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क्या मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड सारे मुसलमानों की नुमाइंदगी करता है? 

क्या मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड सारे मुसलमानों की नुमाइंदगी करता है? 

मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड क्या पूरे मुसलिम समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है? बोर्ड की स्थापना का उद्देश्य क्या था?

अभी पिछले दिनों एक सात-सूत्रीय निर्देश द्वारा अंतरधार्मिक विवाह को ग़ैर इसलामी बताते हुए हतोत्साहित करने की अपील कर मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड पुनः विवाद के घेरे में आ गया। इस तरह की यह कोई पहली घटना नहीं है। बोर्ड की तरफ़ से इस तरह के कई विवादास्पद क़दम पहले भी उठाए जाते रहे हैं। यहाँ एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि जब देश संविधान द्वारा संचालित होता है तो शरिया या किसी भी धार्मिक संहिता के तहत देश के नागरिकों से इस तरह के असंवैधानिक अपील करना कितना वाजिब है और किसी भी धर्म विशेष के ग़ैर सरकारी संगठन को क्या इस तरह के निर्देश जारी करने का संवैधानिक या नैतिक आधार है?

इस सवाल का जवाब ढूंढने से पहले एक नज़र बोर्ड के स्थापना के कारण और उद्देश्य पर भी ग़ौर कर लेना उचित होगा जो बोर्ड की वेबसाइट पर उर्दू में साफ़ तौर पर लिखा है-

‘जब हुकूमत ने क़ानूनसाज़ी (क़ानून बनाना) के ज़रिए (द्वारा) शरई कवानीन (क़ानूनों) को बेअसर (अप्रभावी) करने की कोशिश की।’

यह सीधे तौर पर संविधान द्वारा बने सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप एवं देश की संसद पर सवालिया निशान है और मुसलिम समाज को डराने एवं भ्रमित करने का प्रयास है कि लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई संसद जहाँ क़ानून बनाए जाते हैं, और जिसे मुसलिम भी अपने स्वतंत्र मतों से चुनते हैं, वो उनकी हितैषी नहीं है।

उद्देश्य बताते हुए लिखा है कि-

‘मुसलिम मआशरे (समाज) में तमाम ग़ैर इसलामी रस्म व रिवाज़ मिटाने का जामे (वृहद) मंसूबा (उद्देश्य)’

यहाँ यह बात ग़ौरतलब है कि देशज पसमांदा मुसलमानों की भाषा, सभ्यता एवं संस्कृति भारतीय क्षेत्र विशेष की रही हैं जिसे अशराफ मुसलिम उलेमा हिन्दूआना और ग़ैर इसलामी रस्म व रिवाज़ करार देकर अपनी अरबी-ईरानी सभ्यता संस्कृति को इसलाम के नाम पर थोपने का प्रयास करता रहा है जबकि इसलाम में वर्णित सिद्धांत "उर्फ" ने किसी भी क्षेत्र विशेष की रस्म व रिवाज के पालन करने की छूट, इस शर्त के साथ दिया है कि वो इसलाम के मूल सिद्धांत से न टकराते हों।

बोर्ड का यह भी दावा है कि वह इस देश में बसने वाले सभी मुसलमानों (विदेशी अशराफ और देशज पसमांदा) की प्रतिनिधि सभा है जो उनके व्यक्तिगत एवम् सामाजिक मूल्यों को, जो इसलामी शरीयत क़ानून द्वारा निर्धारित किये गए हैं, देख-भाल करने का कार्य करती है। इसके अतिरिक्त बोर्ड मुसलिमों की तरफ़ से देश के बाह्य एवम् आंतरिक मामलों में न सिर्फ़ अपनी राय रखता है बल्कि देशव्यापी आंदोलन, सेमिनार एवम् मीटिंग के द्वारा कार्यान्वित भी करता रहा है। और देखा जाए तो सरकार सहित भारतीय जनमानस, मीडिया एवं बुद्धिजीवी वर्ग भी इस बात को स्वीकार किए हुए है।

अगर बोर्ड के संगठनात्मक ढांचे को देखें तो बोर्ड ने मसलकों और फिरकों के भेद को स्वीकार करते हुए सारे मसलकों और फिरकों के उलेमा (आलिम का बहुवचन) को बोर्ड में जगह दी है, जो उनकी मसलक/फ़िरके की आबादी के वज़न के आधार पर है।

बोर्ड का अध्यक्ष सदैव सुन्नी सम्प्रदाय के देवबंदी/नदवी फ़िरके से आता है। ज्ञात रहे कि भारत देश में सुन्नियों की संख्या सबसे अधिक है और सुन्नियों में देवबंदी/नदवी समुदाय, बरेलवी समुदाय से यद्दपि संख्या में अधिक न हो फिर भी असर एवम् प्रभाव की दृष्टि से सबसे बड़ा गुट है। बोर्ड का उपाध्यक्ष सदैव शिया सम्प्रदाय से होता है, यद्दपि शिया सम्प्रदाय संख्या में सुन्नी सम्प्रदाय के छोटे से छोटे फ़िरके से भी कम है, फिर भी वैचारिक आधार पर शिया, सुन्नियों के हमपल्ला माने जाते हैं।

 - Satya Hindi

अब सवाल यह उठता है कि क्या भारतीय मुसलिम समाज सिर्फ़ मसलकों/फिरकों में ही बंटा है? तो इसका जवाब नकारात्मक मिलता है। मुसलिम समाज मसलकों और फिरकों में बंटे होने के साथ साथ नस्ली और जातिगत आधार पर भी बंटा है, जहाँ सैयद, शैख़, पठान, कुजड़ा, बुनकर, धुनिया, दर्जी, धोबी, मेहतर, भटियारा, भक्को, पवारिया, मिरासी और नट आदि जातियाँ मौजूद हैं, लेकिन बोर्ड अपने संगठन में उपर्युक्त विभेद को मान्यता नहीं देता और संगठन में किसी भी देशज पसमांदा (पिछड़े, दलित और आदिवासी) मुसलिम जातियों को उनकी जातिगत संख्या के आधार पर किसी भी प्रकार का प्रतिनिधित्व नहीं देता है।

ऐसा नहीं है कि बोर्ड भारतीय मुसलिमों के जातिगत भेद से अवगत नहीं है, बोर्ड द्वारा प्रकाशित "मजमूये कवानीने इसलामी" नामक पुस्तक में विवाह से संबंधित अध्याय में "कूफु" शीर्षक के अंतर्गत नस्लीय-जातीय ऊँच नीच, देशी-विदेशी विभेद आदि को मान्यता देते हुए इनके बीच हुए विवाह को ग़ैर इसलामी मानते हुए वर्जित करार देता है।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि बोर्ड महिलाओं के प्रतिनिधित्व को भी नज़रअंदाज़ करता है। बोर्ड महिला प्रतिनिधित्व को न्यायोचित नहीं मानता है। जबकि इसलामी इतिहास पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि खलीफा उमर (र०) ने एक महिला सहाबी (मुहम्मद रसूल अल्लाह का साथी), शिफ़ा बिन्त अब्दुल्लाह अलअदविया (र०) को मदीना के मार्केट का लोक वाणिज्य प्रशासनिक अधिकारी बनाया था। वह इसलामी इतिहास की पहली शिक्षिका एवम् चिकित्सिका भी थीं। खलीफा उमर (र०) उनसे सरकारी कामकाज में बराबर राय मशविरा भी किया करते थे। हालाँकि अब बोर्ड ने महिलाओं (बड़े और महत्वपूर्ण पद पर नही हैं) को शामिल तो कर लिया है लेकिन यहाँ भी उच्च अशराफ वर्ग की ही महिलाओं को वरीयता दी गयी। 

बोर्ड में ग़ैर आलिम की भी भागीदारी होती है जो ज़्यादातर पूंजीवादी, शिक्षाविद्, क़ानूनविद और राजनेता होते हैं, लेकिन यहाँ भी अशराफ वर्ग का ही वर्चस्व है।

बोर्ड में लोकतंत्र का सर्वथा अभाव है और पदाधिकारियों के चयन के लिए किसी भी प्रकार का चुनाव या लोकतांत्रिक प्रणाली न होकर उनकी नियुक्ति वंशागत या नस्लगत होता रहा है जहाँ बाप के मरने के बाद बेटा या बेटा के न रहने की सूरत में क़रीबी रिश्तेदार को वरीयता दी जाती रही है। पदाधिकारियों का कार्यकाल भी जीवनपर्यन्त होता है। सिर्फ़ यही नहीं, महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी बयान बोर्ड के अध्यक्ष या सचिव द्वारा बिना बोर्ड की मीटिंग तलब किये या बिना बोर्ड से पारित कराए फौरी तौर पर जारी कर दिया जाता है।

इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि बोर्ड को सारे मुसलमानों की नुमाइंदगी का संवैधानिक और नैतिक आधार ही नहीं है। और इसका ध्येय इसलाम और मुसलिम पर्सनल लॉ की आड़ में शासक वर्गीय अशराफ मुसलिमों की प्रभुसत्ता बनाये रखने का साधन मात्र है।

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