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किसान संघर्ष: गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन की झलक

किसान संघर्ष: गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन की झलक

किसानों के आंदोलन को तरह-तरह से बदनाम करने, उसमें फूट डालने और किसानों को हिंसा के लिए उकसाने की तमाम सरकारी कोशिशें भी नाकाम हो चुकी हैं। 

इस समय देश में अभूतपूर्व हालात बने हुए हैं। एक तरफ जहां देश भर के किसान तीन नए कृषि कानूनों को अपनी मौत का वारंट मानकर उन्हें रद्द कराने के लिए आंदोलन कर रहे हैं, वहीं केंद्र सरकार ने इन कानूनों को अपनी नाक का सवाल बना लिया है। उसने इन कानूनों को रद्द करने से इनकार कर दिया है। अलबत्ता वह इन कानूनों में कुछ संशोधन करने के लिए राजी है लेकिन किसानों का कहना है उन्हें कानूनों को रद्द किए जाने से कम कुछ भी स्वीकार नहीं है। 

दरअसल, नए कृषि कानून सिर्फ किसान और उसकी खेती के लिए ही संकट नहीं हैं, बल्कि आम आदमी के हितों को भी प्रभावित करने वाले हैं। इसलिए किसानों के आंदोलन को समाज के अन्य तबकों का भी व्यापक समर्थन मिल रहा है।

यही वजह है कि किसान संगठनों की ओर 8 नवंबर को आयोजित भारत बंद बहुत हद तक कामयाब रहा। श्रम संगठनों और राजनीतिक दलों की ओर से तो भारत बंद जैसे आंदोलनात्मक आयोजन कई बार हुए हैं, लेकिन किसानों की ओर से ऐसा आयोजन पहली बार हुआ और सफल रहा। यह अपने आप में महत्वपूर्ण बात है। 

अहिंसक आंदोलन 

देश में किसानों के आंदोलन पहले भी होते रहे हैं, लेकिन वे अलग-अलग मुद्दों पर अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग समय में हुए हैं। आजादी के बाद यह पहला मौका है कि एक ही मुद्दे पर देश भर के किसान आंदोलित हैं। वे निर्णायक लड़ाई लड़ने के मूड में हैं। उनका पूरा आंदोलन अहिंसक और अराजनीतिक है।

पिछले छह वर्षों के दौरान यह पहला मौका है जब नरेंद्र मोदी सरकार को इस तरह की चुनौती से रूबरू होना पड़ रहा है। हालांकि एक साल पहले दिसंबर महीने में नागरिकता संशोधन कानून और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी के खिलाफ भी व्यापक आंदोलन खड़ा हो गया था लेकिन वह कोरोना संक्रमण के चलते थम गया था। कोरोना का संकट तो अभी भी कायम है लेकिन किसानों का मानना है कि नए कृषि कानूनों की तुलना में कोरोना का खतरा कुछ भी नहीं है।

सरकार के सामने चुनौती

सरकार को भी इस बात का अहसास है कि किसान आंदोलन उसके लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है। इसीलिए वह एक ओर जहां किसानों से संवाद करते दिखना चाह रही है, वहीं दूसरी ओर उसकी सरकार के मंत्री और बीजेपी नेता किसान आंदोलन को देश विरोधी बताने से भी बाज नहीं आ रहे हैं। 

किसानों के आंदोलन को तरह-तरह से बदनाम करने, उसमें फूट डालने और किसानों को हिंसा के लिए उकसाने की तमाम सरकारी कोशिशें भी नाकाम हो चुकी हैं।

खालिस्तान-पाकिस्तान का शिगूफ़ा

पहले कहा गया कि यह तो सिर्फ पंजाब के खाए-अघाए किसानों का आंदोलन है। इसीलिए इसे खालिस्तान समर्थकों का आंदोलन भी बताया गया और सोशल मीडिया पर अभी भी बताया जा रहा है। यह सही है कि इस आंदोलन की पहल पंजाब से हुई है लेकिन जब इसमें हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि राज्यों के किसान भी जुड़ गए तो कहा गया कि इस आंदोलन को पाकिस्तान से फंडिंग हो रही है। 

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निशाने पर मुसलमान  

आंदोलन में शामिल किसानों के सोने-बैठने के लिए जब दिल्ली में सिंघू बार्डर के आसपास की मसजिदें खोल दी गईं तो उस पर भी सवाल उठाया गया कि इसमें मुसलमान क्यों शामिल हैं मानो मुसलमान इस देश के नागरिक नहीं हैं। चूंकि इस आंदोलन का वे समूह भी समर्थन कर रहे हैं, जिन्होंने एक साल पहले सीएए और एनआरसी के विरोध में आंदोलन किया था, इसलिए उनकी भागीदारी पर भी सवाल उठाया जा रहा है कि उनका किसानों से क्या लेना देना

इस सारे दुष्प्रचार को बेअसर होता देख अब कहा जा रहा है कि इस आंदोलन पर माओवादियों ने कब्जा कर लिया है। 

किसान आंदोलन को बदनाम करने में मीडिया का भी एक बड़ा हिस्सा सरकार की मदद में जुटा हुआ है। टीवी चैनलों और अखबारों में आंदोलन के खिलाफ और सरकार के समर्थन में फर्जी खबरें चलाई जा रही हैं।

कुल मिलाकर सरकार की ओर से इस आंदोलन को बदनाम करने की कोशिशें उसी तरह की जा रही हैं, जिस तरह करीब साढ़े चार दशक पहले गुजरात में हुए छात्रों के नवनिर्माण आंदोलन के बाद बिहार तथा देश के अन्य राज्यों में लोकनायक जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में हुए आंदोलन को दबाने और बदनाम करने के लिए तत्कालीन सरकारों ने की थीं।

गुजरात का छात्र आंदोलन 

गुजरात और बिहार के उन छात्र आंदोलनों ने तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार की चूलें हिला दी थीं। वे आंदोलन भी आज के जैसे माहौल के चलते ही शुरू हुए थे। बात पूरे 46 वर्ष पुरानी है। यही दिसंबर का महीना था। 

गुजरात में मोरबी के एलडी इंजीनियरिग कॉलेज के छात्रों को जैसे ही पता चला कि हॉस्टल के मैस की फीस में 20 फीसद की बढ़ोतरी कर दी गई है, वे भड़क उठे। उन्होंने इस फीस बढ़ोतरी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। शुरुआती दौर में उनका विरोध कॉलेज कैंपस तक सीमित रहा लेकिन जब विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनके विरोध को सिरे से नजरअंदाज किया तो छात्र कैंपस से बाहर सड़कों पर आ गए। 

किसी एक मुद्दे को लेकर सरकार के खिलाफ किसी एक समूह के आंदोलन से कैसे दूसरे महत्वपूर्ण मुद्दे और समूह भी जुड़ते जाते हैं और वह आंदोलन कैसे व्यापक रूप ले लेता है, यह गुजरात के छात्र आंदोलन में देखा जा सकता है।

गुजरात के छात्रों का आंदोलन जब कॉलेज के कैंपस से बाहर निकल कर सड़कों पर आ गया तो महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त आम जनता भी उनके आंदोलन से जुड़ गई। देखते ही देखते वह आंदोलन पूरे गुजरात में फैल गया। इसलिए कहा जा सकता है कि गुजरात आंदोलन की तरह अगर मौजूदा किसान आंदोलन से भी आम लोगों के अन्य मुद्दे या अन्य आंदोलनकारी समूह जुड़ रहे हैं और आंदोलन व्यापक हो रहा है तो इसमें कुछ भी नया और आपत्तिजनक नहीं है। 

बिहार से गुजरात आए जेपी

गुजरात के उस छात्र आंदोलन को भी मोरारजी देसाई की कांग्रेस (संगठन), सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय लोकदल और जनसंघ (आज की बीजेपी) जैसी विपक्षी पार्टियों और अन्य नागरिक समूहों का समर्थन मिल गया था, जिससे उसने व्यापक रूप ले लिया था। छात्रों के आग्रह पर आंदोलन का समर्थन करने के लिए जेपी भी बिहार से गुजरात आ गए थे। विपक्ष के ज्यादातर विधायकों ने गुजरात विधानसभा से इस्तीफ़े दे दिए थे। राज्य के तमाम मजदूर संगठन भी आंदोलन में शामिल हो गए थे। पूरे प्रदेश भर में जगह-जगह राज्य सरकार के खिलाफ प्रदर्शन होने लगे थे। 

इंदिरा गांधी को झुकना पड़ा 

चिमनभाई पटेल राज्य के मुख्यमंत्री थे। उनकी सरकार पर और खुद उन पर भी भ्रष्टाचार के कई आरोप थे। आंदोलन की लपटें दिल्ली तक पहुंच गईं। संसद का घेराव किया गया। प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल भेजा गया। कुल 73 दिन तक चले आंदोलन का बलपूर्वक दमन भी हुआ। लेकिन आखिरकार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को झुकना पड़ा। 

चिमनभाई पटेल की सरकार को बर्खास्त कर गुजरात विधानसभा निलंबित कर दी गई। राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। बाद में विधानसभा के चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस की बुरी तरह हार हुई।

बिहार में भी छात्र आंदोलन

अभी गुजरात आंदोलन की आग ठंडी भी नहीं पड़ी थी कि बिहार में तत्कालीन अब्दुल गफूर सरकार के भ्रष्टाचार और हॉस्टल की फीस बढ़ाने के विरोध में छात्रों का आंदोलन शुरू हो गया। पटना से शुरू हुआ आंदोलन देखते-देखते ही पूरे बिहार में फैल गया। छात्रों ने जेपी से आंदोलन की अगुवाई करने का अनुरोध किया। 

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जेपी इस आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए इस शर्त पर तैयार हुए थे कि आंदोलन के दौरान छात्र किसी भी तरह की हिंसक कार्रवाई नहीं करेंगे। जैसे कि इस किसान आंदोलन के नेताओं ने भी शुरू में ही कह दिया है कि पुलिस हम पर पानी की बौछार डाले या लाठी-गोली चलाए, हमारी ओर से कोई हिंसक प्रतिक्रिया नहीं की जाएगी। 

'हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा’, 'लाठी गोली सेंट्रल जेल, जालिमों का अंतिम खेल’, 'दम है कितना दमन में तेरे, देखा है और देखेंगे-कितनी ऊंची जेल तुम्हारी, देखी है और देखेंगे’....ये उस आंदोलन के मुख्य नारे थे। जेपी के इसका नेतृत्व संभालते ही आंदोलन बिहार के बाहर देश के दूसरे हिस्सों में भी शुरू हो गया था। 

सुनिए, किसान आंदोलन पर चर्चा- 

एक जैसा पैटर्न

जिस तरह आज मोदी सरकार के मंत्री और बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्री किसान आंदोलन को खालिस्तान, पाकिस्तान और माओवादियों से जोड़ कर उसे देश विरोधी बता रहे हैं, जिस तरह आंदोलन का समर्थन कर रहे विपक्षी दलों को देशद्रोही करार दिया जा रहा है, इसी तरह उस समय इंदिरा गांधी और उनकी सरकार के मंत्री भी उस आंदोलन को देश विरोधी साजिश और जेपी समेत तमाम विपक्षी नेताओं पर सीआईए के हाथों में खेलने का आरोप लगाया करते थे। 

मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो कई मौकों पर विपक्षी दलों और नेताओं को देशद्रोही करार दे चुके हैं। याद कीजिए, तीन साल पहले गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस के कुछ अन्य नेताओं पर यह आरोप भी लगा दिया था कि वे पाकिस्तानी नेताओं के साथ बैठक करके बीजेपी को हराने की साजिश रच रहे हैं।

खैर, जेपी के नेतृत्व में उस आंदोलन से निपटने के लिए ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को आपातकाल का सहारा लेना पड़ा। आपातकाल के पूरे 21 महीने बाद उस आंदोलन की परिणति इंदिरा गांधी और कांग्रेस की हुकूमत के पतन के रूप में हुई थी।

इंदिरा का आपातकाल

आपातकाल कोई आकस्मिक परिघटना नहीं थी, बल्कि सत्ता के अतिकेंद्रीयकरण, निरंकुशता, व्यक्ति-पूजा और चाटुकारिता की निरंतर बढ़ती गई प्रवृत्ति का ही परिणाम थी। आज फिर वैसा ही नजारा दिख रहा है। संसद, चुनाव आयोग और बहुत हद तक न्यायपालिका जैसी संस्थाएं भी सरकार को ही अपना सरपरस्त मान बैठी हैं। केंद्रीय मंत्रिपरिषद और संसद की समितियों का कोई मतलब नहीं रह गया है। सारे फैसले सिर्फ एक व्यक्ति यानी प्रधानमंत्री के स्तर पर हो रहे हैं। चूंकि विपक्ष को देशद्रोही करार दिया चुका है, लिहाजा उससे सलाह-मशविरा करने का तो सवाल ही नहीं उठता। 

आपातकाल को जनता के मौलिक अधिकारों, मीडिया की आजादी के अपहरण, विपक्षी दलों के क्रूरतापूर्वक दमन के साथ ही संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका समेत तमाम संवैधानिक संस्थाओं के मानमर्दन के लिए ही नहीं, बल्कि घनघोर व्यक्ति-पूजा और चापलूसी के लिए भी याद किया जाता है। सवाल है कि क्या आपातकाल को दोहराने का खतरा अभी भी बना हुआ है 

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आडवाणी को आपातकाल का अंदेशा

जून, 2015 में आपातकाल के चार दशक पूरे होने के मौक़े पर उस पूरे कालखंड को शिद्दत से याद करते हुए बीजेपी के वरिष्ठ नेता और देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने देश में फिर से आपातकाल जैसे हालात पैदा होने का अंदेशा जताया था। उन्होंने एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में देश को आगाह किया था कि लोकतंत्र को कुचलने में सक्षम ताकतें आज पहले से भी ज्यादा ताकतवर हैं, इसलिए पूरे विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता कि आपातकाल जैसी घटना फिर से नहीं दोहराई जा सकती। आडवाणी का यह बयान यद्यपि पांच वर्ष पुराना है लेकिन इसकी प्रासंगिकता तब से कहीं ज्यादा अब महसूस हो रही है। 

बांटने वाले फैसले

पहले सीएए-एनआरसी जैसे सरकार के असंवैधानिक और विभाजनकारी फैसले और अब किसानों और खेती को चंद कॉरपोरेट घरानों का बंधक बना देने वाले नए कानून...साथ ही तमाम सरकारी सेवाओं और कंपनियों को धड़ल्ले से निजी हाथों में सौंपने का सिलसिला! यह समूचा परिदृश्य और सरकार के इरादे साफ तौर पर बता रहे हैं कि  देश एक बड़े संकट की ओर बढ़ रहा है। 

आश्वस्तकारी बात यही है कि सरकार के मंसूबों का प्रतिकार करने के लिए किसान पूरी तरह प्रतिबद्ध नजर आ रहे हैं और अन्य नागरिक समूह भी उनके आंदोलन से जुड़ते जा रहे हैं।

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