किस किस को अपना दुश्मन बनाएगा हिंदुत्व?

02:18 pm Jan 09, 2022 | मुकेश कुमार

संघ परिवार और उसके समर्थक अपने शत्रुओं की सूची में लगातार इज़ाफ़ा करते जा रहे हैं। उनकी फ़ेहरिस्त में नया नाम है सिखों का। हालाँकि, सिखों के प्रति उनकी नफ़रत किसान आंदोलन के समय ही विकसित और प्रदर्शित होती रही है, मगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक विस्फोटक बयान की बदौलत उसने अब एक ठोस शक्ल अख़्तियार कर ली है।

सुरक्षा में चूक के सवाल पर मोदी की लाँछन लगाने वाली टिप्पणी ने यूँ तो पंजाबियत को ही निशाना बना दिया था, मगर ख़ास तौर पर सिख समुदाय उससे आहत हुआ है। उसे लग रहा है कि मोदी ने सीधे तौर पर उन पर इल्ज़ाम लगा दिया कि वे उनके ख़िलाफ़ साज़िश रच रहे हैं। पहले से ही उनके अंदर बीजेपी के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा खदबदा रहा था, मगर मोदी के बयान ने उसे और सुलगा दिया है।

लेकिन इससे भी ख़तरनाक़ बात तो मोदी का बयान आने के बाद हुई जब केंद्रीय मंत्रियों और बीजेपी के नेताओं ने हत्या के साज़िश जैसे भड़काऊ बयान दिए। इन बयानों ने हिंदुत्व के समर्थकों को मानो इशारा कर दिया कि अब क्या करना है। इसके बाद तो सोशल मीडिया पर सिख-विराधी टिप्पणियों की बाढ़ आ गई। इन टिप्पणियों में सिखों के प्रति नफ़रत और हिंसा भरी हुई थी। यहाँ तक कि उन्हें 1984 के नरसंहार की याद दिलाई जाने लगी और उसे दोहराने की धमकियाँ तक दे दी गईं।

कहने का मतलब ये है कि अगर आप किसान आंदोलन के प्रति संघ परिवार के रुख़ से लेकर फ़िरोज़पुर में सुरक्षा चूक और उसके बाद के घटनाक्रम को मिलाकर देखेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा कि संघ परिवार ने सिखों को अपना एक और दुश्मन चुन लिया है। हो सकता है कि उत्तर प्रदेश चुनाव जीतने की मंशा भी इसमें शामिल हो और शेष भारत में हिंदू वोटबैंक को एकजुट करने की तिकड़म भी, मगर इसका कुल नतीजा तो यही निकलेगा कि सिख अब हिंदुत्व के निशाने पर हैं।

इसके पहले क्रिसमस के आसपास हिंदुत्ववादियों ने ईसाईयों पर नए सिरे से हमले शुरू किए हैं। अभी तक उनके निशाने पर मुसलमान ज़्यादा थे, लेकिन शायद सांप्रदायिक आधार पर अपेक्षित ध्रुवीकरण नहीं हो पा रहा था, इसलिए नए शत्रुओं को खोजने की ज़रूरत पड़ गई। इस तरह तीन प्रमुख धर्मों के अनुयायी हिंदुत्व के फ़ायरिंग दस्ते के सामने खड़े हैं।

मुसलमानों और ईसाइयों को हिंदुत्व ने आरंभ में ही अपना शत्रु घोषित कर दिया था, बल्कि ये कहना होगा कि उससे लड़ने के लिए ही उसका जन्म हुआ था। लेकिन सिखों को वह एक तरह से अपना मानता था।

उसके हिसाब से सिख धर्म हिंदू धर्म की ही एक शाखा है, ठीक उसी तरह से जैसे जैन और बौद्ध धर्म को वह अपना बताता है।

सावरकर की परिभाषा के हिसाब से भी सिख हिंदुत्व में फिट बैठते हैं, क्योंकि उनकी पितृभूमि और पुण्यभूमि दोनों भारत में ही है, इसलिए उनकी वफ़ादारी असंदिग्ध मानी जा सकती है। दूसरे, सिख गुरुओं की मुसलिम राजाओं के साथ अदावत के आधार पर भी वह उन्हें मुसलमानों का शत्रु मानता है और शत्रु का शत्रु तो अपना मित्र ही हुआ न।

लेकिन अब सिखों को अगर उसने निशाने पर लिया है तो इस चिढ़ की वज़ह से वे ब्राम्हणवादी हिंदुत्व के प्रभुत्व को स्वीकार नहीं रहे, बल्कि उसे चुनौती भी दे रहे हैं। पहले किसान आंदोलन को हौसला और साधन मुहैया करवाकर उन्होंने हिंदुत्व की झंडाबरदार सरकार और उसके नेता को घुटने टिकवाकर उन्होंने उनकी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिला दी। और अब वे पंजाब में उसके लिए जगह नहीं बनने दे रहे हैं।

पंजाबियत या क्षेत्रीय अस्मिता ठीक उसी तरह से उठ खड़ी हुई है जैसे बंगाल चुनाव के दौरान बंगाली अस्मिता ने हिंदुत्व को नकारने के लिए खुद को खड़ा कर लिया था। दक्षिण के ज़्यादातर राज्यों में यही हो रहा है। तमिलनाडु, केरल इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। कर्नाटक में भी प्रतिरोध हो रहा है।

यहाँ पश्चिमी प्रांत महाराष्ट्र का उदाहरण भी लिया जा सकता है। हालाँकि संघ परिवार इस राज्य में बहुत सावधानी बरत रहा है, मगर शिवसेना से अलग होने के बाद से कई बार ऐसा लगा कि वह मराठी पहचान को चुनौती दे रही है।

इसकी एक बड़ी वज़ह शायद ये है कि मराठावाद का परचम चूँकि दशकों से शिवसेना ने थाम रखा है इसलिए उससे लड़ाई महाराष्ट्रियों से लड़ाई का रूप ले लेती है।

ऐसे में ग़ौरतलब बात ये है कि हिंदुत्व न केवल सांप्रदायिक आधार पर अपने शत्रु बढ़ा रहा है, बल्कि भाषा-संस्कृति के आधार पर बनी क्षेत्रीय अस्मिताओं के रूप में भी अपने शत्रुओं की संख्या में इज़ाफ़ा कर रही है।

अब ज़रा इस सूची से इतर दुश्मनों को भी जोड़कर देखिए। दलित-आदिवासियों में हिंदुत्व को लेकर गहरा अविश्वास है और वे ब्राम्हणवादी हिंदुत्व को शत्रु के तौर पर ही देखते हैं। बेशक़ उनका एक हिस्सा बीजेपी से जुड़ा है और उसे वोट भी कर रहा है, मगर अंदर ही अंदर वह जानता है कि हिंदुत्व उन्हें ख़त्म करना चाहता है।

कम्युनिस्टों को तो हिंदुत्व के संस्थापकों ने पहले ही अपने प्रमुख शत्रुओं में शुमार कर रखा है। जेएनयू के प्रति उसकी घृणा उसका एक ताज़ा और छोटा सा नमूना भर है। लेकिन हाल के वर्षों में उसने मध्यमार्गियों, उदारवादियों और समाजवादियों तक को दुश्मन घोषित करना शुरू कर दिया है। ये सब उसके हिसाब से देशद्रोही हैं, गद्दार हैं, हिंदू विरोधी हैं, मुसलिमपरस्त हैं। कुछ और वर्ग हैं जिन्हें वह शत्रु भाव से देखता है और मौक़ा पड़ने पर व्यवहार भी करता है। इनमें छात्र, बेरोज़गार और मज़दूर तबक़ों का बड़ा वर्ग शामिल है।

हिंदुत्व के इन तमाम शत्रुओं की अगर गणना की जाएगी तो पता चलेगा कि हिंदुत्व दो तिहाई भारत को अपना दुश्मन बना चुका है। इस दो तिहाई भारत को अपने हिसाब से चलाने के लिए वह हर ताक़त, हर हथकंडे का इस्तेमाल करने की कोशिश करेगा। बाक़ी बचा एक तिहाई भारत उसके साथ दिखता है। लेकिन कब तक? जैसे-जैसे हिंदुत्व में अंतर्निहित शत्रुताभाव की पोल खुलती जाएगी, लोगों की समझ में बात आती जाएगी, वे उससे तौबा करना शुरू कर देंगे। यानी शत्रुओं की खोज में हिंदुत्व अपने मित्रों को भी गँवाता चला जाएगा।