लोकसभा चुनाव के मध्य केंद्र की मौजूदा सरकार के एक महत्वपूर्ण हुक़्मरान अमिताभ कांत ने भारत में मतदान को क़ानूनी रूप से अनिवार्य करने की ज़रूरत पर बहस छेड़ने की कोशिश की है। अमिताभ कांत नीति आयोग के सीईओ हैं और प्रधानमंत्री मोदी के अति-निकटस्थ माने जाते हैं। उन्होंने तीन दिन पहले अनिवार्य वोटिंग के सवाल को सोशल मीडिया पर बड़ी शिद्दत से उठाया। ज़ाहिर है, एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी सरकार की इच्छा के विरुद्ध या उसके शीर्ष लोगों की सहमति के बगैर इस तरह के राजनीतिक-संवैधानिक सवाल पर बहस चलाने की कोशिश नहीं करेगा। अमिताभ कांत की टिप्पणी पर भारत के पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एस. वाई. क़ुरैशी ने जवाबी टिप्पणी की और उनकी राय को ग़ैरवाज़िब बताया। मज़े की बात है कि पिछले लोकसभा चुनाव के कुछ महीने पहले सन् 2013 में भी अनिवार्य मतदान की व्यवस्था की कुछ प्रमुख लोगों द्वारा माँग की गई थी। इनमें बीजेपी के बुजुर्ग नेता और अब मार्गदर्शक मंडल के सदस्य लालकृष्ण आडवाणी और गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और आज देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल थे। उन दिनों आडवाणी और मोदी का रिश्ता गुरु-शिष्य का था। मोदी के प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनने के बाद सन् 2013 के आख़िरी महीनों में दोनों के रिश्ते असहज हो गये। तब से दोनों के बीच ख़ास संवाद नहीं होता! पर अनिवार्य मतदान के मुद्दे पर दोनों की राय एक है।
कुछ साल पहले संघ और बीजेपी से जुड़े कुछ नेताओं ने भारत में संसदीय प्रणाली की जगह राष्ट्रपति प्रणाली लागू करने की ज़रूरत पर बहस चलाने की कोशिश की थी। कुछ दशक पहले कांग्रेस के वसंत साठे ने भी इसे बहस-तलब बताते हुए देश में चर्चा कराने का आह्वान किया था। हालाँकि उनकी पार्टी ने बाद में उक्त मुद्दे को बेमतलब और साठे की व्यक्तिगत राय बताते हुए बहस से पल्ला झाड़ लिया।
संघ और बीजेपी से जुड़े लोग अपनी शाखाओं और अन्य ‘बौद्धिक मिलन कार्यक्रमों’ में इस बात की भी चर्चा चलाते रहे हैं कि मताधिकार के लिए न्यूनतम योग्यता तय होनी चाहिए। मसलन, शिक्षित लोगों को ही मताधिकार होना चाहिए, अशिक्षित को नहीं!
लेकिन ऐसे किसी प्रस्ताव को ज़्यादा तवज्जो न मिलने के बाद उन्होंने बहस से परहेज किया। इसी तरह की एक और चर्चा छेड़ी गई कि पूरे देश में एक साथ चुनाव (लोकसभा और विधानसभाओं के) कराए जाएँ लेकिन व्यावहारिकता की समस्या का एहसास होते ही इस पर भी बात आगे नहीं बढ़ी।
अनिवार्य मतदान का ताज़ा शगूफ़ा
मोदी सरकार के मुखर हुक़्मरान अमिताभ कांत ने भारत में क़ानूनी तौर पर मतदान को अनिवार्य बनाने की दलील के पक्ष में ऑस्ट्रेलिया का उदाहरण दिया है। उन्होंने अपने आधिकारिक ट्विटर एकाउंट में यह भी कहा कि शहरी पढ़े-लिखे लोग कम मतदान करते हैं, जबकि सरकार की हमेशा आलोचना करने वाले लोग भी वही हैं। यानी जिन्होंने मतदान में भाग नहीं लिया उन्हें सरकार की आलोचना का अधिकार नहीं है। यह सिर्फ़ अमिताभ कांत की दलील नहीं है, मध्यम वर्ग के बहुतेरे आदर्शवादी लोग भी ऐसी दलीलें देते रहते हैं। पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एस. वाई. क़ुरैशी ने ट्विटर पर ही अमिताभ कांत की दलीलों को सिरे से खारिज किया। संवैधानिक स्थिति और सुप्रीम कोर्ट के नोटा विषयक फ़ैसले को उद्धृत करते हुए क़ुरैशी ने जो कुछ कहा, वह अमिताभ के बेवकूफ़ाना विमर्श को बहुत तार्किक ढंग से धाराशायी करता है।
संविधान ने भारतीय मतदाता को वोट का अधिकार दिया है, इसमें वोट न देने का अधिकार भी शामिल है। भारतीय संदर्भ में देखें तो वोट के अधिकार का इस्तेमाल न करने वालों पर किसी तरह की कार्रवाई का सबसे बुरा असर ग़रीब तबक़े, ख़ासतौर पर अपने शहर-गाँव या कस्बे से दूर काम करने वालों पर पड़ेगा।
अगर अमिताभ कांत जैसों की सलाह मानकर ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की तरह भारत में भी क़ानून बना दिया जाये और मताधिकार का प्रयोग न करने वालों पर आर्थिक जुर्माना थोपा जाये, भुगतान न करने वालों पर आपराधिक या सिविल मुक़दमा दायर किया जाये तो हमारे जैसे विशाल आबादी वाले देश की प्रशासनिक और न्याय-व्यवस्था के समक्ष नये तरह की चुनौती आ खड़ी होगी। ऐसे मामलों की पुलिसिया पड़ताल में काफ़ी वक़्त और कर्मचारी लगाने होंगे। इसके बाद बरसों-बरस तक वे मामले भारतीय न्यायालयों में चलते रहेंगे।
असल समस्या कुछ और है
हमारी निर्वाचन पद्धति, प्रक्रिया और सरकारों की ग़ैर-जवाबदेह कार्यप्रणाली की असल समस्या और उसके समाधान का सम्बन्ध अनिवार्य मताधिकार प्रयोग से नहीं है। इस बात की कोई गारंटी नहीं कि मतदान को अनिवार्य करने से लोकतंत्र की हमारी समस्याएँ हल हो जाएँगी। एक करोड़ मतादाताओं वाले ऑस्ट्रेलिया और 90 करोड़ मतदाताओं वाले भारत की सामाजिक-राजनीतिक संरचना, शासकीय व्यवस्था और जन सरोकारों के बीच भारी फ़र्क है।
ऑस्ट्रेलिया तो एक अच्छा उदाहरण हो सकता है पर उस उत्तर कोरिया का क्या कहेंगे, जहाँ मतदान करना अनिवार्य है पर बैलेट पेपर पर सिर्फ़ एक ही उम्मीदवार होता है! ऐसे और भी देश हैं, जहाँ मतदान करना अनिवार्य है पर डेमोक्रेसी शून्य है!
हमारे लोकतंत्र की समस्या कई यूरोपीय लोकतांत्रिक देशों या ऑस्ट्रेलिया से बिल्कुल अलग है। हमारी भावी समस्याओं का अंदाज़ हमारे संविधान निर्माताओं को भी था। भारत की संविधान सभा में अपने संविधान की मूल प्रति की मंज़ूरी मिलने से ठीक एक दिन पहले यानी 25 नवम्बर, 1949 को डॉ. भीम राव आम्बेडकर ने अपने ऐतिहासिक संबोधन में इन समस्याओं का निचोड़ पेश किया। उनकी एक-एक बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी उस वक़्त थी। उनके संबोधन की एक ख़ास टिप्पणी को हम यहाँ संक्षेप में पेश कर रहे हैं:
‘हम विरोधाभासों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हमारे पास समानता होगी और सामाजिक आर्थिक जीवन में घोर असमानता। राजनीति में एक व्यक्ति-एक वोट का सिद्धांत लागू रहेगा पर सामाजिक-आर्थिक जीवन में असमानता से भरे ढाँचे के चलते एक व्यक्ति-एक मूल्य के सिद्धांत से इनकार किया जायेगा। कितनी देर तक हम विरोधाभासों के इस जीवन को जीना जारी रखेंगे? अगर हमने सामाजिक-आर्थिक जीवन में व्याप्त असमानता को समय रहते ख़त्म नहीं किया तो इससे पीड़ित लोग राजनीतिक लोकतंत्र की संरचना को ध्वस्त कर देंगे, जिसे हमारी संविधान सभा ने परिश्रम से निर्मित किया है।’
यह तो भारतीय शासक वर्ग की कामयाबी मानी जाएगी कि इतनी बुरी राजनीतिक व्यवस्था, घोर असमानता और शोषण-उत्पीड़न के बावजूद असमानता से पीड़ित देश के करोड़ों लोगों ने अभी तक इस संरचना को ध्वस्त नहीं किया, जिसकी आशंका स्वयं डॉ. आम्बेडकर ने ज़ाहिर की थी!
व्यवस्था के संचालक असमानता और शोषण-उत्पीड़न से ग्रस्त करोड़ों लोगों को न्याय, समानता और बंधुत्व का माहौल देने के बारे में नहीं सोच रहे हैं। वे चाहते हैं कि सरकारें चाहे जितनी बुरी हों, चाहे वे जितना कॉर्पोरेट और अमीरों के पक्षधर हों पर आम ग़रीब लोग हमेशा सौ फ़ीसदी मतदान करते हुए लोकतंत्र का जयकारा करते रहें! इस असंवेदनशीलता, जघन्यता और मूर्खता के बारे में क्या कहा जाए? भारत में जिस समय यह बहस चलाने की कोशिश हो रही है, असमानता के वैश्विक सूचकांक में भारत कुल 157 देशों की सूची में 147 वें स्थान पर पहुँच चुका है। यानी असमानता से ग्रस्त सिर्फ़ 10 देश हमसे भी बुरी हालत में हैं। पर हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस या स्विट्जरलैंड जैसा बनाना चाहते हैं।
चुनाव सुधार के फ़ौरी एजेंडे पर ख़ामोशी क्यों?
भारत में चुनाव सुधार एक बड़ा मुद्दा है। इस पर बहुत बहस हो चुकी है। अनेक कमेटियों ने सिफ़ारिशें दी हैं। पर लागू करने में किसी को रूचि नहीं है। अनिवार्य वोटिंग का ताज़ा शगूफ़ा संभवतः चुनाव सुधार के वास्तविक एजेंडे को दरकिनार करने या उससे लोगों का ध्यान हटाने के मकसद से छेड़ा गया है। असल मुद्दे हैं- चुनाव फंडिंग के, जिस पर एडीआर सहित अनेक संस्थाएँ लगातार आवाज़ उठाती रही हैं। क्या यह सही नहीं कि आज के दौर में हमारा लोकतंत्र कॉर्पोरेट-नियंत्रण वाले तंत्र में तब्दील होता जा रहा है? बेहद ख़र्चीले चुनावों में आम आदमी की हिस्सेदारी तमाशबीन की तो हो सकती है पर वास्तविक स्टेकहोल्डर की नहीं! हालात बदलने के लिए संसद की कई समितियों ने भी समय-समय पर सिफ़ारिशें दी हैं, जिन पर धूल की मोटी परत जम चुकी है। पर कोई कार्रवाई नहीं। इधर, क़ानूनी सुधार करके जिस तरह मोदी सरकार के दौर में ‘इलेक्शन बॉन्ड’ की व्यवस्था की गई है, उससे हालात और ख़राब हुए हैं। मामला सुप्रीम कोर्ट में है। दूसरा बड़ा मुद्दा स्वयं निर्वाचन आयोग बन गया है। आयोग संवैधानिक संस्था है। पर उसके तीनों आयुक्तों की नियुक्ति सिर्फ़ और सिर्फ़ सरकार करती है। इस तरह की नियुक्ति प्रक्रिया दोषपूर्ण सिद्ध हो चुकी है। सीबीआई कोई संवैधानिक संस्था नहीं है, वह सिर्फ़ एक सरकारी संस्था है- कहने को स्वायत्त। पर उसके निदेशक की नियुक्ति करने वाले पैनल में भी सरकार के एक प्रतिनिधि के अलावा एक न्यायिक प्रतिनिधि और एक विपक्षी प्रतिनिधि होते हैं। समझ में नहीं आता, आज तक भारतीय चुनाव आयोग को निपट सरकारी मर्ज़ी से नियुक्त किया जाने वाला आयोग क्यों बनाये रखा गया! मुझे लगता है, भारत में चुनाव की प्रक्रिया और लोकतंत्र को बेहतर बनाने के लिए इन मुद्दों पर बहस होनी चाहिए!