एस एन सुब्बाराव का बानवे वर्ष की आयु में 27 अक्टूबर यानी बुधवार को जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल में निधन हो गया। सुब्बाराव जी की लम्बी जीवन-यात्रा के बारे में उनके सहयोगियों और प्रशंसकों को तो पर्याप्त (या आधी-अधूरी) जानकारी है पर आम नागरिकों को ज़्यादा पता नहीं है। नागरिकों को कई बार व्यक्तियों के चले जाने के बाद ही पूरी जानकारी मिलती है। सुब्बाराव जी के संदर्भ में भी यही हो रहा है। देश में उनके प्रशंसकों का एक बड़ा समूह है पर उसमें अधिकांश की उम्र अब साठ को पार कर गई होगी। उनके साथ मेरा परिचय कोई साढ़े पाँच दशकों तक फैला रहा पर ज्ञात-अज्ञात कारणों से उनका निकटस्थ होने का सौभाग्य नहीं मिल पाया।
मूलतः कन्नड़ भाषी पर अनेक देसी-विदेशी भाषाओं के जानकार सुब्बाराव जी की विशेषता यही थी कि वे लगातार चलते रहते थे। किसी एक स्थान पर कम और सभी स्थानों पर सदैव उपलब्ध रहते थे। मध्य प्रदेश में मुरेना ज़िले के जौरा में स्थापित अपने महात्मा गांधी सेवा आश्रम के अलावा दिल्ली में दीनदयाल उपाध्याय मार्ग स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान के होस्टल में भी उनके लिए एक कमरा हमेशा सुरक्षित रहता था। वे नई दिल्ली भी प्रवास पर ही आया करते थे।
सुब्बाराव जी के साथ मेरे लम्बे परिचय का मुख्य भाग वर्ष 1966-67 से 1981 के बीच के उस महत्वपूर्ण डेढ़ दशक का है जब सर्वोदय आंदोलन के प्रणेता आचार्य विनोबा भावे, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, आचार्य कृपलानी, खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान, गांधी जी के सचिव रहे प्यारेलाल जी, आचार्य दादा धर्माधिकारी, काका कालेलकर, धीरेंद्र मजूमदार, आचार्य राममूर्ति नारायण भाई देसाई, भवानी प्रसाद मिश्र समेत गांधी और सर्वोदय समाज की तमाम महान विभूतियाँ हमारे बीच न सिर्फ़ सशरीर उपस्थित थीं, सत्ता और समाज-परिवर्तन के क्षेत्र में ज़बरदस्त तरीक़े से अपने प्राण भी झोंक रहीं थीं (कुछ बड़े नाम शायद छूट गए हों तो क्षमा)। यह एक बड़ा ही क्रांतिकारी समय था और उसका साक्षी बनना और इन सब विभूतियों से मिल पाना सबसे बड़ा सौभाग्य। उस सबकी चर्चा फिर किसी वक़्त। इस समय केवल सुब्बाराव जी के लिए ही दो शब्द:
वर्ष 1966-67 तक मैं एक सक्रिय पूर्णकालिक गांधीवादी पत्रकार के तौर पर इंदौर में श्री महेंद्रकुमार के सानिध्य में गांधी शांति प्रतिष्ठान और सर्वोदय प्रेस सर्विस के साथ जुड़ चुका था। इस कारण सुब्बाराव जी से मिलने के अवसर प्राप्त होते ही रहते थे। उनसे मुलाक़ात का सिलसिला तब और बढ़ गया जब वर्ष 1971 में नई दिल्ली में गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़कर श्री प्रभाष जोशी और अनुपम (मिश्र) के साथ काम करने का अवसर मिला। सम्मेलनों और बैठकों में भाग लेने की गति भी बढ़ गई और सुब्बाराव जी को नज़दीक से देख और समझ पाने की भी।
सुब्बाराव जी का मूल संस्कार भक्ति और प्रशिक्षण का था जो उनमें शायद कांग्रेस सेवा दल के नायक के रूप में काम करते हुए विकसित हुआ होगा।
इसीलिए सर्वोदय और गांधी के सक्रिय आंदोलनकारी सेवकों के बीच उनकी उपस्थिति (जैसा मैंने महसूस किया) एक अलग प्रकार की ही रहती थी। कार्यक्रमों की शुरुआत उनके ओजस्वी गीतों : ’हम होंगे कामयाब, एक दिन’ (we shall overcome, one day) और युवाओं में उत्साह भरने वाले उद्बोधनों से होती थी। सुब्बाराव जी ने अपनी भूमिका और भागीदारी को हमेशा सीमित और नाप-तौलकर रखा। अपनी उपस्थिति को किसी भी व्यवस्था-विरोधी आंदोलन की अंतरंग बैठक का हिस्सा बनाने में कभी रुचि नहीं दिखाई। इसीलिए उनके प्रशंसकों में गांधी, विनोबा और जयप्रकाश-तीनों ही विभूतियों के अनुयायिओं का शुमार रहा।
वर्ष 1972 के अप्रैल में चम्बल घाटी के कोई साढ़े पाँच सौ दस्युओं का आत्म-समर्पण मुरेना और उसके बाद मई में बुंदेलखंड के दस्युओं का छतरपुर के मौली डाक बंगले पर हुआ था। दोनों ही अवसरों पर मैं उपस्थित था। छतरपुर के लिए तो जेपी को लेने मैं ही मध्य प्रदेश प्रदेश सरकार के छोटे विमान से दिल्ली से पटना गया था। चम्बल के आत्म-समर्पण के पहले मुझे कोई तीन महीने ग्वालियर को मुख्यालय बनाकर चम्बल के बीहड़ों में घूमने और दस्युओं से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ था। दस्युओं से हुई ये मुलाक़ातें ही बाद में उनके-समर्पण को लेकर श्री प्रभाष जोशी और अनुपम के साथ मिलकर लिखी गई बहुचर्चित पुस्तक (‘चम्बल की बंदूक़ें गांधी के चरणों में’) में काम आईं।
इसे संयोग कहा जा सकता है कि दस्युओं के समर्पण में मुख्य भूमिका निभाने वाले सर्वोदय सेवकों स्व. हेमदेव शर्मा और स्व. महावीर भाई के साथ ग्वालियर में काम करते हुए अथवा भिंड-मुरेना के बीहड़ों में किसी मध्यस्थ (शायद चरणसिंह) के साथ भटकने के दौरान सुब्बाराव जी से हुई किसी भी मुलाक़ात का मुझे स्मरण नहीं है। उनसे मुलाक़ात शायद 12 अप्रैल 1972 को जौरा में गांधी आश्रम के समीप हुए आत्म-समर्पण के अवसर पर ही हुई होगी। वह एक ऐतिहासिक क्षण था जिसके प्रमुख किरदारों में हेमदेव जी और महावीर भाई के अलावा दस्यु मानसिंह के पुत्र तहसीलदार सिंह और पंडित लोकमन (लुक्का) शामिल थे। मानसिंह गिरोह के इन दोनों प्रमुख दस्युओं ने 1960 में विनोबा जी के समक्ष समर्पण कर दिया था। दोनों ही अद्भुत व्यक्तित्व के धनी थे।
इंदिरा गांधी की तानाशाह हुकूमत के ख़िलाफ़ वर्ष 1974 में चले बिहार आंदोलन के दौरान विनोबा जी और जयप्रकाश जी के कई युवा वैचारिक सहयोगी आपस में बंट गए पर सुब्बाराव जी ने सभी के साथ अपने सम्बन्धों को पूर्ववत बनाए रखा। सुब्बाराव जी तटस्थ रहे। उन्होंने आंदोलन के पक्ष या विरोध में कभी कोई मंतव्य नहीं ज़ाहिर किया। मैं बिहार आंदोलन के दौरान लगभग वर्ष भर पटना में जयप्रकाश जी के साथ जुड़ा रहा, उनके साथ अलग-अलग स्थानों की यात्राएँ कीं, कई सभाओं और रैलियों में भाग लिया पर स्मरण नहीं पड़ता कि सुब्बाराव जी से इस दौरान कोई भेंट हुई होगी।
इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल समाप्त कर चुनावों की घोषणा करने के बाद जब एक-एक करके सारे नेता जेलों से रिहा किए गए तो दिल्ली स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान जे पी के नेतृत्व में विपक्ष की तमाम राजनीतिक गतिविधियों का मुख्य केंद्र बन गया।
हम लोगों (प्रभाष जी, अनुपम आदि) की पत्रकारिता का केंद्र इंडियन एक्सप्रेस का दफ़्तर भी वहाँ से नज़दीक ही था। तब कोशिश पूरे समय प्रतिष्ठान में ही बने रहने की रहती थी। प्रतिष्ठान के ऊपर होस्टल में ही सुब्बाराव जी का कमरा भी था। सभी लोगों का नाश्ता-भोजन भी कॉमन डाइनिंग हॉल में ही होता था। सुब्बाराव जी से इस दौरान भेंट अवश्य हुई होगी पर याद नहीं पड़ता कि उन्होंने अपनी इस विशेषता को कभी छोड़ा हो कि किसी भी तरह की दलगत राजनीति में नहीं पड़ना है।
बहुत कम उम्र में (शायद तेरह वर्ष) आज़ादी के आंदोलन में उनके भाग लेने की बात अगर छोड़ दें तो बाद के वर्षों में सुब्बाराव जी आंदोलनों के कभी मित्र नहीं रहे। न ही उन्होंने कभी संस्थाओं के अंदरूनी विवादों में किसी तरह के हस्तक्षेप में रुचि दिखाई। किसी समय गांधी शांति प्रतिष्ठान भी कई तरह के विवादों को लेकर चर्चाओं में रहा पर सुब्बाराव जी ने अपने आपको इन सबसे अलग रखा। भोपाल स्थित गांधी भवन के विवाद में भी उन्होंने चुप रहना ही उचित समझा, हालाँकि उन पर आरोप भी लगाए गए कि वे अपने नज़दीकी लोगों को संरक्षण प्रदान कर रहे हैं, सत्य का साथ नहीं दे रहे हैं। अपनी इन्हीं विशेषताओं के चलते सुब्बाराव जी को सभी तरह की स्वयंसेवक जमात के लोगों और गांधीवादियों का जीवन भर सम्मान प्राप्त होता रहा और वे अंत तक सभी के प्रिय ‘भाई जी’ बने रहे। विनम्र श्रद्धांजलि।