दो प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों की मौत हो रही है!
दिल्ली विश्वविद्यालय के इंद्रप्रस्थ कॉलेज के समाजशास्त्र विभाग में 5 अध्यापकों को विभाग की स्थापना के समय से, यानी तक़रीबन 5 साल तक लगातार काम करने के बाद बाहर कर दिया गया है। ध्यान रहे, इन अध्यापकों ने 2018 में विभाग की स्थापना की थी। स्थायी अध्यापकों को मिलनेवाली सुरक्षा के बिना बरसों विभाग चलाया। कॉलेज ने इन्हें इतने वर्षों तक स्थायी नहीं किया। क़ानूनी तरीक़े से ख़ुद को बचाने के लिए हर सत्र में एक दिन का अंतर देकर इनसे काम लिया जाता रहा। एक प्रकार से वे थे स्थायी ही। लेकिन उन्हें कभी भी निकाल दिया जा सकता था। और उन्हें निकाल ही दिया गया।
इनकी जगह जिन्हें स्थायी नियुक्ति दी गई है उनकी योग्यता इन सबसे कहीं कम है और पता चला है कि एक के पास समाजशास्त्र की डिग्री भी नहीं। जिन्हें निकाला गया है, उनकी योग्यता और लोकप्रियता उनकी पढ़ाई छात्राओं की प्रतिक्रिया से ही मालूम हो जाती है।
इसके पहले सत्यवती सांध्य कॉलेज के हिंदी विभाग में वर्षों से पढ़ा रहे 5 अध्यापकों को निकाल दिया गया था। उनमें से एक तो वहाँ दो दशकों से पढ़ा रहे थे।
यह पिछले एक साल में दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में होनेवाली स्थायी नियुक्तियों का आम क़िस्सा है। बरसों बरस से अस्थायी तौर पर पढ़ाते आ रहे लोगों को निकालकर प्रायः ऐसे लोगों को स्थायी नियुक्ति दी जा रही है जिनकी योग्यता इन लोगों से किसी भी मामले में अधिक नहीं और अधिकतर मामलों में कमतर ही है। जैसे सिर्फ़ एम ए किए हुए लोग वैसे लोगों को विस्थापित कर रहे रहे हैं जिनके पास पीएच डी है या जिनके शोध पत्र कई जगह प्रकाशित हो चुके हैं।
ऐसा वैधानिक तौर पर इस वजह से किया जा सकता है कि चयन का आधार मात्र इंटरव्यू है। 5, 6 मिनट के इंटरव्यू से कैसे पात्रता तय की जा सकती है, यह भी सोचने का विषय है। इंटरव्यू किस तरह लिए जा रहे हैं, यह कोई सार्वजनिक तौर पर नहीं बतला रहा लेकिन निजी बातचीत से मालूम होता है कि इंटरव्यू लेनेवाले अपने अंदाज़ से ज़ाहिर कर देते हैं कि यह पहले से तय है कि किसका चयन होगा।सूची बनी हुई है, उससे बाहर किसी का भी चयन नहीं होगा। इसलिए इंटरव्यू में आपका प्रदर्शन कैसा है, यह भी बेमानी है।
उस भाग्यशाली सूची में जगह पाने की आज की योग्यता भी सबको मालूम है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी संगठन, किसी नेता, दिल्ली विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी धड़े से संपर्क से बेहतर तरीक़ा और कुछ नहीं। दूसरा संबंधित कॉलेज के प्राचार्य या प्रबंधन समिति के किसी व्यक्ति तक आपकी ऐसी पहुँच हो कि वह आपकी नियुक्ति के लिए अंतिम दम तक लड़ने को तैयार हो।
स्थायी नियुक्ति का यह नियम अब प्रत्येक अस्थायी अध्यापक को मालूम है। अगर उसकी ऐसी कोई पहुँच नहीं है तो उसे मालूम है कि उसका इंटरव्यू देना औपचारिकता ही है। एक तरह से इंटरव्यू में भाग लेकर वे सब इस अनैतिक प्रक्रिया को वैधता ही प्रदान करते हैं। इंटरव्यू में कई बार योग्य लोगों को बेइज्जत किया जाता है। लेकिन उनमें शामिल होना उनकी मजबूरी भी है। हमेशा उम्मीद बनी रहती है कि शायद, शायद कभी कहीं, किसी का विवेक सक्रिय हो जाए। अब तक वह नहीं हुआ है।
इस तरह हुआ यह है कि हर कॉलेज में और हर विषय में पहुँचवाले औसत दर्जे के अभ्यर्थी स्थायी तौर पर चुने गए हैं। उनका तो भला हुआ है लेकिन वे छात्रों को क्या और कैसे पढ़ाएँगे, यह अब छात्रों को भी मालूम हो चुका है। भला एक का होता है जिसकी क़ीमत हज़ारों छात्र 25 से 30 साल तक चुकाते रहेंगे। फिर यही अध्यापक आगे की नियुक्तियों में भूमिका अदा करेंगे। वे किस प्रकार की होंगी? क्या कोई भी अयोग्य किसी योग्य को नियुक्त करना चाहेगा? तो मसला कोई 50 से 60 साल तक छात्रों और विभागों की धारावाहिक बर्बादी का है।
दूर से देखनेवाले अचरज कर सकते हैं कि यह कैसे मुमकिन है कि 5 साल से 20 साल तक अध्यापकों को नियमित रूप से अस्थायी रखा जाए और उनसे पूरा काम लिया जाए। या यह सवाल कि आख़िर इतने सालों तक इन पदों को भरा क्यों नहीं गया? क्यों उनपर लोगों को अस्थायी तौर पर बनाए रखा गया? इसका उत्तर वे दे सकते हैं जो दिल्ली विश्वविद्यालय की शिक्षक राजनीति से परिचित हैं। इस राजनीति में अलग अलग राजनीतिक दलों से संबद्ध शिक्षक संगठन है और वे अपने वफ़ादार अध्यापकों की फ़ौज बड़ी से बड़ी करने का हर तरीका अपनाते हैं।
अस्थायीत्व की बीमारी 9 साल की नहीं, बहुत पुरानी है। अध्यापकों के पदों को अस्थायी रखने का एक बड़ा कारण यह है कि नियुक्ति के इच्छुक अभ्यर्थी इन संगठनों की कृपा हासिल करने को उनके पास आएँ क्योंकि वे एक या दूसरी जगह प्रभावशाली दिखलाई पड़ते हैं और नियुक्ति में निर्णायक हो सकते हैं।
अस्थायी रूप में भी बहाल होने के लिए किसी न किसी शिक्षक संगठन संगठन से जुड़ना आवश्यक माना जाता रहा है । अगर किसी को लगातार वफ़ादार रखना है तो उसे लंबे समय तक अनिश्चितता और उम्मीद में बनाए रखना भी ज़रूरी है।
विश्वविद्यालय शिक्षक संघ में अस्थायी अध्यापकों को मताधिकार देने के पीछे यही कारण था कि वे इस वफ़ादारी को जारी रखने को मजबूर हों। यह समझना कठिन है कि शिक्षक संघ ने बरसों बरस तक स्थायी नियुक्ति के लिए निर्णायक आंदोलन क्यों नहीं चलाया।
यह माँग हर चुनाव के समय उठायी जाती रही कि स्थायी बहाली हो लेकिन हर किसी को पता था कि यह बेमन से उठाया गया नारा है। यह प्रलोभन अस्थायी अध्यापकों को दिया जाता रहा कि उन्हें स्थायी करवाया जाएगा। लेकिन उन्हें ऐसी हालत में ला दिया गया कि वे अस्थायी पद को ही जारी रखने के लिए जूझते रहे।
इस स्थिति के लिए प्रत्येक शिक्षक संगठन ज़िम्मेवार है। हर कुलपति को मालूम था कि शिक्षक संघ की रुचि स्थायी नियुक्ति में नहीं है। हर प्राचार्य को पता था कि किसी शिक्षक संगठन की दिलचस्पी योग्यता में नहीं है, उसके लिए शर्त वफ़ादारी की है। यह समझौता वर्षों तक सारे संगठनों के बीच बना रहा कि जिसकी जहाँ चलती हो, वह अपने उम्मीदवार की वहाँ नियुक्ति करवा ले। ढेर सारे योग्य छात्रों ने भी इसे देखकर किसी न किसी की शरण ली। यही नियम था और इसकी चर्चा से सब नाराज़ ज़रूर होंगे लेकिन उनको मालूम है कि वे यही करते रहे थे।
इसके कारण यह स्थिति बनी कि हज़ारों पद स्थायी नियुक्ति के लिए अचानक उपलब्ध हो गए। इस समय आरएसएस प्रभुत्वशाली है। वह किसी भी तरह हरेक पद पर अपने लोगों को चाहता है। अनेक वैसे अभ्यर्थी भी जो आरएसएस के नहीं हैं, आज भगवा पट्टा पहनकर उसकी शाखा में जा रहे हैं जिससे उसकी कृपा उन्हें हासिल हो जाए। कुछ को इसका लाभ मिला है, कुछ असफल रहे हैं, फिर भी प्रयासरत हैं।
यह संयोग है या नियम कि आरएसएस के खाते प्रायः औसत दर्जे के लोग हैं। इसलिए उस रास्ते आनेवालों से न तो अध्यापन और न शोध की आशा की जा सकती है। पिछले 4, 5 सालों में होनेवाली नियुक्तियों को लेकर जो चिंता व्यक्त की जा रही है, उसका कारण यह है।
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दिल्ली विश्वविद्यालय के पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आरएसएस अपना लक्ष्य हासिल कर चुका है। क्या इसका असर वहाँ आनेवाले छात्रों के चुनाव पर पड़ेगा?
हम कोई 3,4 साल से देख रहे हैं कि वे छात्र, जिनके पास आर्थिक क्षमता है, निजी विश्वविद्यालयों का रुख़ कर रहे हैं। क्योंकि उन्हें मालूम है कि वहाँ अध्यापक पढ़ने- लिखनेवाले हैं। वे अपने विषयों में दिलचस्पी रखते हैं, उसमें शोध करते हैं। अगर डिग्री के साथ ज्ञान हासिल करना भी उद्देश्य हो तो यहीं जाना चाहिए। आज से 4 साल पहले ये सब दिल्ली विश्वविद्यालय और जेएनयू के अलावा कुछ और नहीं सोचते। अब दिल्ली विश्वविद्यालय उनका चुनाव है जो इन महँगे केंद्रों में नहीं जा सकते।
देश के इन दो बड़े और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों की इस तरह मौत हो रही है। लेकिन उस पर कोई दो मिनट का मौन भी घोषित नहीं करता।