आपातकाल : बड़े धोखे हैं इस राह में
21-22 मार्च 1977 की मध्य रात्रि थी जब हमने आकाशवाणी पर उस समय के मशहूर समाचार वाचक अशोक वाजपेयी की तैरती आवाज़ में पहली बार सुना कि प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी रायबरेली से चुनाव हार गयी हैं। उनके प्रतिद्वंद्वी राजनारायण ने उन्हें 55 हज़ार वोटों से पराजित कर दिया था। इस संक्षिप्त सी खबर में सिर्फ़ यही 2 लाइन थीं।
मैं अपने सहपाठी अनूप के आगरा स्थित जयपुर हाउस कॉलोनी के फ़्लैट में उसके साथ था। कोई दो या ढाई बजे का वक़्त रहा होगा जब रेडियो पर पहली बार उक्त घोषणा हुई। यह बड़े ही संकीर्ण और सीमित कम्युनिकेशन का युग था।
सिर्फ़ रेडियो ही आधा-आधा घंटे-घंटे पीछे खबर दे सकने वाला एक मात्र संसाधन था लेकिन उस पर भी सरकार का कंट्रोल था। उस घर में उस रात सिर्फ़ हम दो जन ही थे। हम सरे शाम किरोसिन के स्टोव पर चाय बनाते रेडियो की ख़बरों से चिपटे हुए थे।
इंदिरा गाँधी मुर्दाबाद के नारे
हमारे लिए आधी रात की यह ख़बर जैसे यक़ीन न किये जा सकने वाला ढिंढोरा था लेकिन चूंकि ढिंढोरची आकाशवाणी था लिहाज़ा इस पर भरोसा न करने का हमारे पास कोई रास्ता ही नहीं बचा था। हम ख़ुशी में चीखने लगे और फिर एक दूसरे से लिपट गए। लिपटे-लिपटे हम दोनों ‘इंदिरा गाँधी मुर्दाबाद!' का नारा लगाते कैसे घर के बाहर वाली सड़क पर आ गए, हमें कुछ पता नहीं।
सुनसान सड़क पर बड़ी तेज़ी के साथ शोर की फसल उगने लग गई थी। हमारी तरह और भी बहुत से दीवाने थे जो सड़कों पर उमड़ आये थे। मुझे नहीं मालूम कि कैसे और किसके कहने पर हम पहले एक भीड़ बने और कुछ ही क्षणों में भीड़ से जुलूस में तब्दील हो गए थे।
सुबह होने तक लगे नारे
क्या पता इस जुलूस में पहला नारा किसने लगाया लेकिन 'जयपुर हाउस' की वह रात 'इंदिरा गाँधी हाय हाय' और ‘जेपी तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं' के नारों से पुत गयी थी। सुबह होने तक जयपुर हाउस की सड़कों को हमारा गगनभेदी जुलूस अपने नारों से गुंजाता रहा। इस जुलूस में वैसे तो बड़ी तादाद में युवा अगवाई कर रहे थे लेकिन अधेड़ और बुज़ुर्गों की तादाद भी कोई कम नहीं थी।
इतिहास गवाह है कि दुनिया में हर 'डिक्टेटर' के तहस-नहस हो जाने का एक दिन सुनिश्चित है। क़यामत के उस रोज़ बग़ावत की सड़कों पर वैसे भी लोग उमड़ पड़ते हैं, कल तक जो अपने छोटे-छोटे घरों-दड़बों में डरे-सहमे से बैठे थे।
मुर्दाबाद और ज़िंदाबाद से आसमान के गूँज पड़ने की यह कहानी बीते हुए कल की भी थी, आने वाले कल की भी होगी।
इतिहास इस बात का भी गवाह है कि हर तानाशाह अपनी चढ़ान के वक़्त कभी यह सोचने और मानने को तैयार नहीं होता कि वह जो कर रहा/रही है, उसमें उसके अंत के अतिरिक्त और कुछ भी सन्निहित नहीं हो सकता। इतिहास यह भी कि अधिनायक के कैरियर का ग्राफ जब गिरावट की और मुड़ता है तो उसे तत्काल इल्हाम हो जाता है कि वह अब धूल धूसरित हो जाने के कगार पर है।
सोवियत संघ की लाल फौज़ों ने बर्लिन का घेरा डाला उससे एक सप्ताह पहले ही एडोल्फ़ हिटलर ने अपने जीवन भर की मंगेतर ईवा ब्राउन के कन्धों पर अपना हाथ रख कहा था- “मेरे साथ अगर तुम्हें भी मरना पड़ा तो बुरा तो नहीं मानोगी प्रियो?” ईवा ने आँखों में आंसू भरकर जवाब दिया- “तुमसे पहले मृत्यु का वरण करने में मुझे ज़्यादा संतोष होगा।” हिटलर ने अपनी प्रेमिका की आख़िरी चाह को पूरा किया।
वास्तव में इंदिरा गाँधी के अवसान के बाद उनके निजी सचिव पी एन धर और सूचना सलाहकार एच वाई शारदा प्रसाद का दिया गया यह बयान सच नही है कि गाँधी ने उन्हें नवम्बर 1976 में ही बता दिया था - “मैं आपातकाल हटाने और चुनाव कराने जा रही हूँ। मैं जानती हूँ कि मैं हार जाऊंगी लेकिन मैं ऐसा करने को कटिबद्ध हूँ।"
चुनाव कराने का एलान
सच्चाई यह है कि 18 जनवरी को जब इंदिरा गाँधी ने देश के नाम आकाशवाणी के अपने सम्बोधन में चुनाव करवाने की घोषणा की तब उनके निकट के किसी भी व्यक्ति को इसका रत्ती भर अंदाज़ा नहीं था। न सरकार में किसी को, न पार्टी में किसी को। और तो और सत्ता के वास्तविक संचालक और उनके पुत्र संजय गाँधी को भी इसकी सूचना उनके लाइव संबोधन से ही मिल सकी थी और बाद में इसे लेकर अपनी मां के साथ उन की बड़ी माथा-फोड़ी हुई थी।
मैकिनटोश फ़ूट का पत्र
तत्कालीन सूचना सलाहकार एच वाई शारदा के टेक्नोक्रेट पुत्र रविविश्वेश्रैया शारदा प्रसाद ने अपने एक आलेख में अपने पिता को जनवरी 1977 में भेजे माइकिल मैकिनटोश फ़ूट के एक पत्र का उल्लेख किया है जिसमें फ़ूट ने लिखा था "यद्यपि मेरी अक्टूबर 1976 की भारत यात्रा के दौरान की गयी लम्बी बातचीत में इंदिरा गाँधी ने आपातकाल को हटाने का मुझे कोई संकेत नहीं दिया है तब भी मेरा मानना है कि वह जल्द ही चुनाव करवाएंगी जबकि उन्हें अपनी हार का पूरा-पूरा अंदाज़ा है।
फूट यूके के 'हॉउस ऑफ़ कॉमन्स’ के नेता थे। इंदिरा गाँधी से उनके अति निकटता के रिश्ते थे और वह स्वयं को गाँधी का बड़ा भाई कहते थे। वह इंग्लैंड के राजनीतिक-आर्थिक जगत में इंदिरा गाँधी के पक्ष में लॉबी करने वाले के रूप में प्रख्यात थे। वह दुनिया के उन चंद लोगों में शुमार थे जो इंदिरा गाँधी के सामने बैठकर खुले दिल से उनकी आलोचना कर दिया करते थे और वह उनकी बातों को गंभीरता से सुन लेती थीं।
संजय गांधी की आलोचना
फ़ूट के उक्त पत्र के अनुसार उन्होंने इंदिरा गांधी से राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को जेल से रिहा करने, प्रेस सेंसरशिप हटाने और नसबंदी के लिए किये गए संजय गांधी के अनेक फैसलों की कठोर आलोचना की। उन्होंने उनके पिता जवाहरलाल नेहरू के अनेक आदर्शों का भी हवाला दिया। वह उनकी बातों को धैर्य के साथ सुनती रहीं।
मैककिनटोश फ़ूट ने अपने इसी पत्र में यूके के तत्कालीन विदेश मंत्री कार क्रॉसलेंड के कथन का हवाला भी दिया है। वह लिखते हैं "..... क्रॉसलेंड मुझसे कहते हैं कि भारत में कभी लोकतान्त्रिक चुनाव नहीं होंगे जबकि मेरा मानना है कि वह हर हाल में ऐसा करेंगी बेशक उसमें उनकी हार ही क्यों न छिपी हो।"
दबाव में थीं इंदिरा
इंदिरा गाँधी पर अमेरिका और इंग्लैंड की ओर से भारत की आर्थिक दशा में सुधार के लिए दिए जाने वाले क़र्ज़ की प्रारंभिक शर्त के रूप में चुनाव करवाने का ज़बरदस्त दबाव था। इस दबाव में जब उन्होंने ‘इंटेलिजेंस ब्यूरो' को देश भर में सैंपल इकठ्ठा करके मतदाता के रुझान जानने का निर्देश दिया तो 'आईबी' ने उन्हें अपने इनपुट के बतौर 330 सीटें जीतने का आश्वासन दिया।
ऐसा माना जाता है कि इंदिरा गाँधी शुरू में जीत के प्रति ‘टूबी और नॉट टूबी' की मनःस्थिति में थीं लेकिन बाबू जगजीवन राम और हेमवती नंदन बहुगुणा के कांग्रेस छोड़ने के फैसले के साथ ही उन्हें अपनी नैया के डूब जाने का पूरा-पूरा अहसास हो गया। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
बहुगुणा के छिटक जाने से उन्हें यूपी में अपनी तबाही का अंदाज़ा हो गया था। वह बहुगुणा को 'ताड़ू' के रूप में देखती थी और कहती थीं कि "वह वहां जायेगा जहाँ विजय लिखी हो।" सच्चाई यह है कि वह स्वयं सबसे बड़ी राजनीतिक ताड़ू थीं। यूपी का संदर्भ यहाँ जानबूझकर कर लिया गया है क्योंकि अधिनायकवाद के वर्तमान और भविष्य के उठान और पतन के तार भी यूपी से ही जुड़े हैं।
अमेरिका ने सितंबर 1976 में चुनाव करवाने के अपने दबाव को और भी सघन कर दिया था। व्हाइट हाउस, अमेरिकी गृह मंत्रालय और विदेश मंत्रालय चारों तरफ़ से उन पर चुनाव करवाने के दबाव पड़ने शुरू हो गए थे। घबराहट में उन्होंने अपने तमाम सहृदयी केंद्रों को टटोला लेकिन हर जगह उन्हें 'निराशा' ही मिली।
उनकी सखी और सांस्कृतिक विदुषी पुपुल जयकर ऐसे ही एक केंद्र का ज़िक्र करती हैं।
कृष्णमूर्ति जिम्मेदार?
चुनाव के ‘गर्त’ में धकेलने के लिए वह इंदिरा गाँधी के गुरु और दार्शनिक जिद्दू कृष्णमूर्ति को ज़िम्मेदार ठहराती हैं। कृष्णामूर्ति के साथ 28 अक्टूबर 1976 की हुई एक बैठकी का हवाला देते हुए वह लिखती हैं, “इस मीटिंग में इंदिरा जी ने जिद्दू से कहा- मैं चीते की सवारी कर रही हूँ। चीता मुझे मार डालेगा, इस बात की मुझे चिंता नहीं, मुझे इसकी पीठ से उतरना नहीं आता, मेरी फ़िक्र इस बात में है। जवाब में जिद्दू ने कहा- अगर तुम गहराई के साथ अपनी समस्या पर मनन करोगी तो तुम्हें ख़ुद इसका हल मिल जाएगा।"
पुपुल जयकर का मानना है कि कृष्णामूर्ति के साथ हुए विमर्श के बाद से ही उनके मन में एमरजेंसी हटाने और चुनाव करवाने की अवधारणा ने जन्म ले लिया।
पुपुल जयकर की शिक़ायत या कृष्णमूर्ति की 'सलाह' को पूरी तरह ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। पूरी सच्चाई कहीं और छिपी थी। आज़ादी के बाद के सालों की यह सबसे बड़ी वित्तीय गिरावट थी जिसका कोई निदान इंदिरा सरकार के पास नहीं था और विदेशी कर्ज़ों पर निर्भर होने के अलावा उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं था।
विदेशी दबाव के अतिरिक्त दूसरी सच्चाई यह है कि आपातकाल के दौरान न सिर्फ़ औद्योगिक उत्पादन में ज़बरदस्त गिरावट आयी बल्कि देश का आर्थिक ढांचा भी चरमरा कर ढहने लगा।
श्रमिक असंतोष
लोकतान्त्रिक अधिकारों के छिन जाने की प्रक्रिया में श्रमिक असंतोष में भी भीतर ही भीतर उबाल आने लग गया जिसने उद्योग धंधों में खरीददारी का संकट खड़ा कर दिया। बेशक रेलगाड़ियों के समय से संचालित किये जाने के 'अनुशासन पर्व' के सरकार की आत्म प्रशंसा के नारे को थोड़ी-बहुत वाहवाही मिली हो लेकिन नसबंदी और परिवार नियोजन के मामलों में होने वाली क्रूर और हिंसक सरकारी ज़्यादत्तियों ने शहरी और ग्रामीण ढांचे को चकनाचूर करके रख दिया।
उनके साथ कितनी ही निकटता और विश्वसनीय होने का का दावा करें लेकिन न तो पीएन धर के पास और न ही एच वाई शारदा प्रसाद के पास इस बात का जवाब है कि क्यों श्रीमती गाँधी आपातकाल हटाने और लोक सभा चुनाव करने को मजबूर हुईं? उनके पास अमेरिकी दबाव की जानकारी नहीं रही होगी, ऐसा मानना नामुमकिन है।
तब क्या वे भारतीय राजनीति में आज़ादी के बाद से छाए अमेरिकी आर्थिक-राजनीतिक आभामंडल को नज़रअंदाज़ करना चाहते थे? 3 फ़रवरी 1977 को अपने अमेरिकी सेनेटर मित्र चार्ल्स परसी से इंदिरा गाँधी ने कहा, “मैं बुरी तरह चुनाव हारने जा रही हूं और मुझे चिंता सिर्फ़ अपने बेटे संजय गाँधी की है।"
भारतीय लोकतंत्र का अपनी जड़ों में कमज़ोर होना और किसी भी सत्ताधीश का इन जड़ों में पानी न डालकर इन्हें सुखा डालना इतना आसान क्यों है? क्या वजह है कि जब-जब सत्ता के केंद्र पर सवार सत्ताधिपति ने अधिनायक बनना चाहा उसे न तो न्यायपालिका ने थामने की कोशिश की और न मीडिया उसके ख़िलाफ़ अपने हथियार लेकर खड़ा हो सका।
अधिनायकत्व के तत्वों से भरपूर पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रैम्प की लगाम कसने का काम अभी हाल ही में इन दोनों एजेंसियों ने सफलतापूर्वक किया है। तब क्या मूल कमजोरी लोक मानस की है?
21-22 मार्च 1977 की रात आगरा के जयपुर हाउस में निकले इस स्वत जुलूस में शामिल अधेड़ और बुज़ुर्ग तो अब नहीं रहे। जो युवा थे वे अवश्य अब बुज़ुर्गों में शुमार हो गए हैं। कभी-कभार उनमें कुछ नज़र भी आ जाते हैं। लोकतंत्र के विनाश को रोकने के लिए तब उनमें जैसी बेचैनी थी, अब क्यों नहीं दिखती?
पूछने पर क्यों नहीं जवाब देते कि क्यों उन्होंने लोकतंत्र का रक्षक बनने के लिए अपनी संतानों को प्रेरित नहीं किया? क्यों जातीय और धार्मिक हिंसा को वे अब लोकतांत्रिक हिंसा के रूप में नहीं देखते? क्यों वे इस हिंसा के विरोध में नहीं आ खड़े होते? क्यों वे अपनी संतानों से इस हिंसा में शामिल न होने की सख़्त अपील करते हैं?
समस्याओं को नज़रअंदाज करना
क्यों वे यह नहीं सोचते कि औद्योगिक उत्पादन में ज़बरदस्त गिरावट आती जा रही है और देश का आर्थिक ढांचा भी चरमरा रहा है। क्यों बेरोज़गारी हर साल दोगुनी और तिगुनी होती जा रही है और कहीं कोई सुनवाई ही नहीं रोज़गार के झूठे आंकड़े पेलने के सिवाय? क्यों महामारी लाइलाज क्रूर और हिंसक बनकर घर-घर में व्याप्त हो गयी है?
अस्पतालों में क्यों न बेड हैं न ऑक्सीजन? क्यों पवित्र नदियां लाशों से अट गयी हैं? श्मशानों और क़ब्रिस्तान में मृतकों के अंतिम संस्कार के लिए जगह क्यों नहीं मिल पा रही है?
क्यों पूरे देश के सार्वजनिक संसाधनों को निजी हाथों में बेचा जा रहा है? क्यों लोकतान्त्रिक अधिकारों के छिनते चले जाने की प्रक्रिया जारी है।
श्रमिक असंतोष भीतर ही भीतर उबल रहा है? क्यों जिसने उद्योग धंधों में खरीददारी का संकट बढ़ता जा रहा है और इसकी सुनवाई कहीं नहीं हो रही? क्यों कानों में तेल डाले बैठी नौकरशाही की क्रूर और हिंसक ज़्यादत्तियां शहरी और ग्रामीण ढांचे को चकनाचूर करके रख दे रही है?
क्या इसी दिन को देखने के लिए उन्होंने कभी 'आपातकाल' की मुर्दाबाद वाला ज़ोरदार नारा लगाया था? इस बार भी आपातकाल के धोखे हैं। उसकी राह में पिछली बार से ज़्यादा धोखे हैं।
अगर ऐसा ही है तो क्यों आज के समय में कोई 21 या 22 मार्च नहीं खोज लेते?
(कल के अंक में जारी...)