उर्दू कविता की सबसे लोकप्रिय शैली ग़ज़ल को आम तौर पर स्त्री और पुरुष के बीच प्रेम को प्रकट करने का तरीक़ा माना जाता है। अरबी के शब्द ग़ज़ल का अर्थ भी औरत से बातचीत या औरत के बारे में बातचीत ही है। इसलिए आरंभिक दिनों में ग़ज़लें, प्रेम का इज़हार करने या औरत की सुंदरता का बयान करने के लिए ही लिखीं जाती थीं।
ग़ज़ल सुनने के दीवाने भी अक्सर भूल जाते हैं कि ग़ज़ल ने स्त्री पुरुष के प्रेम की हदों को तोड़ कर शासनों के ख़िलाफ़ इंक़लाब की दावत भी दी है। महरूम लोगों और भूख की आवाज़ भी बुलंद की है। ग़ज़ल को लेकर बनी बनायी धारणाओं पर एक नयी रोशनी डालता है नाटक, 'जान ए ग़ज़ल' इसे दिल्ली उर्दू अकादमी के नाटक समारोह में पेश किया गया। नाटक के लेखक हैं सइद मोहम्मद मेहदी और निर्देशन किया सुधीर रिखारी ने। संवाद फ़ाउंडेशन की इस पेशकश में उर्दू ग़ज़लों के जन्म से लेकर अब तक की सफ़र को रेखांकित किया गया है।
ग़ज़ल लेखन की शुरुआत कब हुई और ग़ज़ल के पहले लेखक कौन हैं, इसका कोई साफ़ जवाब नहीं हो सकता है। कुछ लोग सूफ़ी कवि अमीर खुसरो को प्रारंभिक ग़ज़ल लेखक मानते हैं। लेकिन उसके पहले भी ग़ज़ल की मौजूदगी के सबूत मौजूद हैं। अमीर खुसरो के लिखे ग़ज़लों में प्रेम की झलक मौजूद है। लेकिन उनके ग़ज़लों में प्रेम मुख्यतः ईश्वर के साथ प्रेम को दर्शाता है। मीर तकी मीर और ग़ालिब की ग़ज़लें स्त्री पुरुष के बीच प्रेम के साथ-साथ ईश्वर से भी नाता जोड़ती हैं।
आज़ादी की लड़ाई के दौर में बिस्मिल अजिमाबादी जैसे शायर भी आते हैं जिनकी ग़ज़ल "सर फरोसी की तम्मना अब हमारे दिल में हैं, देखना है ज़ोर कितना बाज़ू ए क़ातिल में है" जंग ए आज़ादी का तराना बन गयी थी। पाकिस्तान के शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने तो "बोल कि लब आज़ाद हैं" जैसी ग़ज़लों से पाकिस्तान की सैनिक तानाशाही को खुली चुनौती दी थी।
नाटक की प्रस्तुति के लिए कव्वाली की महफ़िल जैसी सेट बनायी गयी थी, जो ग़ज़ल की गरिमा को निखारने में सफल थी। कई बार लोग कव्वाली और ग़ज़ल को लेखन की अलग अलग विधा मानते हैं। इस नाटक में साफ़ किया गया कि ग़ज़ल लेखन की विधा है जबकि कव्वाली एक गायन शैली है। ग़ज़ल को कव्वाली शैली में भी गाया जा सकता है। नाटक के मंच को समय समय पर दर्शक दीर्घा तक विस्तार देकर ख़ासा दिलचस्प बना दिया गया था।
प्रस्तुति की एक महत्वपूर्ण बात ये भी थी कि इसके मुख्य पात्र ग़ज़ल को वाचन और गायन दोनों शैलियों में दक्षता के साथ पेश कर रहे थे। सामयिक राजनीति पर व्यंग्य डाल कर निर्देशक ने इसे इतिहास से निकाल कर वर्तमान से भी जोड़ दिया था। किसी लेखन में अरबी और फ़ारसी के शब्द हों तभी उसे उर्दू ग़ज़ल कहा जाय, इस मिथक को तोड़ते हुए उन ग़ज़लों को भी शामिल किया गया था जिनमें सिर्फ़ हिंदी और संस्कृत के शब्दों का प्रयोग किया गया था। यह नाटक इस विवाद पर भी विराम देता है कि उर्दू ग़ज़ल का संबंध किसी ख़ास धर्म से है।