ख़ुद को 'मुंसिफ़' के रूप में पेश करने और इस विषय को झूठ-सच के घालमेल से अनावश्यक रूप से लंबे समय तक खींचने का कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलेगा। सुशांत की मौत 'हत्या नहीं बल्कि आत्महत्या थी', जाँच एजेंसियों के इस निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद इसी विषय से जुड़ी इससे भी बड़ी बहस इस बात को लेकर छिड़ी कि क्या फ़िल्म जगत, ड्रग एडिक्ट्स या नशेड़ियों का अड्डा है
इस विषय पर होने वाली चीख़-चिल्लाहट केवल मीडिया पर टीआरपी रेस के लिए होने वाली चटकारेदार बहस तक ही सीमित नहीं रही बल्कि यह विषय संसद में भी गूंजता सुनाई दिया। इसका कारण यह था कि अभिनेत्री कंगना रनौत ने अपने एक इंटरव्यू में फ़िल्मी पार्टियों में ड्रग्स के कथित इस्तेमाल को लेकर फ़िल्म उद्योग की तुलना 'गटर' से कर डाली थी। कंगना ने अपने एक इंटरव्यू में 99 प्रतिशत बॉलीवुड स्टार्स के ड्रग्स सेवन में शामिल होने का दावा किया था।
इसके जवाब में राज्यसभा सांसद जया बच्चन ने कहा था कि 'जिन लोगों ने फ़िल्म इंडस्ट्री से नाम कमाया, वे इसे 'गटर' बता रहे हैं मैं इससे बिल्कुल सहमत नहीं हूँ।' मैं सरकार से अपील करती हूँ कि वह ऐसे लोगों से कहे कि इस तरह की भाषा का इस्तेमाल न करें।' यहाँ कुछ लोग हैं जो 'जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं।' बहरहाल, यह बहस इतनी आगे बढ़ी कि हेमामालिनी जैसे अन्य कई कलाकार फ़िल्म उद्योग के बचाव में सामने आए तो कई मशहूर निर्देशक,अभिनेता व अभिनेत्रियों पर ड्रग्स से जुड़े होने संबंधी शक अथवा जाँच की सुई घूमी। कुल मिलाकर ड्रग्स व नशे की दुनिया से संबंधित यह बहस टीवी व मीडिया के माध्यम से इधर-उधर ज़रूर घूमती रही लेकिन इस बहस में छुपी सच्चाई को उजागर करने का काम न तो किसी प्रोपेगैंडिस्ट मीडिया ने किया न ही स्वयं को सत्यवादी कहने वाले बहस के अनेक प्रतिभागियों ने।
वैसे ड्रग्स का शाब्दिक अर्थ दवा या औषधि ही होता है। पहले दवाइयों की दुकानों पर लगने वाले बोर्ड्स पर लिखा होता था 'केमिस्ट एंड ड्रगिस्ट'। परन्तु धीरे-धीरे 'ड्रग्स' शब्द को नशे और नशेड़ियों से जोड़ दिया गया। समाज के ही न जाने किस तथाकथित 'अधिकृत वर्ग' ने शराब का नशा करने वालों को तो नशेड़ी या ड्रग एडिक्ट्स की श्रेणी में नहीं रखा परन्तु गांजा, भांग, अफ़ीम, चरस आदि का सेवन करने वालों पर नशेड़ियों का लेबल लगा दिया। गोया शराब पीने वाला शराबी नहीं कहलाता बल्कि वह शराब का 'शौक़ फ़रमाता है' परन्तु जो गांजा, भांग, अफ़ीम या चरस का सेवन करता है वह क़ानून की नज़रों में अपराधी तो है ही, साथ ही वह गंजेड़ी, भंगेड़ी, अफ़ीमची या चरसी जैसी उपाधियों का भी हक़दार है।
ज़रा इन्हीं 'नीति निर्माताओं' से पूछिए कि यदि शराब पीने में कोई बुराई नहीं या यह विश्व की सर्वमान्य मुख्यधारा से जुड़ा 'सोमरस' है तो क्या वजह है कि इस 'मय मुबारक' को गुजरात, बिहार, मिज़ोरम, नगालैंड, लक्षद्वीप तथा मणिपुर के कई क्षेत्रों में इसकी बिक्री, सेवन व व्यवसाय प्रतिबंधित है
ज़ाहिर है बिहार जैसे विशाल राज्य में शराब पर प्रतिबंध लगाने के समय से लेकर अब तक इससे जुड़े जिस मुद्दे को सत्ता द्वारा अपने राजनैतिक लाभ के लिए उठाया जाता है वह यही है कि शराब लोगों को बर्बाद कर रही थी, लोगों के घर उजाड़ रही थी, लोगों के स्वास्थ्य तथा उनकी आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव डाल रही थी। गोया सरकार के अनुसार जनता के परिवार कल्याण व उनके उज्जवल भविष्य के मद्देनज़र राज्य में शराबबंदी की गयी थी। ज़ाहिर है शराबबंदी वाले अन्य राज्यों के भी निश्चित रूप से यही तर्क होंगे।
लॉकडाउन में मदिरालय क्यों खोले गए
अब इस सरकारी तर्क को स्वीकार करते हुए इन्हीं नीति-निर्माताओं से पूछें कि क्या शराब बिक्री व उत्पादन वाले देश के अन्य राज्यों के लोगों के उज्जवल भविष्य या उनके परिवार के लोगों की तरक़्क़ी की चिंता उन राज्यों के नेताओं को नहीं लॉकडाउन के दौरान जब धर्म स्थलों से काफ़ी पहले मदिरालय खोले गए और इनकी क़ीमतें बेरोज़गार लोगों से कई गुना ज़्यादा वसूल की गईं, यहाँ तक कि मदिरा प्रेमी लोगों की किलोमीटर लंबी लगी लाइनों को देश की गिरती अर्थव्यवस्था को संभालने का सूचक बताया गया उस समय शराब बंदी वाले राज्यों के वह तर्क कहाँ चले गए जिनके आधार पर शराबबंदी की गयी थी गोया हमारे ही देश के किसी राज्य के क़ानून के मुताबिक़ एक राज्य का मदिरा सेवनकर्ता शराब का 'शौक़ फ़रमाने वाला' तो बंदी वाले राज्य का सेवनकर्ता शराबी, नशेड़ी या ब्योड़ेबाज़ यह तो जनता के साथ बड़ी नाइंसाफ़ी है।
एक देश एक क़ानून की बात करने वालों को तो कम से कम इधर ज़रूर नज़र डालनी चाहिए प्रत्येक राज्य को राजस्व भी चाहिए और प्रत्येक राज्य का नेतृत्व अपने राज्यवासियों का हितचिंतक होने का भी दावा करता है
अब नज़र डालते हैं गांजा, भांग, अफ़ीम, चरस जैसे उन नशा सामग्रियों पर जहाँ शराब की ही तरह सरकार व समाज दोनों का ही दोहरा मापदंड है। कई राज्यों में अफ़ीम का उत्पादन वैध है तो कई राज्यों में भांग व अफ़ीम के ठेके हैं। केवल देश के साधु संतों व फ़क़ीरों का एक बड़ा वर्ग ही इन चीज़ों का सेवन खुलेआम नहीं करता बल्कि लगभग सभी प्रतिष्ठित वर्ग के अनेक लोग ऐसे कथित 'ड्रग्स' का सेवन करते हैं। अनेक खिलाड़ियों के नाम भी सामने आ चुके हैं। क्या नेता क्या अभिनेता, सभी क्षेत्रों के तमाम लोग इसका किसी न किसी रूप में प्रयोग करते हैं। परन्तु यह 'शौक़' सिर्फ़ इसीलिए छुपा कर किया जाता है क्योंकि सरकार ने इसके व्यवसाय, उत्पादन, बिक्री व सेवन को ग़ैर क़ानूनी बना दिया है। ठीक उसी तरह जैसे आज बिहार व गुजरात जैसे राज्यों में शराब अगर मिलती भी है और पी भी जाती है तो उसी तरह चोरी-छुपे जैसे कि चरस-गांजा जैसे कथित ड्रग्स।
यदि इतिहास के पन्ने पलट कर देखें तो किसी ज़माने में यही व्यवसाय हमारे देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी हुआ करते थे। परन्तु आज इनके विरुद्ध क़ानून बनने के चलते यह न केवल ग़ैर क़ानूनी बन गए बल्कि समाज में भी इसका प्रयोग न करने वालों द्वारा इसे अस्वीकार्य किया जाने लगा।
लिहाज़ा फ़िल्म जगत को बदनाम करने की साज़िश वह भी उनके द्वारा जो स्वयं कभी इसका 'शौक़ फ़रमाते' रहे हों, क़तई मुनासिब नहीं। हर वर्ग में हर तरह के लोग हैं। हर एक के अपने-अपने शौक़ भी हैं जो किसी के लिए भले ही 'व्यसन' क्यों न हों परन्तु करने वाले के लिए उनके निजी शौक़ हैं। परन्तु इसके बावजूद यदि सरकार या समाज को इनमें केवल बुराई या नशा नज़र आता है तो यदि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसके लिए कुछ नहीं किया जा सकता है तो कम से कम अपने ही देश में इसके लिए एक जैसे नियम तो बनने ही चाहिए और उन्हें सख़्ती से लागू भी करना चाहिए, चाहे वह शराब हो या कोई अन्य नशा संबंधी सामग्री, यदि 'समाज व जनहित' में प्रतिबंधित करना ही है तो सभी नशीली वस्तुओं के उत्पादन,बि क्री व व्यवसाय को सामान रूप से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। ड्रग्स, शराब व नशे को लेकर समाज व सरकार का दोहरापन ठीक नहीं।