+
हिंसा के बहाने किसान आंदोलन को कमज़ोर करने में जुटे विरोधी  

हिंसा के बहाने किसान आंदोलन को कमज़ोर करने में जुटे विरोधी  

सरकार शुरू से कृषि क़ानून वापस नहीं लेने और किसान आंदोलन को कमज़ोर करने के लिए फूट डालने की रणनीति पर चल रही थी। ट्रैक्टर परेड के बाद उसे बहाना मिल गया है।

गणतंत्र दिवस पर आयोजित ट्रैक्टर परेड में हुई हिंसा से एक वर्ग बेहद खुश नज़र आ रहा है। ऐसा लगता है जैसे उसे मन माँगी मुराद मिल गई हो या जैसे उन्हें बस ऐसे मौक़े का ही इंतज़ार रहा हो। उनके इस उत्साह को टीवी की ख़बरों, मोदी-भक्त एंकरों द्वारा संचालित होने वाली बहसों और सोशल मीडिया में की जा रही टिप्पणियों में देखा जा सकता है। वे आंदोलनकारियों पर हिंसा का दोष मढ़ने और उन्हें दंडित करने की बात कर रहे हैं। वे यह भी साबित करने में जुटे हुए हैं कि आंदोलन भटक गया है और अब उसे वापस ले लेना चाहिए।

हिंसा पर क्यों खुश हैं ये लोग?

वे इस तथ्य को पूरी तरह नज़रंदाज़ कर देना चाहते हैं कि परेड के दौरान जो कुछ हुआ उसके लिए असल में कौन ज़िम्मेदार है। उन्हें दीप सिद्धू या लाक्खा सिंह नहीं दिख रहे, दिल्ली पुलिस की उकसाने वाली कार्रवाइयाँ नहीं दिख रहीं। सरकार द्वारा किसी साज़िश की संभावना भी वे नहीं देखना चाहते। उन्होंने तो बिना जाँच-पड़ताल के ही अपना फ़ैसला सुना दिया है और उनका फ़ैसला किसान आंदोलन के ख़िलाफ़ है।

इस वर्ग में कौन लोग हैं, ये समझने में कोई दिक़्क़त नहीं होनी चाहिए। इसका अधिकांश हिस्सा वे लोग हैं जो पहले से ही किसान आंदोलन को ग़लत ठहराते रहे हैं। उस समय भी वे यही कर रहे थे जब वह पूरी तरह शांतिपूर्ण था। तब वे दूसरे बहाने ढूँढ़कर ऐसा कर रहे थे। कभी आंदोलन में उन्हें खालिस्तानी दिख रहे थे तो कभी टुकड़े-टुकड़े गैंग और चीन-पाकिस्तान।

हिंसा का फ़ायदा उठाने की कोशिश

हालाँकि गाँधीवादी ढंग से चल रहे आंदोलन के प्रति वे फिर भी उस तरह से आक्रामक नहीं हो पा रहे थे और एक तरह की खीझ तथा तिलमिलाहट उनकी प्रतिक्रियाओं में देखी जा सकती थी। मगर अब उन्हें परेड में हुई हिंसा (इसे हिंसा कहना ग़लत होगा, ये झड़पें थीं, जो कई बार आंदोलनों में  हो जाती हैं) से आंदोलन को बदनाम करने का बहाना मिल गया है और वे इसका भरपूर दोहन करने में जुटे हुए हैं।

आंदोलन विरोधियों में मोदी भक्तों, सत्तारूढ़ राजनीतिक दल, उससे जुड़े संगठनों और गोदी मीडिया का होना तो लाज़िमी है ही, मगर उनमें वे कॉरपोरेट समर्थक भी शामिल हैं, जो मानते हैं कि कृषि को बदलने के लिए सरकार द्वारा बनाए गए क़ानून बिल्कुल सही हैं।

वे अपना समर्थन किंतु-परंतु लगाकर ज़ाहिर करते हैं ताकि उन्हें किसान विरोधी न करार दिया जाए, मगर उनकी इच्छा किसान आंदोलन को नाकाम होते देखने की है, उसे नाकाम करने की है।

अब क्या होगा?

परेड में हुई झड़पों का समर्थन कोई नहीं कर रहा, न किया जा सकता है। किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे लोग भी उसे जायज़ नहीं ठहरा रहे। लेकिन उसके आधार पर पूरे आंदोलन को ही भटकाव का शिकार बताया जा रहा है और दलील दी जा रही है कि अब इसे वापस ले लिया जाना चाहिए। क्या इसे ठीक कहा जा सकता है? ठीक नहीं कहा जा सकता, मगर जब उसके आधार पर राजनीति करनी हो या परोक्ष रूप से सरकार या कानूनों का समर्थन करना हो तो ठीक लगने लगता है।

 - Satya Hindi

आन्दोलन वापस लेंगे?

कई बार उन्हें सँभालना बड़े-बडे नेताओं के वश में नहीं होता। गाँधी जी खुद नहीं सँभाल पाए थे, जिसका नतीजा था चौरी-चौरा कांड। हिंसा के बाद उन्होंने आंदोलन ही वापस ले लिया था, जिस पर नेहरू और अन्य नेताओं ने भी सवाल खड़े किए थे। सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि अगर शासक वर्ग षड़यंत्रपूर्वक हिंसा करवा दे तो क्या आप वही करेंगे जो वह चाहता है यानी आंदोलन को वापस लेना?

अगर किसान नेता आन्दोलन वापस ले लेंगे तो वे सरकार के एजेंडे को ही पूरा करेंगे। इससे वही वर्ग सबसे ज़्यादा खुश होगा, जो चाहता है कि किसान वापस लौट जाएं। यही लोग तर्क दे रहे हैं कि सरकार ने जो प्रस्ताव दिया है उसे वे चुपचाप मान लें, क्योंकि इससे अच्छी डील नहीं हो सकती।

मुद्दा ये है कि किसान अगर दो महीने से मौसम के तमाम प्रकोप झेलते हुए मोर्चेबंदी किए हुए हैं तो इसीलिए कि उन्हें ये क़ानून नहीं चाहिए और उन्हें पूरा हक़ है कि वे लोकतांत्रिक तरीक़े से अपने माँगे मनवाने के लिए संघर्ष को जारी रखें। झूठे तर्क और बनावटी वज़हें देकर उन पर दबाव बनाना एक अनैतिक कार्य है।

आन्दोलन कमज़ोर

इसमें संदेह नहीं है कि ट्रैक्टर परेड से आंदोलन को कमज़ोर करने में जुटी ताक़तें एक हद तक कामयाब होती दिख रही हैं। दो संगठनों ने आंदोलन से अलग होने की घोषणा कर दी है। यह पहला मौक़ा है जब आंदोलनकारी किसान संगठनों में फूट दिख रही है। इससे आंदोलन कितना कमज़ोर होगा, यह तो भविष्य बताएगा, मगर एक झटका तो इससे लगा ही है।  

 - Satya Hindi

आशंका शुरू से ही थी!

लेकिन ये कोई ऐसी घटना भी नहीं है जिसकी आशंका किसी को नहीं थी। सरकार शुरू से आंदोलन को कमज़ोर करने के लिए फूट डालने की रणनीति पर चल रही थी। उसने अन्य संगठनों और नेताओं को महत्व देकर भी ऐसा करने की कोशिश की थी, मगर उसे कुछ ख़ास हासिल नहीं हुआ था।  

जन आंदोलनों का डायनेमिक्स अलग होता है। वे हमेशा एक जैसी राह पर नहीं चलता। उसमें उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। गड़बड़ियाँ भी होती हैं और चूक भी होती हैं।

आंदोलनकारी उससे सबक़ भी लेते हैं। किसान नेताओं के बयानों से साफ़ लगता है कि ट्रैक्टर परेड में हुई गड़बड़ी से भी उन्होंने सबक़ सीखे हैं।

इसीलिए एक ओर वे शरारती एवं राजनीतिक तत्वों की भूमिका को बार-बार रेखांकित करके उन्हें बाहर निकालने की बात कर रहे हैं, तो दूसरी ओर आंदोलन को शांतिपूर्ण तरीक़े से आगे बढ़ाने के लिए उपायों पर भी वे ज़ोर दे रहे हैं।

हमें ये याद रखना चाहिए कि आज़ाद भारत में होने वाला ये सबसे बड़ा और ताक़तवर किसान आंदोलन है और धीरे-धीरे इसने राष्ट्रव्यापी शक़्ल ले ली है। ट्रैक्टर परेड के बाद वह कहीं से भी कमज़ोर होने नहीं जा रहा, बल्कि अगर सरकार ने दमनकारी उपाय किए या उपेक्षा की तो उसे उसके परिणाम भुगतने पड़ेंगे।

वास्तव में अब वक़्त आ गया है जब उसे कानूनों को रद्द करने की प्रक्रिया शुरू करना चाहिए। यही किसान हित में है, उसके हित में भी है और देश हित में भी।

सत्य हिंदी ऐप डाउनलोड करें