सियासी घरानों में सत्ता का संघर्ष कोई नई बात नहीं है। यह संघर्ष राजतंत्र में भी था और अब लोकतंत्र में भी है। हमारे देश के लोकतंत्र में इसकी जड़ें इसलिए ज़्यादा घर कर गई हैं क्योंकि राजनीति में परिवारवाद का बोलबाला बढ़ा है। कोई एक पार्टी इसके लिए दोषी नहीं है बल्कि सभी पार्टियों में यह बीमारी घुन की तरह लगी हुई है।
क्षेत्रीय पार्टियों के तो यह हाल हैं कि वे सिर्फ़ एक परिवार के इर्द-गिर्द ही खड़ी रहती हैं। महाराष्ट्र के ताक़तवर सियासी पवार परिवार में जो हुआ उससे यह चर्चा जोरों पर छिड़ गई है कि क्या ठाकरे और भोसले राजघराने के बाद अब राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख शरद पवार के परिवार में सत्ता को लेकर कलह शुरू हो गई है।
शरद पवार ने जब माढा लोकसभा क्षेत्र से चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा की तो सबकी निगाहें यह तलाशने लगीं कि इस सियासी परिवार में सब ठीक-ठाक तो है ना?
शरद पवार ने एलान किया है कि उन्होंने चुनाव न लड़ने का फ़ैसला नई पीढ़ी के हाथ में राजनीति की बागडोर सौंपने के उद्देश्य से लिया है। इस बयान के कुछ घंटों बाद ही पवार परिवार के सदस्य रोहित राजेंद्र पवार ने फ़ेसबुक पोस्ट लिखकर कहा कि शरद पवार को अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए।
रोहित ने लिखा, ‘पवार साहब के हर फ़ैसले का हम आदर करते हैं। लेकिन इस आदर से भी बड़ा प्रेम होता है जो कि मैं और मेरे जैसे तमाम कार्यकर्ता पवार साहब से करते हैं। इसीलिए हम कहना चाहते हैं कि पवार साहब को इस फ़ैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए।’ इस फ़ेसबुक पोस्ट का असर किसी धमाके जैसा रहा।
अजित पवार का वर्चस्व बढ़ा?
शरद पवार का अपने भतीजे अजित पवार के बेटे पार्थ पवार के लिए चुनाव मैदान छोड़ देना इतना सहज निर्णय नहीं है? इस पर मीडिया और राजनीतिक गलियारों में कयास लगने शुरू हो गए। कोई यह कहने लगा कि पवार घराने में अब अजित पवार का वर्चस्व बढ़ रहा है? तो कोई यह कहने लगा कि अजित पवार लोकसभा में अपने बेटे को भेजकर दिल्ली की राजनीति में भी अपना दख़ल बढ़ाना चाहते हैं?
शरद पवार के भाई अप्पा साहेब पवार के बेटे का नाम राजेंद्र पवार था। राजेंद्र भी राजनीति में आना चाहते थे लेकिन परिवार के एक सदस्य अजित पवार पहले ही राजनीति में आ चुके थे। ऐसे में उनका यह सपना अधूरा रह गया। इसके बावजूद राजेंद्र पवार ने बारामती एग्रो और शिक्षण संस्थाएँ चलाकर समाज में अपना नाम हासिल किया।
राजेंद्र पवार के 31 साल के बेटे रोहित राजेंद्र पवार की राजनीति में दिलचस्पी है। हाल ही में वह पुणे ज़िला परिषद के सदस्य बने हैं। रोहित विधानसभा चुनाव लड़ना चाहते हैं। वह हडपसर या कर्जत-जामखेडची में से किसी एक विधानसभा सीट से चुनाव लड़ सकते हैं।
कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि नई पीढ़ी के युवा पार्थ और रोहित में सत्ता को लेकर प्रतिस्पर्धा छिड़ी है लेकिन जो लोग पवार परिवार को जानते हैं उनकी मानें तो ऐसा कुछ नहीं है।
महाराष्ट्र के सियासी परिवारों में सत्ता का संघर्ष होता रहा है। प्रदेश के सबसे ताक़तवर कहे जाने वाले ठाकरे परिवार में इतना बड़ा संघर्ष हुआ कि दोनों भाई दो अलग-अलग पार्टियाँ चला रहे हैं।
छत्रपति शिवाजी महाराज के भोसले राजशाही परिवार की बात भी किसी से छुपी नहीं है। पिछले सप्ताह ही शरद पवार ने उदयन राजे भोसले व शिवेन्द्र राजे में समझौता कराया। दोनों आज अलग-अलग पार्टियों के प्रतिनिधि हैं, शुक्र इतना ही है कि एक का सम्बन्ध राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी तो दूसरे का संबंध उसकी मित्र पक्ष कांग्रेस से है।
गोपीनाथ मुंडे के परिवार की भी कुछ ऐसी ही कहानी है। मुंडे की तीनों बेटियाँ बीजेपी के साथ हैं तो भतीजे धनंजय मुंडे राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) में हैं और विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष हैं।
दबाव के आगे झुके पवार
अब सवाल यह उठता है कि जो कुछ पवार परिवार में हो रहा है, वह क्या सत्ता संघर्ष ही है या उसके पीछे कोई और कारण है? क्योंकि क़रीब 10 दिन पहले ही पवार ने अपने परिवार के चुनाव लड़ने को लेकर एक लक्ष्मण रेखा खींची थी और कहा था कि आने वाले लोकसभा चुनाव में उनके परिवार से अगली पीढ़ी का कोई नया सदस्य चुनाव नहीं लड़ेगा।
इसके पीछे पवार ने तर्क दिया था कि एक ही परिवार से अगर तीन-तीन उम्मीदवार चुनाव में उतरेंगे तो पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच ग़लत संदेश जाएगा। लेकिन जब उन्होंने पार्थ की उम्मीदवारी घोषित की तो कहा कि उन पर बहुत दबाव है, इसलिए वह चुनाव लड़ने का अपना दावा वापस ले रहे हैं।
2014 में भी नहीं लड़े थे पवार
दरअसल, शरद पवार ने 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले भी चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा की थी और राज्यसभा से संसद पहुँचे थे। तब पवार ने माढा की लोकसभा सीट से विजय सिंह मोहिते पाटिल को मैदान में उतारा था। लेकिन माढा लोकसभा क्षेत्र में पार्टी कार्यकर्ताओं में चल रही गुटबाज़ी बहुत ज़्यादा बढ़ गई थी और उसे ख़त्म करने के लिए कुछ नेताओं ने शरद पवार का नाम उछाला कि इस बार पवार यहाँ से चुनाव लड़ेंगे। पवार ने उस पर अपनी स्वीकृति भी दे दी लेकिन उन्हें शायद इस बात का एहसास नहीं रहा होगा कि माढा की गुटबाज़ी असर उनके परिवार तक पहुँच जाएगा।
राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले पवार ने अपनी नाम वापसी के साथ गुटबाज़ी का पटाक्षेप करने की कोशिश की लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पवार ने कहा कि पार्थ को टिकट देने के लिए उन पर निरंतर दबाव आ रहा था।
एनसीपी में अब तक पवार जो कहते थे वह होता था। लेकिन जब पवार ने यह भांप लिया कि उनके भतीजे चुनाव लड़ने को लेकर अडिग हैं तो उन्होंने चुनाव में न उतरने का फ़ैसला किया। अब सवाल यह उठता है कि क्या शरद पवार को इस बात का एहसास हो गया था कि चुनाव न लड़ने देने पर उनका पोता किसी और पार्टी में चला जाएगा? शरद पवार के एक बयान को देखें तो इसका जवाब हाँ में नज़र आता है।
कांग्रेस के नेता प्रतिपक्ष राधाकृष्ण विखे पाटिल के बेटे सुजय पाटिल के बीजेपी में जाने पर पवार ने कहा था कि मैं अपने परिवार के बच्चों के बाल हट्ट (जिद) को तो पूरा कर सकता हूँ राधाकृष्ण विखे के बच्चे की जिद नहीं।
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हमारे परिवार में कोई कलह नहीं है और जो भी ऐसा माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं वे कभी कामयाब नहीं होंगे। एक वक़्त आता है जब आपको राजनीति छोड़ने के बारे में सोचना पड़ता है। इसी वजह से मैंने चुनाव न लड़ने का निर्णय लिया।
शरद पवार, एनसीपी प्रमुख
रोहित के आने से होगा विवाद
एनसीपी के नेताओं का कहना है कि इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव में रोहित राजेंद्र पवार की राजनीति में एंट्री की चर्चा से परिवार में विवाद गहरा गया है। पार्थ की उम्मीदवारी को अजित पवार द्वारा पार्टी पर अपनी पकड़ बनाने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। अगर पार्थ मावल सीट पर चुनाव जीत जाते हैं तो दिल्ली में वह सुप्रिया सुले के समकक्ष हो जाएँगे।
उल्लेखनीय है कि 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले भी पवार परिवार में कुछ ऐसी ही कशमकश शुरू हुई थी। वह दौर था पवार की बेटी सुप्रिया सुले के चुनावी राजनीति में प्रवेश का। बताया जाता है कि तब पार्टी अजित पवार को दिल्ली की राजनीति में भेजना चाहती थी।
शरद पवार ने पिछले लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी के शीर्ष नेताओं को निर्देश दिए थे कि वे अब दिल्ली का रास्ता देखें और महाराष्ट्र की राजनीति आने वाली पीढ़ी के लिए छोड़ दें।
पवार ने इसके पीछे तर्क दिया था कि दिल्ली की राजनीति में अनुभवी लोगों की ज़रूरत पड़ती है, इसलिए कई सालों से मंत्री पद का अनुभव लेने वाले नेता सांसद का चुनाव लड़ें। पवार के इस निर्णय को इस नज़रिए से देखा जाने लगा कि कहीं वह महाराष्ट्र की राजनीति सुप्रिया सुले के हवाले तो नहीं करना चाहते? यह वही समय था जब शिवसेना में बाला साहब ठाकरे राजनीति से दूर रहने वाले अपने पुत्र उद्धव ठाकरे को मंचों पर लाने लगे थे और राज ठाकरे से दूरी बनाने लगे थे। लेकिन एनसीपी में वैसा नहीं हुआ और सुप्रिया सुले ही बारामती से चुनाव लड़कर दिल्ली पहुँची तथा अजित पवार महाराष्ट्र में बने रहे।