क्या दिल्ली की विधानसभा और मुख्यमंत्री की कुर्सी अवैध है?
दिल्ली में जब से अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बने या कहिए कि जब से आम आदमी पार्टी की सरकार आई है, कई सवाल आए दिन लोगों को सुनने को मिलते हैं- दिल्ली विधानसभा को कितने अधिकार मिलने चाहिए? क्या दिल्ली को पूर्ण विधानसभा मिलनी चाहिए? क्या दिल्ली सरकार को कानून बनाने का अधिकार मिलना चाहिए? क्या भूमि, पुलिस और कानून-व्यवस्था के अलावा दिल्ली सरकार के पास सारे अधिकार हैं? इसके साथ ही अब एक सवाल यह भी जुड़ गया है कि क्या दिल्ली में बनाई गई विधानसभा वैध है? जी हां, क्या दिल्ली में अब तक के बने मुख्यमंत्री जिनमें अरविंद केजरीवाल भी शामिल हैं, अवैध तरीके से बनाए गए हैं?
दिल्ली सरकार के अधिकारों को स्पष्ट करने के लिए जुलाई 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया था और केजरीवाल सरकार को दिल्ली का बिग बॉस बता दिया था लेकिन उस फैसले के बाद भी सवाल खत्म नहीं हुए। दिल्ली में अफसरों की ट्रांसफर पोस्टिंग और सर्विस विभाग को लेकर सवाल अभी तक सुप्रीम कोर्ट के सामने है और कोर्ट ने अब इस पर फैसले का अधिकार संवैधानिक बेंच के सौंप दिया है।
इधर, केंद्र सरकार दिल्ली सरकार के अधिकारों को और अधिक स्पष्ट करने का दावा करते हुए फिर से दिल्ली विधानसभा अधिनियम में संशोधन कर चुकी है और दिल्ली सरकार इसके खिलाफ भी अदालत में पहुंच चुकी है। मगर, दिल्ली की सरकारों की वैधता पर ही उठने वाले सवालों को लेकर उलझन और बढ़ गई है।
दिल्ली के उलझन भरे इन सवालों के बीच में संविधान विशेषज्ञ एस.के. शर्मा की अगले कुछ दिनों में प्रकाशित होने वाली एक पुस्तक में जो रहस्योद्घाटन किए जा रहे हैं, उसने दिल्ली सरकार के कानूनी अस्तित्व को लेकर नए सवालों पर भी बहस छिड़ सकती है। उनका कहना है कि संविधान बनाने वाले कभी नहीं चाहते थे कि दिल्ली को विधानसभा जैसी कोई व्यवस्था मिले। इसके लिए बाक़ायदा एक गुप्त मीटिंग भी बुलाई गई थी लेकिन कोई नहीं जानता कि उस गुप्त मीटिंग के मिनट्स कहां हैं।
आखिर उस गुप्त मीटिंग की कार्यवाही को अब तक जनता के सामने क्यों नहीं लाया जा सका? यह जानबूझ कर किया गया है या अनजाने में लेकिन देश की जनता के सामने यह सच्चाई आनी चाहिए कि संविधान बनाने वालों ने दिल्ली को क्या देने का फैसला किया था, और अब जो मिला है, वह उस भावना के अनुरूप है या नहीं। जिस मीटिंग में ये सब फ़ैसले हुए थे, उसे इतना गोपनीय रखा गया था कि आज तक उसके फ़ैसले सार्वजनिक ही नहीं हुए। एस.के. शर्मा का कहना है कि अब तो कोई यह भी नहीं जानता कि उस मीटिंग के मिनट्स कहां हैं। लेकिन यह मीटिंग हुई और उसमें दिल्ली से संबंधित फैसले हुए, इसके कई सबूत मिलते हैं। जिस पुस्तक में ये सारे सवाल उठाए जा रहे हैं, इस पुस्तक का नाम है ‘डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर: आर्बिटर ऑफ दिल्ली डेस्टिनी’ यानी अम्बेडकरः दिल्ली के भाग्य विधाता। नेशनल बुक ऑफ़ ट्रस्ट देश की आज़ादी के 75 वर्ष पूरे होने यानी अमृतोत्सव पर यह पुस्तक प्रकाशित कर रहा है।
दरअसल, यह मीटिंग हुई थी 25 जुलाई 1949 को। यह मीटिंग कहने को तो संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी की मीटिंग थी लेकिन असल में इस मीटिंग में दिल्ली के बारे में फ़ैसला होना था।
दिल्ली के बारे में यह मीटिंग गुप्त इसलिए बुलानी पड़ी थी कि 15 अगस्त 1947 में भारत की आज़ादी से 15 दिन पहले जो मीटिंग हुई थी, उसमें कोई फ़ैसला नहीं हो सका था। 30 जुलाई 1947 को हुई इस संविधान सभा की मीटिंग में दिल्ली पर पहली और आखिरी बार चर्चा हुई थी। उस मीटिंग में संविधान सभा में साफ तौर पर मत विभाजन था। बाबा साहेब आम्बेडकर को पता था कि अगर फिर से संविधान सभा की मीटिंग में चर्चा हुई तो फिर संविधान सभा इस झगड़े में भंग हो सकती है। इसलिए 25 जुलाई 1949 को होने वाली मीटिंग को पूरी तरह गोपनीय रखा गया।
आमतौर पर संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी की मीटिंग संसद के संविधान भवन (जिसे बाद में सेंट्रल हॉल कहा गया) में ही होती थी लेकिन यह मीटिंग सरदार पटेल के घर 1 औरंगजेब रोड पर रखी गई। इस मीटिंग में ड्राफ्टिंग कमेटी के 9 मेंबर्स के अलावा सरदार पटेल और पं. जवाहरलाल नेहरू को भी बुलाया गया ताकि वे दिल्ली के भाग्य का फ़ैसला करने वाली इस मीटिंग में भागीदार रहें। मीटिंग को गुपचुप रखने के लिए शॉर्ट नोटिस पर बुलाया गया ताकि किसी को ज़्यादा सोचने का मौक़ा भी नहीं मिले। इसका कारण यह था कि नेहरू, पटेल, आम्बेडकर, डॉ. राजेंद्र प्रसाद और राजाजी सभी दिल्ली को विधानसभा देने के पक्ष में नहीं थे। मीटिंग की अध्यक्षता आम्बेडकर ने की। उनका मत था कि दिल्ली को राज्य का दर्जा नहीं मिलेगा, विधानसभा नहीं होगी, गवर्नर नहीं होंगे, मुख्यमंत्री या मंत्री नहीं होंगे। सिर्फ़ स्थानीय स्तर पर ही प्रशासन होगा। इस गुप्त मीटिंग में इस फ़ैसले पर मुहर लगा दी गई। आम्बेडकर ने मीटिंग के फ़ैसले संविधान के ड्राफ्ट के साथ सीलबंद लिफाफे में डॉ. राजेंद्र प्रसाद को भेज दिए थे। उसके बाद ये फ़ैसले कहां गए और आज भी मीटिंग के मिनट्स कहां हैं, कोई नहीं जानता।
एस.के. शर्मा ने अपनी पुस्तक में इस गुप्त मीटिंग होने के कई सबूत पेश किए हैं जिनमें आम्बेडकर के साथ संविधान सभा का काम देख रहे उनके अधिकारी एस.एन. मुखर्जी द्वारा इस मीटिंग का नोटिस भी है। इसके अलावा आम्बेडकर की रिपोर्ट का वह हिस्सा भी है जिसमें उन्होंने कहा है कि दिल्ली को विधानसभा नहीं दी जा सकती। इसके अलावा तीसरा सबूत जीता-जागता है और वह हैं डॉ. सुभाष कश्यप। डॉ. कश्यप बरसों तक लोकसभा के महासचिव रहे। वह अब 90 की उम्र पार कर चुके हैं। हालाँकि वह उस मीटिंग में नहीं थे लेकिन उन्हें पता है कि वह मीटिंग हुई थी और उस मीटिंग में क्या हुआ था।
मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि उस मीटिंग के मिनट्स को सार्वजनिक क्यों नहीं किया गया। ऐसा लगता है कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के मतभेदों से वाकिफ थे। अगर उस वक्त मीटिंग की गोपनीयता खत्म हो जाती तो एक बवंडर हो सकता था। इसलिए मीटिंग में फैसला हो गया और उस फैसले पर आजादी के करीब चार दशक तक अमल भी होता रहा। दिल्ली को सिर्फ स्थानीय प्रशासन ही चलाता रहा और उस पर कमान केंद्र की रही। जब नेताओं की वह पीढ़ी रुख्सत हो गई तो किसी को उस फैसले के बारे में पता ही नहीं था। तब कमेटियां बनीं और दिल्ली को विधानसभा का वह झुनझुना भी पकड़ा दिया गया जिसके पास कोई अधिकार नहीं हैं। अगर उस फैसले पर अमल किया जाता तो आज यह आधी-अधूरी विधानसभा भी नहीं होती और न ही कोई मुख्यमंत्री या मंत्री होता।
मगर, देश को यह जानने का हक है कि आखिर 25 जुलाई 1949 को हुई उस मीटिंग में क्या हुआ था। अगर संविधान सभा ने यह तय कर लिया था कि दिल्ली को विधानसभा नहीं दी जा सकती तो क्या 1993 में दी गई विधानसभा अवैध नहीं थी?
यह सच है कि कोई भी सरकार आर्टिकल 368 के तहत संविधान में संशोधन कर सकती है और अब तक सैंकड़ों संशोधन हो भी चुके हैं लेकिन उस गुप्त फैसले पर न कोई मतदान हुआ है और न ही उसमें संशोधन हुआ है। संविधान सभा की उस भावना पर आज तक किसी संसद की राय नहीं ली गई। इसलिए यह ज़रूरी है कि यह पता लगाया जाए कि आख़िर उस मीटिंग में क्या हुआ था।
अगर मोदी सरकार उन मिनट्स को खोज निकालती है तो फिर दिल्ली में विधानसभा हो, कैसी हो, उसे कितने अधिकार हों या फिर विधानसभा न हो-इन सारे सवालों का जवाब मिल सकता है। वैसे, बीजेपी को तो ये मिनट्स अवश्य ही खोजने चाहिए क्योंकि यह उसके लिए फायदेमंद भी हो सकते हैं। उस मीटिंग के फैसले पर दिल्ली विधानसभा ही ख़त्म हो सकती है। दिल्ली को पूरी तरह स्थानीय प्रशासन मिल सकता है। हो सकता है कि इस पर एक बड़ी संवैधानिक बहस भी हो जाए लेकिन दिल्ली के सवालों का हमेशा के लिए जवाब मिल सकता है।