जन्माष्टमी के दिन घर से ख़रीदारी के लिए निकला। रास्ते में पर्स खाली सा लगा। सोचा एटीएम से कुछ पैसे निकाल लूँ। लेकिन ये क्या। पर्स से एटीएम कार्ड ग़ायब था। बहुत दिमाग दौड़ाया। घर में ढूंढा। फिर सोचा कि कहीं छूट गया होगा। किसी एटीएम में। आस पास के नियमित इस्तेमाल करने वाले एटीएम पर दिमाग गया। लेकिन समझ नहीं आ रहा था कि कहाँ छूटा होगा।
तकनीक से माथा मारने की आदत है। तो सोचा पता लगाऊँ कि कार्ड कहाँ छूट गया। सबसे पहले आख़िरी बार पैसे कब निकाले थे यह चेक किया। पता चला कि दस दिन पहले पैसे निकाले गए थे। अब यह पता लगाना था कि उस दिन मैं कहाँ-कहाँ गया था। गूगल मैप में हिस्ट्री देखी। पता चला कि दस दिन पहले यानी तीन अगस्त को मैं पास के एक मॉल गया था। झट यह याद आया कि वहीं के एटीएम से तो पैसे निकाले थे।
मॉल पहुँचा तो एटीएम में गार्ड नहीं था। पास में ड्यूटी पर तैनात मॉल के गार्ड से पूछताछ की तो उसके पास दस-पन्द्रह कार्ड पड़े हुए थे। एक मेरा भी था।
यह क़िस्सा मैं इसलिए नहीं बता रहा कि मेरा एटीएम खो गया था और मिल गया। मैं यह बताना चाहता हूँ कि कैसे मेरे बारे में पल-पल की जानकारी जो मुझे याद नहीं होती गूगल को पता होती है। कैसे सिर्फ़ यह जानकारी ही नहीं गूगल हर दूसरे तीसरे दिन याद दिलाता है कि आप उस दुकान पर गए थे। कैसी है। मैं कौनसी चीज़ ख़रीदना चाहता हूँ गूगल जानता है। उसके मुताबिक़ ही विज्ञापन भेजता रहता है।
अब फ़ेसबुक पर आते हैं। कुछ साल पहले फ़ेसबुक पर एक नोटिफ़िकेशन आया कि आप अपना डेटा चाहें तो बैकअप ले सकते हैं। मैंने बैकअप डाउनलोड कर लिया। जिज्ञासा हुई और खोला तो फ़ेसबुक के अंदर मेरे एसएमएस के सारे संदेश थे। मेरी कॉल डिटेल थी। आख़िर फ़ेसबुक के पास इसका क्या काम लेकिन वो ऐसा करता है।
सवाल यह उठता है कि भारत के लिए फ़ेसबुक कैसे सेफ़ है और टिकटॉक क्यों नहीं। ज़्यादा सोचें और सिर फटे इससे पहले हम जान चुके हैं कि फ़ेसबुक ने कैसे हमारी सरकारी पार्टी को अपने चंगुल में फंसा रखा है। फ़ेसबुक के पास जो डाटा है वो कैंब्रिज़ एनालिटिका से कहीं ज़्यादा है।
देश के सैनिक स्मार्टफ़ोन इस्तेमाल करते हैं। फ़ेसबुक और गूगल भी इस्तेमाल करते हैं। यह पता लगाना क्या मुश्किल है कि हमारी फौज की मूवमेंट क्या है। अभी टैंक कहाँ बढ़ रहे हैं। किस फौजी अफ़सर के क़रीब कौन है। किसकी कमज़ोरी क्या है। कौन कहाँ का खाना पसंद करता है और किसके किसके साथ निजी और संवेदनशील रिश्ते हैं।
सिर्फ़ इतना ही नहीं, देश के शीर्ष नेता कब किसके पास मिलने गए। कहाँ रहे। उनकी निजी प्राथमिकताएँ क्या हैं, किस ब्यूरोक्रेट पर कौनसा हनीट्रैप काम करेगा। किसके नज़दीक के किस आदमी के पास से क्या मिल सकता है। सबकुछ।
यानी फ़ेसबुक और गूगल के पास भारत के लोगों का ज़्यादा डेटा है। उनके पास आपके डेटा का मनचाहा इस्तेमाल करने के अधिकार भी हैं।
उनपर भरोसा क्यों
हम क्यों उनपर भरोसा करते हैं ये तो वही लोग हैं जो सरकार को आँख दिखाने में भी नहीं चूकते। हाल ही में ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने एक क़ानून बनाने की सोची। क़ानून था कि फ़ेसबुक और गूगल किसी मीडिया कंपनी की ख़बरें अगर अपने दर्शकों को देते हैं तो उन्हें पैसा देना पड़ेगा। चूँकि आप किसी दूसरे चैनल या अख़बार के कंटेंट से पैसे कमा रहे हैं तो आप पैसे दीजिए।
इसका जवाब गूगल ने खुली धमकी से दिया। गूगल ने सरकार से बात करने के बजाय सीधे ऑस्ट्रेलिया की जनता को चिट्ठी लिखी। चिट्ठी में कहा गया कि अगर आपकी सरकार ऐसे नियम लाती है तो हम मुफ्त में सर्च की सेवाएँ नहीं दे पाएँगे।
अमेरिका में तो बाक़ायदा फ़ेसबुक पर संसद में अभियोग चला। कई सवाल पूछे गए। इन सवालों में से ज़्यादातर जवाब दिया ही नहीं। ऐसा लगता था कि अमेरिकी संसद का 'बिग टेक' कंपनियाँ मज़ाक़ उड़ा रही हैं। लेकिन हुआ क्या। कुछ भी तो नहीं हुआ।
भारत में भी सोशल मीडिया कंपनी के ख़िलाफ़ आवाज़ें उठती रही हैं। लेफ्ट और राइट दोनों तरफ़ से इस पर सवाल उठे हैं। आरएसएस के विचारक के एन गोविंदाचार्य ने काफ़ी पहले सवाल उठाया कि सोशल मीडिया कंपनियाँ गड़बड़ करती हैं। 2014 में गोविंदाचार्य ने मोदी को चिट्ठी लिखी। चिट्ठी में कहा गया कि प्रधानमंत्री जुकरबर्ग से मिलने न जाएँ। उन्होंने माँग की थी कि फ़ेसबुक के प्राइवेसी, डेटा को सुरक्षित रखने और टैक्स चोरी के मामले नहीं साफ़ होने पर प्रधानमंत्री फ़ेसबुक से मुलाक़ात न करें। लेकिन प्रधानमंत्री गले मिले, उन्हें गले भी लगाया।
जब प्रधानमंत्री किसी से ऐसे मिलते हैं तो इसका एक संदेश होता है। इस आदमी की प्रधानमंत्री तक पहुँच है। ज़ाहिर बात है अधिकारी और दूसरे नेता ऐसे लोगों से रियायत बरतते हैं।
एक पल को मान भी लिया जाए कि सबकुछ सुरक्षित है। नेताओं और सरकारों को टेक्नोलॉजी के बारे में नहीं पता लेकिन एप्पल को क्या कहेंगे। वो इनसे बड़ी टेक कंपनी है। उसकी विशेषज्ञता क्या है। आपको पता है कि गूगल और फ़ेसबुक के गेम एप्पल अपने प्लेटफ़ॉर्म पर नहीं डालती। इनके गेम कई बार रिजेक्ट किए जा चुके हैं। क्यों एप्पल जैसी कंपनी भी इनसे डरती है। क्यों फ़ेसबुक का एक-एक ऐप कई-कई बार रिजेक्ट हो जाता है।
पश्चिमी दुनिया की कुटिलताओं से परिचित और आशंकित चीन ने इसी वजह से फ़ेसबुक और गूगल दोनों को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। लेकिन भारत की सरकार अमेरिका के ख़िलाफ़ नहीं जाना चाहती। मजबूरी हो या लगाव लेकिन यह जानते हुए भी कि ये कंपनियाँ अमेरिका को आपात स्थिति में किसी भी तरह का डेटा उपलब्ध करा सकती हैं, हमने इन कंपनियों को सिर पर चढ़ाया हुआ है।
बात सिर्फ़ अमेरिका की नहीं है। अमेरिका आज हमें मीठी गोली दे रहा है लेकिन हम जानते हैं अतीत में अमेरिका ने पाकिस्तान का ही साथ दिया है। भविष्य में भी दे तो कोई बड़ी बात नहीं। सोचिए ये डेटा हमारे लिए कितना ख़तरनाक हो सकता है।