जब गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ के अनुवाद को बुकर सम्मान मिलने की ख़बर आई तो हिंदी साहित्य की हलचलों से अनजान 40 करोड़ पार की विशाल हिंदी पट्टी ने अचरज से पूछा- यह गीतांजलि श्री कौन है, और यह ‘रेत समाधि’ कैसी किताब है। बुकर की लांग लिस्ट में किताब के आते ही इसकी हजारों और आने वाले दिनों में लाखों प्रतियां बिक गईं। खरीदने वालों ने यह मान कर ख़रीदी कि यह बहुत दिलचस्प, चटपटी सी किताब होगी- जिसमें गूढ़ता भी इतनी आकर्षक पैकेजिंग के साथ होगी कि एक बड़ा जीवन दर्शन आसानी से समझ में आ जाएगा। आख़िर दुनिया इस पर यों ही नहीं रीझी है। लेकिन पढ़ने वालों ने पाया कि यह तो बहुत मुश्किल किताब है- पांच पन्नों में ही कहानी बिखर जाती है, पचास पन्नों में भाषा समझ में नहीं आती है और पचहत्तर पन्नों तक पहुंच कर ऊब कर इसे रख देने का जी करता है। उपन्यास में सबकुछ है मगर कोई दास्तान नहीं है। यह मासूम और मायूस पाठकीय प्रतिक्रिया अनुभव के एक गहरे और जटिल संसार या सागर में छलांग न लगा पाने के अभ्यास का नतीजा थी जिस पर और बात करना ऐसे विषयांतर का जोखिम मोल लेना होगा, जिसमें सबकुछ और बिखर जाने का ख़तरा है।
बहरहाल, जब यह ख़बर आई कि ‘रेत समाधि’ पर मशहूर दास्तानगो महमूद फ़ारूक़ी एक दास्तान तैयार कर रहे हैं तो हैरान होना स्वाभाविक था। एक ऐसी कृति पर दास्तान कैसे तैयार की जा सकती है जो दास्तानों के पार चली जाती है? ‘रेत समाधि’ में सब कुछ है, मगर वैसी इकहरी दास्तान नहीं है जिसे कुछ संपादित करके, रट कर, कुछ नाटकीय अंदाज़ में प्रस्तुत करते हुए छुट्टी पा ली जाए। यह एक बेहद जटिल पाठ है जिसके कई सिरे हैं। ये सिरे कहीं आपस में मिलते हैं और कहीं नहीं मिलते हैं। फिर वह लिखी इस अंदाज़ में गई है कि अतीत, वर्तमान, भविष्य, इतिहास, भूगोल और साहित्य सब गड्डमड्ड होते चलते हैं। पढ़ते हुए तो यह संभव है कि पाठक फिर से पन्ने पलट ले, वापस लौट कर पुरानी पढ़त को फिर से बांचे और फिर कथा का मर्म समझे। लेकिन सुनते और सुनाते हुए यह सुविधा नहीं है। जो है, बस एक बार में इस तरह बयान किया जाना है कि वह सिर्फ़ समझ में ही न आए, बल्कि दिल में उतर आए, टीसता रहे। फिर यहां तो कोई एक क़िस्सा नहीं है- एक विराट जंगल की तरह कई क़िस्से हैं। इन क़िस्सों में परिवार है- मां-बेटी-भाई-भाभी-नौकर-चाकर और दुनिया है, बंटवारा, दंगे, दहशत, बेदखली, स्मृति-विस्मृति है, भारत-पाकिस्तान, दिल्ली-लाहौर और खैबर है और कभी कौवे-तीतर, कभी आम और कभी साड़ी और कभी दीवार और कभी खिड़की और कभी घर का खेल है।
जाहिर है, महमूद फ़ारूक़ी ने दास्तान नहीं चुनौती उठाई थी। उन्हें भी एहसास रहा होगा कि ‘रेत समाधि’ को किसी सपाट दास्तान की तरह बयान करना मुश्किल है। हालांकि वे किसी भी दास्तान को सपाट रहने नहीं देते। वे बहुत संजीदगी और सूक्ष्मता से किसी कृति को अपनी अलग सी दास्तान में बदल डालते हैं। इसके लिए वे तमाम भाषाओं के स्रोतों का सहारा लेते हैं, अपने विपुल अध्ययन का परिचय देते हुए अंग्रेज़ी, फ्रेंच, उर्दू, फ़ारसी, हिंदी और संस्कृत सहित कई अन्य भाषाओं के लेखकों, विद्वानों और दार्शनिकों के उद्धरण जोड़ते हुए अपनी दास्तान को इतना समृद्ध कर डालते हैं कि दर्शक ठगा सा और बंधा सा रह जाता है।
रेत समाधि में भी यह युक्ति दिखाई पड़ती है। दास्तान की शुरुआत संस्कृत के श्लोक से होती है, उसमें धीरे-धीरे उर्दू के शेर जुड़ते जाते हैं, मूल कहानी तक आने से पहले एक लंबी और गहरी भूमिका सुनने वालों के लिए आगे बढ़ने की ज़मीन तैयार होती है और फिर सुनने वाले के सामने ‘रेत समाधि’ खुलती है।
लेकिन फिर दुहराने की ज़रूरत है कि ‘रेत समाधि’ को खोलना इतना आसान नहीं। वह जितनी कथा में है, उतनी ही भाषा में, जितना वह कहे जा रहे में है, उससे ज़्यादा चुप्पी में, जितना वर्तमान में है, उससे ज़्यादा उस अतीत में, जिसका कोई सुराग नहीं मिलता, वह सरहदों के आरपार चली मारकाट में है, और इस मारकाट के भी पार उस मोहब्बत में, जिसकी याद की उंगली थामे अस्सी साल की एक बुज़ुर्ग आधुनिक दुनिया के नियम-क़ानूनों को धत्ता बताती हुई ख़ैबर में चली आई है और कलाशनिकोव लेकर पहरा देने वाले ख़तरनाक क़िस्म के लोगों से फूलों के गमले मंगवा रही है।
तो कहानी के किसी रूपाकार में ढलने से, किसी डिब्बे में अटने से इनकार करने वाली इस कहानी के भीतर महमूद बहुत सावधानी से उतरते हैं। वे उन अंशों को चुनते हैं जिनसे कुछ कथा का मर्म खुले, कुछ ज़ुबान का लुत्फ़ मिले, लेकिन इससे आगे जाकर वे जैसे ‘रेत समाधि’ का अपना पाठ तैयार करते हैं जिसमें कोशिश उस मूल तत्व को, उस मूल तंतु को पकड़ने की होती है जिससे इस दास्तान की रूह बुनी गई है। यह परिवारों में चलने वाले टकरावों से लेकर मुल्कों के बीच चलने वाले युद्धों और उसकी वजह से खींची जाने वाली सरहदों की व्यर्थता को बताने वाली कथा है- याद दिलाने वाली कि मज़हब और मुल्क के नाम पर क्या कुछ लहूलुहान होता रहा है, कि इन सबके बावजूद एक मूर्ति बची रहती है, एक मोहब्बत बची रहती है जो अपने मुकाम तक पहुंच कर ही मानती है- भले इसके लिए उसे गोली खानी पड़े।
बेशक, यह गोली वाला प्रसंग महमूद ने संपादित कर दिया है- शायद इसीलिए कि असली कहानी जीने-मरने या सलामत लौट आने की नहीं, वहां तक पहुंचने की है जहां परिवार मायने नहीं रखते, मुल्क मायने नहीं रखते, सरहदें मिट जाती हैं- और इन सब पर हावी हो जाती है एक बहुत पुराने लगभग आदिम रिश्ते की वह लकीर जिसे एक बुढ़िया दिल्ली से लाहौर तक अपनी छड़ी से खींचती हुई बाक़ी सब लकीरों से बड़ा बना डालती है। (हालांकि मैं होता तो वह गोली वाला प्रसंग भी बचाने की कोशिश करता- जिन्होंने मूल उपन्यास पढ़ा है, उन्हें आख़िर इस मोड़ का इंतज़ार था और यह मोड़ बताता कि दरअसल संतों वाली शहादत क्या होती है- वह रेत समाधि कैसे बनती है जिसे काल की हवाएं नहीं मिटा पातीं।)
बहरहाल, दो-तीन बातें और। उपन्यास बहुत बड़ा है और इसलिए बहुत संपादन के बावजूद, बहुत सारे अंश छोड़ने के बावजूद दास्तान भी बहुत लंबी बनी। इसके बाद भी इसने लोगों को देर तक बांधे रखा तो, इसका श्रेय बहुत सावधानी से तैयार की गई स्क्रिप्ट को तो जाता ही है, महमूद फ़ारूक़ी और पूनम गिरधानी की दास्तानगोई को भी जाता है। उन्होंने बहुत जीवंतता के साथ यह दास्तान पेश की, जहां नाटकीयता की गुंजाइश थी, वहां उसे बचाए रखा और जहां मद्धिम आवाज में काम चल सकता था, वहां पिच ऊंची नहीं होने दी। बंटवारे के दौरान लाहौर से दो लड़कियों के भागने की दास्तान कहते हुए पूनम गिरधानी ने अपने रंगमंचीय अनुभव की मिसाल पेश की- उस दौर की दहशत और सिहरन उनकी आवाज में, उनके अंदाज़ में जैसे बिल्कुल बोलती रही।
लेकिन जब दास्तानें बहुत लंबी होती जाती हैं, जब सुनने वाले वाह-वाह करते रहते हैं तो शायद दास्तानगो भी कभी-कभी अपनी दास्तान के जादू की गिरफ़्त में आ जाता है। उस दास्तान में अपनी बात, अनुभव जोड़ते जाने का उसका मोह फिर दास्तान को बाधित करने लगता है। इस दास्तान में ग्रहम ग्रीन, दॉस्तोएव्स्की सहित कई सारे नाम जुड़ते चलते हैं, उनके उद्धरण आते चलते हैं और फिर एक मोड़ पर यह कुछ चिप्पियों जैसे लगने लगते हैं। काश कि वे कुछ कम होते। इससे दास्तान का अनुभव शायद कुछ गाढ़ा ही होता। फिर इसमें उस सरलीकरण से बचने की संभावना भी होती जिसमें हर समस्या का हल इंसानियत या मोहब्बत के आईने में देखने की एक शैली बन जाती है। लेकिन शायद इतनी छूट हमें दास्तान कहने वाले को देनी होगी। उसका हक़ बनता है कि कभी-कभी वह हमें उड़ाता हुआ इतनी दूर भी ले जाए कि ज़मीन पर जल्द लौटने की चाहत हो।
बहरहाल, इस मामूली से एतराज़ के अलावा बाक़ी जो कुछ था, वह एक बहुत समृद्ध, अनुभव से आप्लावित शाम की स्मृति दे गया है। याद आता रहा कि हम यह दास्तान ऐसे दौर में सुन रहे हैं जब सरहदों और मज़हबों के आरपार लकीरों को गाढ़ा करने की नादान कोशिशें जारी हैं। इस पार कई बोलने वाले जेलों में बंद हैं तो उस पार भी एक शायर अहमद फ़रहाद को बीते दिनों वहां की सुरक्षा एजेंसियां उठा ले गई हैं जिसका अभी तक कुछ पता नहीं चला है। इस दौर में ऐसी दास्तानें और इनका बार-बार कहा जाना हमारे लिए एक बड़ी राहत है।