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लोगों से किए मुख्यमंत्री के वादे को कोर्ट लागू करा सकते हैं: दिल्ली हाई कोर्ट

लोगों से किए मुख्यमंत्री के वादे को कोर्ट लागू करा सकते हैं: दिल्ली हाई कोर्ट

दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा है कि एक मुख्यमंत्री या एक सरकारी प्राधिकरण द्वारा किया गया एक स्पष्ट वादा या आश्वासन नागरिकों में एक उचित उम्मीद जगाती है कि इसे पूरा किया जाएगा। इसने कहा कि ऐसा वादा अदालतों द्वारा 'स्पष्ट रूप से लागू कराने के योग्य' है।

मुख्यमंत्री, मंत्री या किसी नेता द्वारा वादे करना और फिर उससे मुकर जाने जैसे मामलों पर दिल्ली हाई कोर्ट के एक फ़ैसले का दूरगामी असर हो सकता है। हाई कोर्ट ने कहा है कि एक मुख्यमंत्री या एक सरकारी प्राधिकरण द्वारा किया गया एक स्पष्ट वादा या आश्वासन नागरिकों में एक उचित उम्मीद जगाती है कि इसे पूरा किया जाएगा। इसने कहा कि ऐसा वादा अदालतों द्वारा 'स्पष्ट रूप से लागू कराने के योग्य' है।

दिल्ली हाई कोर्ट दिल्ली सरकार से जुड़े एक मामले में गुरुवार को सुनवाई कर रहा था। दिल्ली सरकार को छह सप्ताह में यह तय करने का निर्देश दिया कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पिछले साल 29 मार्च को किए गए अपने वादे को पूरा करने के लिए कैसे लागू करेंगे। तब कोरोना लॉकडाउन के दौरान केजरीवाल ने वादा किया था कि अगर कोई ग़रीब किरायेदार किराया नहीं दे सकता है तो राज्य सरकार उसका भुगतान करेगी। केजरीवाल के इसी वादे को लागू करने की मांग करते हुए दिहाड़ी मज़दूरों और श्रमिकों ने एक मकान मालिक के साथ एक याचिका दायर की थी। इसी पर कोर्ट सुनवाई कर रहा था। 

दिल्ली हाई कोर्ट की इस टिप्पणी को उस संदर्भ में भी देखा जा सकता है जहाँ चुनावों में उम्मीदवार जीत कर आने पर बड़ी-बड़ी सहूलियतों के दावे करते हैं, लेकिन वे बाद में भूल जाते हैं। नेताओं के अलावा राष्ट्रीय स्तर तक की पार्टियाँ चुनाव से पहले चुनावी घोषणा पत्र जारी करती हैं और उसमें लोगों को दिए जाने वाले लाभों के बारे में गिनवाती हैं। लेकिन जब पाँच साल बीत जाते हैं तो यह कोई बताने वाला नहीं होता है कि आख़िर उन्होंने जो वादे किए थे उनमें से कितने पूरे किए गए। नये चुनाव में नये वादे के साथ फिर वही पार्टियाँ फिर से चुनाव में उतर जाती हैं।

हालाँकि, हाई कोर्ट ने यह भी साफ़ किया कि मुख्यमंत्री द्वारा किया गया वादा चुनावी रैली में किये गये वादे से अलग है। अदालत ने दिल्ली सरकार को इस पर एक नीति बनाने का निर्देश देते हुए कहा कि यह एक चुनावी रैली में किया गया 'राजनीतिक वादा' नहीं था। इसमें कहा गया है कि सत्ता में बैठे लोगों द्वारा दिए गए बयानों पर जनता का भरोसा होता है और इसलिए वाणिज्यिक विज्ञापन की तरह शासन में इस तरह की इजाजत नहीं दी जा सकती है। 

फिर भी दिल्ली हाई कोर्ट का यह फ़ैसला सभी नेताओं के लिए भी संदेश होना चाहिए। यह उसकी उस टिप्पणी में भी इसे देखा जा सकता है जिसमें अदालत ने कहा कि एक बार जब मुख्यमंत्री ने एक गंभीर प्रतिज्ञा ली थी तो दिल्ली सरकार पर वादा लागू करने का कर्तव्य था या नहीं।

मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस प्रतिभा एम सिंह ने कहा, 'सही शासन के लिए सरकार को सीएम द्वारा दिए गए आश्वासन पर निर्णय लेने की आवश्यकता होती है, और उस पर निष्क्रियता उसका जवाब नहीं हो सकता है।' अदालत ने कहा कि यह साफ़ नहीं है कि सरकार ने इसकी पूरी तरह से उपेक्षा क्यों की और उस पर कार्रवाई क्यों नहीं की। 

एकल न्यायाधीश न्यायमूर्ति प्रतिभा एम सिंह की पीठ ने कहा कि 'वादे तोड़े जाने के लिए होते हैं' कहावत समाज में ख़ूब प्रचलित है। लेकिन इसके साथ ही पीठ ने कहा कि क़ानून ने वैध अपेक्षाओं का सिद्धांत विकसित किया है जिसमें यह सुनिश्चित किया जाए कि सरकार, उसके अधिकारियों द्वारा किए गए वादों को तोड़ें नहीं। उन्होंने कहा कि वास्तव में ये कुछ शर्तों के अधीन न्यायिक रूप से लागू करने योग्य हैं।

कोर्ट ने कहा कि यह बयान निचले स्तर पर एक सरकारी अधिकारी द्वारा नहीं दिया गया था, जिसे इस तरह की जानकारी नहीं हो। इसने कहा कि उम्मीद की जाती है कि मुख्यमंत्री को यह जानकारी होगी और उनसे अपने वादे/आश्वासन को पूरा करने के लिए अपने अधिकार का प्रयोग करने की अपेक्षा की जाती है। 

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