दलितों-आदिवासियों को पाठ्यक्रम से बाहर करने की कवायद
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार एक तरफ़ जहाँ वोट हासिल करने के लिए दलित बस्तियों में दौरा कर रही है, सहभोज का आयोजन कर रही है, वहीं सरकार दलित लेखकों और दलितों की समस्याओं को विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम से बाहर कर रही है।
दिल्ली विश्वविद्यालय ने तमिलनाडु की दो दलित महिलावादी लेखिकाओं बामा फौस्टीना सूसाईराज और सुखरधारिणी को अंग्रेजी के पाठ्यक्रम से निकाल दिया है। इनकी जगह उच्च जाति की लेखिका रमाबाई को लाया गया है। साथ ही महाश्वेता देवी की कहानी “द्रौपदी” को भी पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया गया।
उच्च शिक्षा में देश की आंतरिक और बाहरी समस्याओं को पढ़ाया जाता है, जिससे छात्र उन समस्याओं को समझ सकें और भविष्य में ज़िम्मेदार पद पर जाने की स्थिति में उन समस्याओं का समाधान निकाल सकें। वहीं दिल्ली विश्वविद्यालय ने अंग्रेजी विभाग से पूछे बग़ैर पाठ्यक्रम से उन लेखिकाओं को निकालने का फ़ैसला कर डाला, जो समाज को एक नए नज़रिये से देखती रही हैं।
राजनीतिक वजहों से इन लेखिकाओं को पाठ्य़क्रम से हटाए जाने के आरोप हल्के नहीं हैं। महाश्वेता देवी की कहानी द्रौपदी में आदिवासी महिला के शोषण की कहानी है। कहानी में प्रतिरोध और चेतना नज़र आती है। इस कहानी में आदिवासियों का प्रतिरोध संगठित आंदोलन का रूप ले लेता है। नायिका द्रौपदी एक संथाल युवती है। वह कबीले को नष्ट करने को तत्पर डकैतों से लड़ती है। द्रौपदी और उसका पति दुलना अपने अधिकारों के लिए लड़ते हैं तो जल्दी ही उनके कबीले की रक्षा के लिए युद्ध का रूप ले लेता है। आख़िरकार पुलिस भी आदिवासियों के विरोध में जाती है और दुलना कैद हो जाता है, द्रौपदी भी उनके फंदे में फंस जाती है।
इसी तरह से विश्वविद्यालय की समिति ने चंद्रावती रामायण की जगह पर तुलसीदास को पाठ्यक्रम में डालने का फ़ैसला किया है। चंद्रावती रामायण में चीजों को महिलावादी तरीक़े से देखा गया है। इसमें राम की कहानी सीता की नज़र से कही गई है।
दलितों, आदिवासियों का हितचिंतक होने की बीजेपी की कवायदें सिर्फ़ मतदाताओं तक सिमटी हुई हैं।
यह छोटे से बड़े नेताओं द्वारा चुनाव के क़रीब आते ही दलितों आदिवासियों के घर में उनके साथ खाना खा लेने से शुरू होकर इलाहाबाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सफ़ाईकर्मियों के पैर धोने तक जाता है। वहीं आदिवासियों के शोषण, महिलाओं के अधिकार, दलितों की स्थिति पर विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में डाली गई चीजें हटाई जा रही हैं, जिससे ये समस्याएँ सामने न आने पाएँ और वंचित तबक़े की लूट यथावत जारी रहे।
इसके पहले 2019 में दिल्ली विश्वविद्यालय की रीडिंग बुक की सूची से गुजरात और मुजफ्फरनगर दंगों को हटा दिया गया था। इतिहास के ‘डेमोक्रेसी ऐट वर्क’ के पाठ्य़क्रम से नक्सलवाद की समस्या को समझने की कोशिश की गई है। वहीं समाजशास्त्र की किताब में प्रोफेसर नंदिनी सुंदर का अध्याय ‘सबआल्टर्न ऐंड सॉवरिनः ऐन एंथ्रोपोलॉजिकल हिस्ट्री ऑफ बस्तर’ पर ख़तरा मंडरा रहा था, लेकिन फ़िलहाल उसे बहाल रखा गया।
यह केवल दिल्ली विश्वविद्यालय में नहीं चल रहा है। भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधीन काम करने वाले इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मॉस कम्युनिकेशन (आईआईएमसी) की रीडिंग बुक्स में से दिलीप मंडल की किताब ‘मीडिया का अंडरवर्ल्ड’ हटा दी गई। इस पुस्तक में भी यह ज़िक्र किया गया है कि मीडिया किस तरह से समाज के वंचित तबक़े के हितों के ख़िलाफ़ काम करता है।
फेमिनिस्ट लेखिकाओं बामा और सुखधारिणी को पाठ्यक्रम से बाहर किया जाना संकेत देता है कि सरकार दलित लेखिकाओं, दलितों की समस्याओं पर बात करने को तैयार नहीं है। वहीं महाश्वेता देवी की आदिवासियों के संघर्ष की कहानी को पाठ्यक्रम से हटाया जाना भी सरकार के मौजूदा रुख के संकेत देते हैं। ऐसे में यही लगता है कि सरकार दलितों और आदिवासियों को जय भीम, जय बिरसा जैसे नारों और आंबेडकर व बिरसा मुंडा की तस्वीरों पर फूल चढ़ाने तक सीमित करने की तैयारी में है। अगर कोई दलित-आदिवासी लेखक या लेखिका बनना चाहे या बदलाव की राजनीति करना चाहे तो उसके लिए दरवाजे पूरी तरह बंद नज़र आते हैं।
सरकार और बीजेपी का काम गाँवों और दलित बस्तियों का दौरा करने, मलिन बस्तियों, गाँवों में प्रवास करने, दलितों, वंचितों को साथ लेकर सहभोज कार्यक्रम आयोजित करने तक सिमटा हुआ है। बीजेपी को पूरा भरोसा है कि देश की मलाई में दलितों को हिस्सा दिए बगैर भी दलितों-आदिवासियों को लुभाया जा सकेगा और वंचित तबक़ा उन्हें सरकार बनाने में समर्थन देना जारी रखेगा।