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क्या देश के राजनैतिक संतुलन को बदलने की तैयारी है?

क्या देश के राजनैतिक संतुलन को बदलने की तैयारी है?

क्या सरकार 2024 के आम चुनाव से पहले देश के राजनैतिक आधार में किसी आमूल-चूल बदलाव की तैयारी कर रही है?

क्या सरकार 2024 के आम चुनाव से पहले देश के राजनैतिक आधार में किसी आमूल-चूल बदलाव की तैयारी कर रही है? जुलाई के आखिरी हफ्ते में कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने इस मसले को उठाते हुए कहा था कि सरकार अगले आम चुनाव से पहले लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के डीलिमिटेशन यानी पुनः सीमांकन और पुनर्गठन की तैयारी कर रही है। 

तिवारी का कहना था कि सरकार नई जनगणना के हिसाब से लोकसभा की सीटों की संख्या को बढ़ाना चाहती है। यह आशंका पिछले कुछ समय से इसलिए भी मजबूत हो रही है क्योंकि सेंट्रल विस्टा के तहत जो नई लोकसभा बन रही है, उसमें कुल एक हजार सदस्यों के बैठने की व्यवस्था की गई है।

थरूर ने भी उठाया मामला

फिर अगस्त की शुरूआत में कांग्रेस नेता शशि थरूर ने इस मामले को संसद में उठाया। उन्होंने भी तकरीबन वही बातें कहते हुए अपना विरोध जताया जो मनीष तिवारी ने कहीं थीं। उन्होंने इस पर सरकार का स्पष्टीकरण भी मांगा। सरकार की ओर से कोई स्पष्टीकरण न आना इस शक को और बढ़ा रहा है। 

यह कहा जा रहा है कि अभी जम्मू-कश्मीर में विधानसभा सीटों के डीलिमिटेशन का जो काम चल रहा है उसके बाद लोकसभा सीटों के डीलिमिटेशन की प्रक्रिया शुरू की जा सकती है। यह भी माना जा रहा है कि यह काम 2011 की जनगणना के आधार पर किया जाएगा।

डीलिमिटेशन के पक्ष में तर्क 

ऐसे बहुत से लोग हैं जो काफी समय से पूरे देश के स्तर पर डीलिमिटेशन की बात करते रहे हैं। इसके पक्ष में काफी मजबूत तर्क भी हैं। यह कहा जाता है कि पिछले कुछ दशकों में देश का जनसंख्या स्वरूप काफी बदला है और इसकी वजह से कई तरह का असंतुलन भी दिखाई देता है। 

एक तरफ देश में लक्षद्वीप जैसे लोकसभा क्षेत्र हैं जहां मतदाताओं की कुल संख्या 50 हजार से थोड़ी ही ऊपर है तो दूसरी तरफ ऐसे भी लोकसभा क्षेत्र हैं जहां मतदाताओं की संख्या 30 लाख से भी ज्यादा है। यानी लोकसभा में ऐसे सांसद भी बैठते हैं जो महज कुछ हजार मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, वहीं ऐसे भी बैठते हैं जो लाखों लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसी असमानता को दूर करने के लिए डीलिमिटेशन की बात की जाती है। 

इसीलिए लोकसभा में सीटों की संख्या बढ़ाने की बात की जाती है क्योंकि आप लक्षद्वीप की सीट तो किसी तरह उससे नहीं छीन सकते लेकिन आप पूरे देश में ऐसे बहुत से क्षेत्र जरूर बना सकते हैं जहां मतदाताओं की संख्या उससे बीसियों गुना ज्यादा न हो।  

 - Satya Hindi

कम होगा दक्षिण का प्रतिनिधित्व?

लेकिन यह बात उतनी आसान नहीं है। इससे एक असंतुलन भले ही आप दूर कर पाएं लेकिन इसके बाद जो असंतुलन पैदा होगा वह कहीं ज्यादा खतरनाक हो सकता है। देश में आबादी के बढ़ने का जो भूगोल है वह इस कवायद में अपना असर दिखाएगा। जिसे हम हिंदी क्षेत्र कहते हैं वहां इससे सीटों की संख्या काफी बढ़ जाएगी जबकि दक्षिण में भले ही सीटों की संख्या कम न हो लेकिन आनुपातिक दृष्टि से उसका प्रतिनिधित्व कम हो जाएगा। इसलिए ऐसी सोच का शुरू से ही विरोध होता रहा है।

दक्षिण के राज्यों का तर्क है कि देश में जनसंख्या नियंत्रण की जो नीति चली उसे उन्होंने पूरी ईमानदारी और कुशलता से लागू किया जबकि उत्तर के राज्य इसमें नाकाम रहे। अब अगर उत्तर की लोकसभा सीटें बढ़ जाती हैं तो इसका अर्थ होगा कि इन राज्यों को जनसंख्या नियंत्रण के लिए दंडित किया जा रहा है। 

दक्षिण से हुआ था विरोध

सत्तर के दशक में जब डीलिमिटेशन की बात चली थी तो भी दक्षिण के राज्यों ने काफी तीखा विरोध किया था। उसी के बाद आपातकाल के दौरान 1976 में डीलिमिटेशन कानून में संशोधन कर दिया गया था। इस संशोधन के बाद किसी भी राज्य की लोकसभा सीटों की संख्या को न तो कम किया जा सकता है और न ही बढ़ाया जा सकता है। 

अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान 2002 में जो डीलिमिटेशन हुआ उसमें इस बात का ध्यान रखा गया था, इसलिए सीटों के पुनर्गठन का काम बिना सीटों की संख्या बढ़ाए या घटाए राज्यों के भीतर ही किया गया था।

राज्यसभा में आएगी मुश्किल!

अब अगर सरकार यह काम करना चाहती है तो उसे सबसे पहले डीलिमिटेशन में संशोधन करना होगा। बीजेपी के पास लोकसभा में जो बहुमत है उसके चलते वहां तो यह काम हो जाएगा लेकिन असल दिक्कत राज्यसभा में आ सकती है। लेकिन जिस तरह कृषि कानून पास कराए गए उससे यह डर तो है ही कि वहां भी इस काम का कोई जुगाड़ न निकाल लिया जाए। 

जिस समय महिला आरक्षण विधेयक संसद में पेश किया गया था उस समय भी डीलिमिटेशन का तर्क दिया गया था और यह कहा गया था कि इससे महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों की संख्या आसानी से बढ़ाई जा सकती है। लेकिन यह विधेयक कभी पारित नहीं हो सका। 

वाजपेयी सरकार के दौरान इसके लिए कुछ गंभीर कोशिशें हुई थीं और बाद में भी इस पर लगातार चर्चा होती रही। लेकिन मोदी सरकार आने के बाद इसे पूरी तरह ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है।

बीजेपी को क्या मिलेगा?

अंत में असल सवाल यह है कि इस काम से बीजेपी को आखिर मिलेगा क्या? जवाब सीधा सा है कि इससे उस हिंदी क्षेत्र में सीटों की संख्या काफी बढ़ सकती है जहां बीजेपी का मुख्य आधार है। इससे उसे दक्षिण के राज्यों में अपने सीमित जनाधार से खड़ी हो सकने वाली दिक्कतों की काट भी मिल जाएगी। 

हालांकि इसे करना बहुत आसान नहीं होगा लेकिन एनआरसी की तरह इसकी भी कोशिश तो हो ही सकती है। वैसे भी राष्ट्रीय आम सहमति जैसी शब्दावली बीजेपी के शब्दकोष में नहीं है।

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