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आज के माहौल में हमें दरगाह क्यों जाना चाहिये?

आज के माहौल में हमें दरगाह क्यों जाना चाहिये?

हिंदू आमतौर पर मसजिदों में नहीं जाते और मुसलमान आमतौर पर मंदिरों में नहीं जाते। लेकिन दोनों जिन जगहों पर जाते हैं उन्हें दरगाह कहते हैं। क्या दरगाह हिंदू-मुसलिम सद्भाव के प्रतीक नहीं हैं?

हिंदू आमतौर पर मसजिदों में नहीं जाते और मुसलमान आमतौर पर मंदिरों में नहीं जाते। लेकिन दोनों जिन जगहों पर जाते हैं उन्हें दरगाह कहते हैं। वास्तव में भारत में दरगाहों में आमतौर पर मुसलमानों की तुलना में अधिक हिंदू जाते हैं। इसीलिए मैं अक्सर दरगाहों पर जाता हूँ, क्योंकि वे सभी समुदायों के लोगों को एकजुट करते हैं।

दरगाह सूफी संतों की कब्रों पर बने समाधि हैं। वहाबियों जैसे कट्टरपंथी लोग दरगाहों को मूर्तिपूजा (बुत परस्ती) मानते हैं, क्योंकि वे कहते हैं कि दरगाहों में कब्रों की पूजा की जाती है, जबकि इसलाम में केवल अल्लाह की पूजा की अनुमति है। इसीलिए सऊदी अरब, जो वहाबियों द्वारा शासित, में किसी भी दरगाह की अनुमति नहीं हैI पाकिस्तान में, जबकि बड़ी संख्या में मुसलमान दरगाहों (जैसे बाबा फ़रीद की दरगाह) में जाते हैं, और कई बार कट्टर उग्रवादी दरगाहों पर बमबारी करते हैं।

यह एक ग़लत धारणा है कि दरगाहों में सूफी संतों की कब्रों की पूजा की जाती है। सूफी संतों ने सभी धर्मों के लोगों के भाईचारे, सहिष्णुता और सभी मनुष्यों के प्रति दया के संदेश को फैलाया था। इसलिए दरगाहों पर जाकर केवल ऐसे सूफी संतों का सम्मान किया जाता है, उनकी पूजा नहीं की जाती है। मैं नास्तिक हूँ और किसी भी चीज़ की पूजा नहीं करता, लेकिन मैं अक्सर दरगाहों (जैसे अजमेर दरगाह, निज़ामुद्दीन चिश्ती दरगाह, आदि) में जाता हूँ उन सूफियों का सम्मान करने लिए जिन्होंने समाज में प्रेम, सहिष्णुता, भाईचारा और करुणा  फैलायीI

मेरी पसंदीदा दरगाह अजमेर में हज़रत मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह है, जिसे मैंने अक्सर देखा है, क्योंकि महान मुग़ल बादशाह अकबर, जिन्होंने सुलह -ए-कुल के सिद्धांत का प्रचार किया था, जिसका मतलब है सभी धर्मों को समान सम्मान देना। 

मैं कई अन्य दरगाहों पर भी जाता हूँ। उदाहरण के लिए दिल्ली में निज़ामुद्दीन औलिया दरगाह, लखनऊ के निकट देवा शरीफ, हरिद्वार के निकट कलियर शरीफ, चेन्नई में सैय्यद हज़रत मूसा शाह कादरी की दरगाह (जो कि मैं अक्सर जाता था जब मैं मद्रास उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश था) आदि।

सूफी संत की वार्षिक पुण्यतिथि, जिसे उर्स कहते हैं, को शोक नहीं, बल्कि एक जश्न के रूप में दरगाहों में मनाया जाता है, क्योंकि यह माना जाता है कि उस दिन संत भगवान में विलीन हो गये थे।

दरगाहों में लंगरों (मुफ्त दावतों) में शाकाहारी भोजन परोसा जाता है, उन हिंदुओं के सम्मान के लिए, जिनमें से कई शाकाहारी हैं।

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कव्वाली आध्यात्मिक संगीत का एक रूप है, जिसे अक्सर दरगाहों में गाया जाता है। फतेहपुर सीकरी में शेख सलीम चिश्ती की दरगाह में (और अन्य दरगाहों में भी) मैंने राम और कृष्ण जैसे हिंदू देवताओं की प्रशंसा में मुसलिम गायकों को कव्वाली संगीत गाते सुना। यह दरगाहों की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति को भी दर्शाता है।

आज के माहौल में, जब कुछ लोग भारतीय समाज को धार्मिक तर्ज पर फूट डालने की कोशिश कर रहे हैं, वहाँ दरगाह हमें राह दिखाती हैं और सभी को एक एकजुट रहने की सीख देती हैं।

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