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ग़ैर-कांग्रेसवाद के समाजवादी नायक थे जॉर्ज फ़र्नांडिस

ग़ैर-कांग्रेसवाद के समाजवादी नायक थे जॉर्ज फ़र्नांडिस

राजनीतिक साहस, संगठन-क्षमता में बेजोड़ होने के कारण जॉर्ज करिश्माई व्यक्तित्व के स्वामी थे। सामाजिक-आर्थिक न्याय के मोर्चों पर उनकी बहादुरी को देश नहीं भूलेगा।

जॉर्ज फ़र्नांडिस के निधन से ग़ैर-कांग्रेसवाद की राजनीति के अंतिम समाजवादी महानायक का भारतीय सार्वजनिक जीवन से प्रस्थान हुआ है। राजनीतिक साहस, संगठन-क्षमता और वक्तृता में बेजोड़ होने के कारण वह समाजवादियों में सर्वाधिक करिश्माई व्यक्तित्व के स्वामी थे। संगठित और असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत मज़दूरों के अनूठे संगठनकर्ता और 1964 से 2014 के बीच के 5 दशकों तक की उथल-पुथल वाली संसदीय राजनीति के बहुचर्चित शिखर पुरूष जॉर्ज फ़र्नांडिस की कई पहचान थीं।

जॉर्ज की विविधतापूर्ण राजनीतिक जीवन यात्रा में विजय-पराजय, यश-अपयश, प्रशंसा और निंदा की भरपूर बारंबारता रही। लेकिन स्वाधीन भारत के इस अनूठे राजनीतिज्ञ के लंबे और बहुचर्चित सार्वजनिक जीवन के मूल्यांकन में उनकी 5 भूमिकाओं को बार-बार याद किया जाएगा।

पहली भूमिका - साठ के दशक में कांग्रेस शासन के प्रति उपजे असंतोष के फलस्वरूप पहली बार ‘मुंबई बंद’ और फिर 1974 में पूरे देश में लंबी रेल हड़ताल का आयोजन। दूसरी, 1975-77 के आपातकाल में लोकतंत्र की रक्षा के लिए भूमिगत रहकर किए गए साहसिक कार्य जिसके लिए इंदिरा सरकार द्वारा उन्हें गिरफ़्तार करके बहुचर्चित मुक़दमा चलाया गया। तीसरी भूमिका में तिब्बत, बांग्लादेश, भूटान, नेपाल, श्रीलंका, दक्षिण अफ़्रीका और म्यांमार समेत दुनियाभर के लोकतांत्रिक आंदोलनों की प्रभावशाली सहायता।

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चौथी भूमिका में जनता पार्टी के उद्योग मंत्री के रूप में कोका-कोला और आई. बी. एम. को भारत से बाहर करना और वैश्विक पूंजीवाद के विरुद्ध किए जाने वाले प्रयासों से लगातार एकजुटता और पाँचवी यह कि राष्ट्रीय राजनीति में हरेक ग़ैर-कांग्रेसी मोर्चे के निर्माण और विसर्जन दोनों में निर्णायक हिस्सेदारी। 

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धर्म प्रचारक बनने भेजा था परिवार ने     

बहुत लोगों के लिए यह अजूबा सच होगा कि स्वाधीनोत्तर भारत के अत्यंत तेजस्वी समाजवादी नेता के रूप में जाने गए और 3 जून 1930 को मंगलोर में माता एलिस और पिता जान जोसफ़ फ़र्नांडिस की पहली संतान के रूप में जन्मे जॉर्ज तरुणावस्था में धर्म प्रचारक का प्रशिक्षण पाने के लिए बेंगलुरू की एक सेमिनरी में भेजे गए थे। 

2 साल में ही जॉर्ज का मन चर्च प्रशिक्षण के वातावरण में निहित विडम्बनाओं से उचट गया और तमाम मुश्किलों के बावजूद शोषणग्रस्त कारखाना मज़दूरों की समस्याओं के लिए मुंबई में संघर्षरत मज़दूर नेता डिमेलो के मार्गदर्शन में काम करना उनको ज़्यादा पसंद आया। 

मुंबई के मज़दूरों के संगठन कार्य से भारतीय समाजवादी आंदोलन में अपनी आकर्षक पहचान बनाने वाले जॉर्ज, डॉ. राममनोहर लोहिया और मधु लिमये के मार्गदर्शन में राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर उभरे।

पाटिल को दी थी शिकस्त

ग़ैर-कांग्रेसवाद की लहर में 1967 के आम चुनाव में कांग्रेस के कद्दावर नेता एस. के. पाटिल को दक्षिण मुंबई से पराजित करके देश की लोकसभा में पहुँचने से पहले ही मुंबई महानगर निगम के समाजवादी सदस्य के रूप में उनकी एक जुझारू और युवा जननायक की छवि बन चुकी थी। हिंद मजदूर किसान पंचायत, वर्ग-संगठनों के लिए उनके द्वारा संवर्धित संस्था थी जिसने उन्हें देशभर के समाजवादियों का नायक बनाने में बुनियाद का काम किया। इसीलिए 1969 में वह संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के महामंत्री और 1973 में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने।

1974 में अखिल भारतीय रेलवे मज़दूर फ़ेडेरशन के अध्यक्ष बनने वाले जॉर्ज ने रेलवे कर्मचारियों को भारतीय मज़दूर आंदोलन का सर्वाधिक जुझारू चेहरा बनाया।

अहम पदों पर रहे जॉर्ज 

हिंदी और अंग्रेजी के साथ ही कोंकणी, कन्नड़, मराठी, तुलु, तमिल और लैटिन जैसी आठ भाषाओं के जानकार जॉर्ज 9 बार लोकसभा और 1 बार राज्यसभा के सदस्य चुने गए थे। 1977 और 2004 के बीच की ग़ैर-कांग्रेसी सरकारों में जॉर्ज ने भारत सरकार में उद्योग मंत्री, रेल मंत्री, संचार मंत्री, और रक्षा मंत्री की जिम्मेदारियाँ भी संभालीं।

 - Satya Hindi

वाजपेयी और आडवाणी के साथ जॉर्ज

इस दौरान उनके समाजवादी दायरे के बाहर के कई राष्ट्रीय नेताओं विशेषकर मोरारजी देसाई, चरण सिंह, जगजीवन राम, देवीलाल, ज्योति बसु, रामाराव, फ़ारूक अब्दुल्ला, चन्द्र शेखर, विश्वनाथ प्रताप सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवानी से नज़दीकी रिश्ते भी बने। अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री चुनने वाले एनडीए के तो वह संयोजक भी थे।

सक्रिय संवाद का था रिश्ता 

वस्तुत: अपने घुमावदार राजनीतिक जीवन में जॉर्ज ने वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ की नेहरूकालीन गोलबंदी के बजाय कांग्रेस बनाम ग़ैर-कांग्रेस की लोहिया निर्मित घेरेबंदी में अपनी ऊर्जा लगाई। इसीलिए वह राष्ट्रीय सरोकार के मुद्दों को लेकर हर तरह की ग़ैर-कांग्रेसी वैचारिक और आंदोलनकारी कोशिशों को आजीवन प्रोत्साहित करते रहे। उनकी इस प्रवृत्ति के कारण सबसे उनका सक्रिय संवाद का रिश्ता था। इसमें उनके द्वारा प्रकशित ‘प्रतिपक्ष’ और ‘अदर साइड’ (अंग्रेज़ी) का भी कम योगदान नहीं था। लेकिन उनके वैचारिक खुलेपन का कभी-कभी आत्मघातक परिणाम भी निकला।

विवादों से नहीं निकल सके 

मोरारजी देसाई सरकार के बारे में उनके अंतर्विरोधी भाषण, वाजपेयी सरकार के मंत्री के रूप में गुजरात नरसंहार का विश्लेषण, मंडलवादी राजनीति के नायकों से उनकी निकटता और फिर दूरी, और अपने ही बनाये संगठनों से उनका निष्कासन जैसे तथ्यों ने उनकी राजनीतिक दिशा को लेकर एक धुंधलापन पैदा किया और अपने अंतिम बरसों की गंभीर अस्वस्थता ने उन्हें विवादों और अंतर्विरोधों से बाहर निकलने का अवसर ही नहीं दिया।

अकेलेपन में ख़त्म हुई राजनीतिक यात्रा

उनकी कथनी और करनी में अक्सर जोख़िम की राजनीति की संभावना दिखती थी। लेकिन उनकी समाजवादी बुनियाद पर 1980 के बाद के काल में ज़्यादातर संसदवादी मज़बूरियों का दबाव बना रहा। इसलिए यह दु:खद है कि संसदीय राजनीति में सफलता के शिखर तक कई बार पहुँचने के बावजूद अपार लोकप्रियता से शुरू उनकी राष्ट्रीय राजनीतिक यात्रा का समापन नितांत अकेलेपन में हुआ। फिर भी भारतीय लोकतंत्र और सामाजिक-आर्थिक न्याय के मोर्चों पर उनकी बहादुरी को देश नहीं भूलेगा। 

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