खाद्य तेलों के दाम गिरेंगे या छूते रहेंगे आसमान?
खाने के तेलों के दाम इतने बढ़ गए हैं कि लोगों की पहुँच से बाहर होते जा रहे हैं। हालत यह है कि सरसों का तेल जो ग़रीबों का खाद्य तेल माना जाता है खुदरा बाज़ार में डेढ़ सौ रुपए लीटर से भी ज़्यादा का हो गया है। दूसरे सभी तेल जैसे मूँगफली का तेल तो 200 रुपए प्रति लीटर और सूरजमुखी का तेल लगभग डेढ़ सौ रुपए किलो तक जा पहुँचा है। वनस्पति तेल जो 75 रुपए के आस-पास रहता था, 110 के ऊपर जा पहुँचा है। हैरान करने वाली बात यह है कि देसी घी जो कभी इन तेलों की तुलना में ख़ासा महँगा होता था, अब भी 500 रुपए प्रति लीटर के नीचे है। एक और बात है कि तेलों की माँग भी काफ़ी कम हो गई है क्योंकि कोरोना वायरस के प्रकोप के बाद रेस्तरां और हलवाइयों की माँग पहले जैसी नहीं रही। माँग में काफ़ी गिरावट आई है और उसके बावजूद क़ीमतों का इन ऊँचाइयों तक बढ़ना कई तरह के संदेह पैदा करता है। अब हालत बहुत बिगड़ने के बाद सरकार की नींद खुली है और हाई लेवल मीटिंग हो रही है। कई उपायों की चर्चा हो रही है और सबसे आसान तरीक़ा यानी इम्पोर्ट को बढ़ाने का फ़ैसला लिया जा रहा है।
भारत है दुनिया का सबसे बड़ा इंपोर्टर
यह सही तर्क है कि भारत में सिर्फ़ 70 लाख टन खाद्य तेलों का उत्पादन होता है और यहाँ 200 लाख टन की माँग-खपत है। इस कारण से भारत तेलों का दुनिया में सबसे बड़ा इंपोर्टर है। कहा जा रहा है कि सरसों और सोया की फ़सल सितंबर में बारिश से मार खा गई। उतना उत्पादन नहीं हुआ जितनी उम्मीद थी। लेकिन फिर भी दाम इतने नहीं बढ़ने चाहिए थे जितने बढ़ गए। आख़िर क्या वजह रही इस समय अलग-अलग कारण दिए जा रहे हैं। जैसे यह कहा जा रहा है कि इस साल देर तक बारिश होते रहने से फ़सलों पर असर पड़ा। लेकिन यह बात गले नहीं उतरती क्योंकि कृषि मंत्रालय के आँकड़े कुछ और बताते हैं। और अगर फ़सलों पर असर पड़ा भी है तो इतना भी नहीं कि दाम इन ऊँचाइयों पर जा पहुँचे।
दूसरा तर्क यह दिया जा रहा है कि पाम ऑयल के दाम में पिछले दिनों काफ़ी बढ़ोतरी हुई जिसका असर सभी तेलों पर पड़ा है। पाम ऑयल इंटरनेशनल मार्केट में 910 डॉलर का हो गया यानी दुगना। इसका सीधा असर भारत में सभी तेलों पर पड़ा और वे महँगे हो गए। यहाँ पर यह बताना ज़रूरी हो जाता है कि पाम ऑयल भारत में सभी तरह के खाद्य तेलों में मिलाया जाता है।
यह मिलावट ग़ैरक़ानूनी है लेकिन मुनाफाखोर धड़ल्ले से मिलावट करते हैं। और इसमें बड़ी-बड़ी कंपनियाँ भी शामिल हैं क्योंकि इससे मुनाफे का मार्जिन बढ़ जाता है।
भारत में पाम ऑयल उत्पादन नगण्य है
दरअसल, पाम ऑयल का भारत में उत्पादन नहीं के बराबर होता है। हम हर साल लगभग 93 लाख टन पाम ऑयल की ख़पत करते हैं जिसमें से महज 102 प्रतिशत देश में पैदा होता है। इसका ज़्यादातर आयात मलेशिया, इंडोनेशिया में होता है और वहाँ से ही यह भारत आता है। पिछले साल जब मलेशिया के तत्कालीन प्रधानमंत्री महातिर मुहम्मद ने भारत के विरुद्ध बयान दिया था तो उसके बाद प्रतिक्रिया में वहाँ से पाम ऑयल के आयात पर रोक लगाने की माँग उठी। बड़े आयातकों ने तो सौदे भी रद्द कर दिए जिससे मलेशिया की अर्थव्यवस्था को भारी चोट पहुँची। लेकिन इसका असर हमारे यहाँ भी पड़ा और इसके भाव बढ़ गए जिसका असर सभी तरह के तेलों की क़ीमतों पर पड़ा।
महातिर मुहम्मद के हटने के बाद भले ही दोनों देशों के रिश्ते सामान्य हो गए लेकिन अब समस्या यह पैदा हो गई है कि वहाँ कोविड के कारण पाम की खेती को भारी धक्का पहुँचा। मज़दूर नहीं मिल पाने के कारण पाम की कटाई और तेल कारखानों तक पहुँचाने का काम रुक गया। इससे वहाँ पाम ऑयल के दाम 8 वर्षों के अधिकतम पर जा पहुँचे जिसका सीधा असर भारत में तेलों की क़ीमतों पर पड़ा। मलेशिया के अलावा भारत इंडोनेशिया से भी पाम ऑयल खरीदता है लेकिन उसका उत्पादन उतना नहीं है।
मोनोपोली बिज़नेस है तेल का
भारत में कच्चे तेलों की तरह ही खाद्य तेलों का क़ारोबार मुट्ठी भर हाथों में है। कुछ ही कंपनियाँ इसमें लगी हुई हैं और वे दाम को अपने हिसाब से बढ़ाते-घटाते रहते हैं। इन कंपनियों में सबसे ऊपर है अडानी विलमर (फ़ॉर्चून ब्रांड) और उसके बाद हैं मदर डेयरी (धारा ब्रांड), करगिल इंडिया (नेचर फ्रेश) जेमिनी ब्रांड पतंजलि आर्युवेद (पतंजलि ब्रांड), मारिको (सफोला), इमामी एग्रोटेक वगैरह। कुल आठ कंपनियों ने साढ़े 21 अरब डॉलर के बाज़ार का बड़ा हिस्सा हथिया रखा है। इसमें गुजरात, राजस्थान की कंपनियाँ सबसे आगे हैं।
माना जा रहा है कि यह तेल बाज़ार अगले छह वर्षों में 35 अरब डॉलर का हो जाने की उम्मीद है। ज़ाहिर है कि यह मोनोपोली बनी रहेगी क्योंकि इस फ़ील्ड में नई कंपनियाँ नहीं आ रही हैं। आईटीसी ने तो अपना तेल क़ारोबार 2003 में ही अडानी को बेच दिया था।
अब चूँकि ये बड़ी कंपनियाँ तेलों का अधिकतम आयात करती हैं तो उसका फ़ायदा वे इस तरह से उठाती हैं कि अगर विदेशों में तेलों की क़ीमतों में प्रति टन अगर 100 डॉलर की बढ़ोतरी होती है तो खुदरा बाज़ार में तेल के दाम सीधे दस रुपए से पन्द्रह रुपए प्रति लीटर बढ़ा दिए जाते हैं जबकि कुल बढ़ोतरी प्रति लीटर साढ़े सात रुपए की हुई होती है। उससे भी दिलचस्प बात यह है कि अगर इंटरनेशनल मार्केट में दाम गिर भी गए तो तेल के खुदरा दाम तुरंत नहीं गिरते। उसमें काफ़ी वक़्त लगता है। चूँकि इस व्यवसाय में प्रतिस्पर्धा नहीं है तो तुरंत दाम गिरने की कोई वज़ह नहीं है।
सोया ऑयल हो रहा है लोकप्रिय
सोया ऑयल भारत में लोकप्रिय हो रहा है और इस समय भारत के तेल बाज़ार के एक तिहाई पर सोया ऑयल का ही कब्जा है। यहाँ 25 लाख टन सोया ऑयल सालाना आयात होता है। यह तेल अर्जेंटीना, ब्राज़ील, अमेरिकी वगैरह देशों से आता है। सरसों तेल का उसके बाद ही नंबर आता है। सोया और उसके तेल को लोकप्रिय करने के अभियान में अमेरिकी कंपनियों का बड़ा योगदान है। अमेरिका सोयाबीन उपजाने वाला दुनिया का सबसे बड़ा देश है और यह दो अरब डॉलर से भी ज़्यादा का एक्सपोर्ट करता है। चीन से संबंध ख़राब होने के बाद से उसकी माँग में कमी आई है और इसकी भरपाई वह भारत में सोया एक्सपोर्ट बढ़ाकर करना चाहता है। लेकिन इसके दामों में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है और यह भी कोई वज़ह नहीं है कि यहाँ खाद्य तेलों के दाम इतने बढ़ जाएँ।
आने वाले समय में देश में सोया ऑयल का आयात बढ़ेगा क्योंकि सरकार पाम ऑयल का आयात घटाना चाहती है। इसके अलावा सोया ऑयल महँगा भी नहीं है जबकि पाम ऑयल के दाम बढ़े हुए हैं। भारत में सोयाबीन का उत्पादन बढ़ा भी है और आगे अधिक उत्पादन की संभावना भी है जबकि पाम ऑयल का उत्पादन ज्यादा बढ़ाना संभव नहीं है।
वायदा क़ारोबार और सटोरियों का खेल
जानकार कहते हैं कि दाम बढ़ने का यह सारा खेल दरअसल वायदा क़ारोबार यानी फ्यूचर ट्रेडिंग का है। इसके तहत बड़े वायदा क़ारोबारियों और सटोरियों ने सस्ते दामों में किसानों से उपज खरीद लिया और बाद में मोटे भाव पर बेच रहे हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है सरसों जिसकी ज़्यादातर फ़सल वायदा क़ारोबार में किसानों से 3500-3600 रुपए प्रति क्विंटल के भाव खरीदी गई। यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम। और अब तेज़ी आने के बाद यह 6000 रुपए प्रति क्विंटल के भाव बेची जा रही है। इससे तेलों के दाम में फर्क पड़ गया है और वे महंगे हो गए हैं। स्थिति यह है कि देश में सटोरियों, वायदा क़ारोबारियों और राजनीतिज्ञों की मिलीभगत से तेलों के दाम आसमान पर पहुँचा दिए गए हैं।
एक तरफ़ तो किसानों को उनकी उपज की सही क़ीमत नहीं मिल पा रहा है तो दूसरी तरफ़ ग्राहकों से अनाप-शानाप क़ीमतें वसूली जा रही हैं। कंपनियों, दलालों और विक्रेताओं की चांदी हो रही है।
सरकार जगी है लेकिन देर से। इस मुनाफाखोरी का उसके पास सीधा कोई समाधान नहीं है। उसे अब इन क़ीमतों को पुराने भाव पर लाने में काफ़ी वक़्त लगेगा क्योंकि अगर केन्द्र सरकार खाद्य तेलों को बड़े पैमाने पर इम्पोर्ट भी करती है तो भी यह आसान नहीं है। वहाँ ऑर्डर करने से लेकर माल के बंदरगाहों पर उतरने तथा वितरण केन्द्रों तक जाने में महीना-दो महीने लग जाएँगे। ग्राहक तब तक इंतज़ार करें या फिर महंगे या मिलावटी तेल खरीदने को मजबूर हो जाएँ।