यह सही है कि पूरे भारत में और विशेषकर हिन्दी भाषी समाज में गिरीश कर्नाड को फ़िल्मों की वजह से अधिक जानते हैं। कन्नड़ और अन्य दक्षिण भारतीय भाषाओं की फ़िल्मों में तो उन्होंने काम किया ही, लेकिन हिंदी फ़िल्मों में भी वह चर्चित अभिनेता रहे। 'उत्सव', 'निशांत', 'मंथन' 'पुकार' से लेकर हाल की 'एक था टाइगर' और `टाइगर ज़िंदा है’ जैसी कई कलात्मक और व्यावसायिक फ़िल्में हैं जिनमें उन्होंने अभिनय किया और इस कारण सुधी दर्शकों से लेकर आम लोगों तक के बीच सराहे गए। लेकिन कर्नाड मूलत: अपने को नाटककार ही मानते हैं। कुछ फ़िल्मों की उन्होंने पटकथाएँ भी लिखी हैं। जैसे यू.आर. अनंतमूर्ति के उपन्यास `संस्कार’ पर इसी नाम से बनी कन्नड़ फ़िल्म में पटकथा उनकी लिखी हुई थी। इस फ़िल्म में उन्होंने अभिनय भी किया।
बचपन में 'यक्षज्ञान’ की प्रस्तुतियाँ देखते हुए उनके भीतर रंगमंच का गहरा लगाव विकसित हुआ जो अभिनय से लेकर नाट्य लेखन की तरफ़ ले गया। हालाँकि शुरू में वह कवि बनना चाहते थे, लेकिन आख़िरकार नाट्य लेखन से जुड़ गए।
कन्नड़ अभिनेत्री और निर्देशक अरुंधति नाग को दिए गए साक्षात्कार में गिरीश कर्नाड ने साफ़-साफ़ कहा है कि फ़िल्मों में काम पैसे के लिए करता हूँ, लेकिन मन तो नाटक लिखने में ही रमता है।
1964 में `तुग़लक’ की धूम मच गई थी
बतौर नाटककार भी गिरीश कर्नाड की लेखनी मुख्यत: दो दिशाओं में सक्रिय रही। एक तो इतिहास और ऐतिहासिक पात्रों में और दूसरे मिथकीय और लोक कथाओं में। जिस नाटक ने उनको अख़िल भारतीय स्तर पर चर्चित किया वह है `तुग़लक’। 1964 में यह नाटक प्रकाशित हुआ और उसी समय इसकी धूम मच गई। इस बात से शायद ही कोई इनकार करेगा कि इस नाटक के आने के पहले मुहम्मद बिन तुगलक का नाम सिर्फ़ इतिहास में दर्ज था। और कुछ किंवदंतियों में। लेकिन हाड़-मांस के पुतले के रूप में वह कैसा था, इसके बारे में जानकारी इस नाटक में ही मिली। और यह भी सही है कि इस नाटक का तुगलक सिर्फ़ एक व्यक्ति या ऐतिहासिक चरित्र भर नहीं है। उसमें बहुत कुछ उस सार्वकालिक पात्र जैसा भी है जो आज भी हो सकता है और आने वाले कल में भी।
गिरीश कर्नाड का तुग़लक इतिहास सम्मत तो है ही एक मनोवृत्ति भी है, प्रवृत्ति भी है। ऐसी मनोवृत्ति या प्रवृत्ति जिसमें बाज़ दफे उदारता भी होती है और कई बार संकुचित नज़रिया भी। तुगलक हत्याएँ भी कराता है और रियाया के साथ इंसाफ़ भी कराता है। अपने राज में वह दिल्ली के बाशिंदों को दौलताबाद तक ले जाता है बिना यह सोचे और समझे कि आम जनता के साथ कैसी दमनात्मक कार्रवाई कर रहा है। `तुग़लकी फ़रमान’ को प्रत्यक्षत: गिरीश ने ही दिखाया।
एतिहास के साथ लोकजीवन से भी जुड़ाव
इतिहास से संबंधित गिरीश का दूसरा नाटक `तलेदंड’ है जिसका हिन्दी अनुवाद राम गोपाल बजाज ने `रक्त कल्याण’ नाम से किया है। इसका मंचन हिन्दी में पहली बार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंग-मंडल के लिए इब्राहिम अल्काजी ने किया था। यह कन्नड़ इतिहास के धार्मिक और सामाजिक व्यक्तित्व बसवन्ना के जीवन पर आधारित है जो लिंगायत आंदोलन के अग्रणी संत थे। यह नाटक इतिहास से संबंधित तो है ही सामाजिक और धार्मिक सुधार से भी जुड़ा है। इसके भी हिंदी में और दूसरी भाषाओं में कई मंचन हो चुके हैं।
कर्नाड जितने इतिहास और सामाजिक विषयों से जुड़े थे उतने ही लोकजीवन से भी। बहुत पठित कर्नाड ने जर्मन लेखक थॉमस मान और भारतीय प्राचीन क्लासिक साहित्य `कथा सरित्सागर’ से प्रेरणा लेकर `हयबदन’ नाटक लिखा था जो एक ज़माने में काफ़ी चर्चित रहा। `नागमंडल’ तो एक लोककथा पर आधारित है जिसकी कहानी उन्हें प्रसिद्ध लोक साहित्य विशेषज्ञ ए.के. रामानुजन ने सुनाई थी।
`अग्नि और बरखा’, `ययाति’ और `बलि’ जैसे नाटक भी हैं जो मिथकों पर आधारित हैं। इनमें और दूसरे नाटकों में भी कर्नाड स्त्री-पुरुष संबंधों की पेंचीदगियों के कई रूपों को सामने लाते हैं।
जैसे `ययाति’ पौराणिक चरित्र ययाति की कथा का विश्लेषण है तो `बलि’ में एक युवा स्त्री और हाथी के महावत के बीच रागात्मत लगाव की गाथा।
दूसरे शब्दों में कहें तो इतिहास, समाज और व्यक्ति – तीनों गिरीश की रचनाओं में हैं और इस तरह उनके लेखन की परिधि व्यापक है। सरोकार भी। गिरीश निजी बातचीत में भी और अपने साक्षात्कारों में भी कहा करते थे कि मैं चाहता हूँ कि मेरा लेखन कम से कम दो सौ साल तक ज़िंदा रहे। काल की गति तो निर्मम होती है। निश्चित तौर पर कहा नहीं जा सकता कि इतिहास के चक्र से कौन-सा और किसका लेखन बचा रहेगा और कौन-सा काल-कवलित होगा। पर यह मानने में आज शायद ही किसी को संकोच हो कि गिरीश कर्नाड के नाटक लंबे समय तक प्रासंगिक बने रहेंगे। `तुगलक’ के आए तो पैंसठ साल हो गए और वह आज भी उतना ही ताज़ा है जितना लिखे जाने के वक़्त था।