करीब एक महीने के राजनीतिक हो-हल्ले के बाद दिल्ली नगर निगम के चुनावों के प्रचार का शोर थम गया है। अब चार दिसंबर को वोटिंग और उसके बाद 7 दिसंबर को नतीजे आने के बाद यह शोर फिर जोर पकड़ेगा। फिर से विश्लेषण होंगे कि मुफ्त की राजनीति जनता के दिमाग पर हावी रही या फिर मोदी जी का जादू चल गया। दिल्ली में कूड़े के ढेर के हल्ले को जनता ने प्रमुखता दी या फिर आम आदमी पार्टी पर किए गए भ्रष्टाचार के हमले ज्यादा कारगर साबित हुए।
मगर, चुनाव प्रचार खत्म होने के बाद और वोटिंग से पहले का मूड यह जरूर बताता है कि दिल्ली में इस बार मुकाबला कांटे का होने वाला है। दोनों ही पार्टियों की प्रतिष्ठा दांव पर है और भविष्य की राजनीति पर नगर निगम के चुनाव बड़ा असर डालने वाले हैं। जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो उसे सिर्फ यही गिनती करनी है कि उसका वोट प्रतिशत 4 फीसदी से ऊपर उठा है या नहीं और उठा है तो कितना उठा है।
चुनाव प्रचार के शुरू से ही बीजेपी की यह रणनीति रही कि वह इस चुनाव को नगर निगम के मुद्दों पर नहीं बल्कि केजरीवाल के कामकाज पर कराएगी। दरअसल पिछले 15 सालों से दिल्ली में बीजेपी काबिज है लेकिन पहले छह साल तो शीला दीक्षित के मुख्यमंत्री के कार्यकाल के थे। उस दौरान भी 2012 तक तो नगर निगम एक ही थी। तब नगर निगम को किसी तरह भी फंड का अभाव नहीं था। नगर निगम का भरणपोषण केंद्र सरकार को करना होता था और तब राजनीति की दृष्टि इतनी संकीर्ण नहीं थी कि फंड रोककर किसी सरकार को काम नहीं करने दिया जाए।
2012 में जब नगर निगमों के विभाजन के साथ फंड की जिम्मेदारी दिल्ली सरकार पर आई तो उसके दो साल से भी कम समय में कांग्रेस हारकर दिल्ली के राजनीतिक हाशिये से ही बाहर हो गई। शीला दीक्षित ने नगर निगम के फंड का इंतजाम करने के लिए दिल्ली सरकार में स्थानीय प्रशासन विभाग बनाया था जो आम आदमी पार्टी सरकार के आने के बाद पंगु हो गया। इस तरह पिछले आठ सालो में तो तीन हिस्सों में बंटा नगर निगम सिर्फ आर्थिक संकट से ही जूझता रहा। ऐसे में किसी भी पार्टी के लिए कोई बड़ी उपलब्धि दिखा पाना संभव ही नहीं है।
मगर, यही तो राजनीति है कि अगर आप सत्ता में हैं तो फिर आपको चुनाव में अपनी उपलब्धियों के साथ ही उतरना होगा। केजरीवाल भी लोकसभा की सातों सीटों पर हार गए थे तो उन्होंने विधानसभा चुनावों से पहले जनता के लिए मुफ्त की सुविधाओं का एक पिटारा खोल दिया था जिसमें बसों में महिलाओं की मुफ्त सवारी, दिल्ली जल बोर्ड के पुराने बिल माफ और बुजुर्गों की मुफ्त तीर्थयात्रा शामिल है।
बीजेपी की मुसीबत यह रही कि उसके पास नगर निगम कर्मचारियों के वेतन के लिए ही फंड नहीं था तो वह केजरीवाल के मुकाबले के लिए निगम में मुफ्त योजनाओं जैसा पिटारा कहां से लाती। इसीलिए बीजेपी ने शुरू से ही यह रणनीति बनाई कि केजरीवाल सरकार को ज्यादा से ज्यादा कटघरे में खड़ा किया जाए और जब 4 दिसंबर को मतदाता वोट डालने के लिए जाए तो वह यही सोचे कि यह सरकार तो बेइमान है और इसने कोई वादा पूरा नहीं किया।
यहां तक कि बीजेपी ने फंड न होने की अपनी बेचारगी को भी मुद्दा बनाना उचित नहीं समझा क्योंकि तब आम आदमी पार्टी के इस आरोप का कोई जवाब नहीं होता कि जो फंड दिया गया, वह कहां गया और वह भ्रष्टाचार की नजर चढ़ गया।
बीजेपी ने चलाया आक्रामक अभियान
बीजेपी ने अपने चुनाव प्रचार को जिस आक्रामक तरीके से चलाया, उससे यह माहौल तो बन ही गया कि केजरीवाल सरकार भ्रष्टाचार के कई मामलों में लिप्त है। हालांकि सत्येंद्र जैन के जेल में वीडियो जनता के दिमाग में रजिस्टर हुए हैं या नहीं, यह तो 7 दिसंबर को वोटों की गिनती ही बता पाएगी लेकिन नियमों का खुला उल्लंघन तो जनता की समझ में आ गया है। हां, मनीष सिसोदिया को भ्रष्टाचारी कहने के मामले में बीजेपी को मुंह की जरूर खानी पड़ी है क्योंकि शराब घोटाले में कई गिरफ्तारियों के बावजूद अभी तक सिसोदिया पर जांच एजेंसियां शक की सुई नहीं टिका पाई। इसी वजह से केजरीवाल एंड पार्टी को यह कहने का मौका भी मिल गया कि आखिर जीत तो सच्चाई की ही होती है। फिर भी, बीजेपी के प्रचार का सारा केंद्र केजरीवाल सरकार ही रही।
दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी ने सारा चुनाव ही कूड़े के पहाड़ और दिल्ली की सफाई पर लड़ा है। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि दिल्ली में गंदगी के अंबार लगे हैं और यह समस्या सभी को नजर भी आती है। दिल्ली नगर निगम की बाकी जिम्मेदारियों जैसे प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य, 60 फुट से छोटी सड़कों-गलियों का निर्माण और मरम्मत, पार्किंग, प्रॉपर्टी टैक्स, स्वास्थ्य और व्यापारिक लाइसेंस जैसे विषयों पर आम आदमी पार्टी भी ज्यादा केंद्रित नहीं हुई। शायद इसलिए कि उसे लगता है कि वह सिर्फ सफाई को ही मुद्दा बनाए तो जनता को ज्यादा प्रभावित करेगा।
बीजेपी ने गुजरात के चुनावों के साथ दिल्ली नगर निगम के चुनाव करा लिए तो इसमें भी कुछ हद तक आम आदमी पार्टी को नुकसान हुआ है। अरविंद केजरीवाल दिल्ली में एक भी बड़ी सभा नहीं कर पाए जबकि 2017 के नगर निगम चुनावों में उन्होंने कई जनसभाएं की थीं। जनसभाओं के नाम पर सिर्फ पहाड़गंज में जनता के बीच एक संवाद जरूर किया। आमतौर पर प्रचार के आखिरी दिन बड़े नेता रोड शो से अपनी ताकत का मुजाहिरा करते हैं लेकिन केजरीवाल को आखिरी दिन व्यापारियों के साथ मीटिंग में और योग शिक्षकों को चैक बांटने में बिताना पड़ा।
केजरीवाल की कम उपलब्धता में नगर निगम चुनाव पूरी तरह लोकल होकर रह गए और आम आदमी पार्टी के स्थानीय नेताओं ने ही मोर्चा संभाला। जहां तक स्थानीय नेटवर्क का संबंध है, बीजेपी का संघ परिवार ज्यादा मजबूत नजर आता है।
अब स्थानीय स्तर पर सारा दारोमदार इस बात पर है कि अपने समर्थक वोटरों को कौन ज्यादा निकाल पाता है और मतदान करा पाता है। चुनावों के मुद्दों ने तो टक्कर बराबरी की कर दी है और अब आखिरी प्रबंधन दोनों ही पार्टियों के लिए बहुत अहम बन गया है।
चुनाव मे तीसरी पार्टी के रूप में कांग्रेस भी है लेकिन कांग्रेस इन दिनों जिस दौर से गुजर रही है, वह उसके लिए बहुत ही चिंता की बात है। दिल्ली में पिछले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की झोली में सिर्फ 4 फीसदी वोट आए थे और लगातार दूसरी बार सीट एक भी नहीं थी। कांग्रेस का वोट प्रतिशत अगर इतना ही रहता है तो फिर इसका सीधा लाभ आम आदमी पार्टी को होगा।
कांग्रेस ने शीला वाली दिल्ली का नारा लगाया लेकिन उसका बहुत ज्यादा प्रभाव दिखाई नहीं दिया। फिर भी, कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़ता है तो भाजपा लाभ की स्थिति में रहेगी। इसलिए यह देखना भी दिलचस्प होगा कि कांग्रेस का प्रदर्शन कैसा रहता है। चुनाव प्रचार के लिहाज से तो कांग्रेस के हाथ कुछ ज्यादा आता दिखाई नहीं दे रहा।