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एग्जिट पोल्स की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान! 

एग्जिट पोल्स की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान! 

महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव में एक के अलावा बाक़ी सारे एग्ज़िट पोल्स ने जो नतीजे दिखाए उन्होंने किसी भी तरह के “एरर ऑफ़ मार्जिन” के सिद्धांत को भंग कर दिया है। 

महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव के बाद एग्जिट पोल्स एक बार फिर चर्चा में आ गए हैं। इसके पीछे वजह यह है कि एक के अलावा बाक़ी सारे एग्ज़िट पोल्स ने जो नतीजे दिखाए उन्होंने किसी भी तरह के “एरर ऑफ़ मार्जिन” के सिद्धांत यानी आंकलन में ग़लती की सीमा रेखा को पूरी तरह से भंग कर दिया है। 

एग्ज़िट पोल्स चुनाव के दौरान मतदाताओं के विचार पढ़ने का एक लोकतांत्रिक उपक्रम है। सबसे पहले नीदरलैंड में और अमेरिका में क़रीब 1940 के आस-पास मतदान के बाद और ग़िनती के पहले ही नतीजों का संकेत देने वाल यह उपक्रम प्रचलित हुआ। इस तरह के प्रयास धीरे-धीरे एक स्वनियंत्रित आज़ाद संस्था का रूप धर ले गए और दुनिया की हर लोकतांत्रिक व्यवस्था में जहाँ चुनाव होते हैं इनकी उपयोगिता सामने आने लगी। बाद में तमाम जगह इन पर नियंत्रण भी हुए क्योंकि कई बार यह देखने में आया कि ये चुनाव प्रक्रिया के एक हिस्से को प्रभावित करने लगे थे।

24 अक्टूबर को जो नतीजे आये वे किसी भी “एरर ऑफ़ मार्जिन” की रेंज में किसी न्यूज़ चैनल पर किसी सर्वे एजेंसी के आँकड़ों की जद में नहीं आते (सिर्फ़ एक एक्सिस माई इंडिया नाम की एजेंसी को छोड़कर जिसने आजतक/इंडिया टुडे के लिए सर्वेक्षण किया)! हरियाणा में टाइम्स नाऊ, न्यूज़ एक्स, एबीपी न्यूज़, न्यूज़ 18 में से सभी ने बीजेपी को 70 से ज़्यादा सीटें दीं जबकि मिलीं कुल चालीस!

महाराष्ट्र में इन्हीं एजेंसियों ने बीजेपी+ को 214-243 तक सीटें दीं जबकि आईं 161! एक्सिस माई इंडिया ने महाराष्ट्र में भी 166-194 सीटों का आंकलन दिया था जिसे स्वीकार किया जा सकता है पर बाक़ी ने क्या किया 

भारत में चुनाव से जुड़ी हर ऐसी प्रक्रिया आजकल संदेह के घेरे में है जिससे किसी न किसी तरीक़े से मतदाता के मन को प्रभावित किये जाने की संभावना है। और तो और ख़ुद चुनाव आयोग इस समय लोगों में उतना विश्वास नहीं जगा पाता जितना कि उस से उम्मीद की जाती है तो ऐसे उपक्रमों का जिन पर सीधे-सीधे किसी क़ानूनी प्रक्रिया का नियंत्रण नहीं है और जिनकी जनता को उतनी जवाबदेही नहीं है, जितनी संवैधानिक संस्थाओं की है, तो उनके द्वारा लोगों को प्रभावित किया जाना या लोगों को ग़लत सूचना देकर गुमराह करना तुलनात्मक रूप में आसान है।

ताज़ा विधानसभा चुनाव में हरियाणा में एक को छोड़कर सभी एग्ज़िट पोल्स ने कांग्रेस को पूरी तरह निपटा दिया था। एबीपी न्यूज़-सी वोटर ने तो ओपिनियन पोल में कांग्रेस को कुल तीन सीटें दी थीं जबकि कांग्रेस को 31 सीटें मिलीं हैं। तो इस तरह के सर्वेक्षण में “मार्जिन ऑफ़ एरर” की जो अवधारणा है उसका क्या हुआ हमारे देश में जो नतीजे ये लोग पेश करते हैं, उसने इस अवधारणा की धज्जियाँ उड़ा दी हैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि आप का आंकलन 3 सीट दे रहा हो और उसको सीट मिले कम से कम दस गुने से ज़्यादा तो यह तो नज़र आता है कि यह सामान्य बात नहीं है, इसमें कुछ असामान्य हुआ है।

काफ़ी समय से हम यह देख रहे हैं कि मीडिया, सोशल मीडिया, ओपिनियन और एग्ज़िट पोल्स, इन सब में एक दल के पक्ष में एक ख़ास भाव देखा जा रहा है! जो संयोग से 2014 के बाद से सत्ता में भी है और एक नेता के बारे में भी ऐसा ही भाव है और वह भी इस समय शिखर पर है।

2014 के आम चुनाव के वक़्त एग्जिट पोल्स को लेकर बड़ा विवाद हुआ था और चुनाव आयोग ने विभिन्न चरणों के चुनावों के बीच ऐसे पोल्स के नतीजे बताने पर प्रतिबंध लगा दिया था। यानी जब सारे चरणों के चुनाव संपन्न हो जाएंगे तब वे सर्वे के नतीजों का प्रसारण कर सकते हैं।

देखा यह गया है कि भारत की तुलना में विदेशों में पोल्स ज़्यादा सही साबित हुए हैं। 2007 में ऑस्ट्रेलियन फे़डरल इलेक्शन के दौरान स्काई न्यूज़ व चैनल सेवन ने एग्ज़िट पोल के लिए ऑसपोल नामक एजेंसी को हायर किया था। एजेंसी ने कहा था कि 53%  मतदाता हैं जो लेबर पार्टी को वोट दे रहे हैं और जब नतीजे आए तो पाया गया कि लगभग इतने ही प्रतिशत मत लेबर पार्टी को मिले थे। 

2005 में ब्रिटेन के आम चुनाव में अलग प्रयोग हुआ। अपने-अपने आँकड़ों से पूरी तरह संतुष्ट न होने पर बीबीसी और आईटीवी ने अपने आँकड़ों को एक-दूसरे में मिलाकर बड़ा डाटा रूल बनाया और संयुक्त सर्वे जारी किया। इस सर्वेक्षण ने लेबर पार्टी को क़रीब 66 सीटों की बढ़त दी और मतगणना में भी यही नतीजा निकला।

पश्चिम से ही हुई हेराफेरी की शुरुआत

यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि एग्ज़िट पोल के ज़रिए हेराफेरी की शुरुआत भी पश्चिम में ही हुई। वर्ष 1980 में अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में रिपब्लिकन उम्मीदवार थे रोनाल्ड रेगन। एनबीटी चैनल ने उनकी जीत की संभावना बताई और इसने अमेरिका के पूर्वी समुद्री तट के इलाक़े में शाम 8:15 पर ही नतीजा जारी कर दिया। उस समय अमेरिका के पश्चिमी तट पर शाम के 5:15 बज रहे थे और मतदान चल रहा था। इसका नतीजा यह हुआ कि शाम को वोट देने की जगह बहुत सारे लोग घरों में ही रह गए। ऐसा ही सन 2000 में हुआ। फ़्लोरिडा में एग्ज़िट पोल के नतीजों का प्रसारण कर दिया गया जबकि पैनहेंडल वग़ैरह में वोट पड़ रहे थे और नतीजा यही निकला कि वहाँ भी बहुत सारा वोटर टर्नआउट उससे प्रभावित हुआ। उस वक्त अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अल गोर राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रहे थे। उनको इस एग्जिट पोल से फ़ायदा हुआ कि उनके विरोधी इलाक़े में लोग कम मत डालने निकले।

अमेरिका में अब जो मीडिया संस्थान हैं उन्होंने अपने स्तर पर ऐसा फ़ैसला किया है कि जब तक अंतिम मतदान नहीं हो जाता, वे देश के किसी भी हिस्से में सर्वे प्रकाशित नहीं करेंगे। सिंगापुर अपने यहाँ किसी क़िस्म के पोल सर्वे की अनुमति नहीं देता है। ब्रिटेन और जर्मनी में भी इस बारे में कड़े क़ानून हैं जो चुनाव से पहले किसी भी तरह के पोल सर्वे की अनुमति नहीं देते हैं। 

भारत में भी यह फ़ैसला हो चुका है लेकिन यहाँ सवाल पहले चरण के मतदान के पहले किये गये और प्रसारित किये गये ओपिनियन पोल्स की विश्वसनीयता का है। साथ ही सवाल करने की वैज्ञानिकता का भी है। हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव में इन सर्वे के नतीजों पर यह पूछा जाना चाहिये कि क्या सर्वे करने वाली एजेंसियाँ सर्वेक्षण करने की तमीज़ भी रखती हैं या फिर ये किसी के दबाव में किये जाते हैं।  

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