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दमोह: कोरोना के गंभीर ख़तरे के बीच क्या उपचुनाव ज़रूरी था?

दमोह: कोरोना के गंभीर ख़तरे के बीच क्या उपचुनाव ज़रूरी था?

मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड इलाक़े में दमोह ज़िला है। वहाँ विधानसभा का उपचुनाव हो रहा है। एक विधायक कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गया।

मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड इलाक़े में दमोह ज़िला है। वहाँ विधानसभा का उपचुनाव हो रहा है। एक विधायक कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गया। अब उसकी सीट पर दमोह में उप चुनाव हो रहा है और वही पूर्व विधायक अब बीजेपी से चुनाव लड़ रहा है। इस एक सीट पर निर्वाचन तुरंत होना चाहिए- ऐसी कोई आसमानी आफ़त नहीं आई थी, जिससे राज्य सरकार गिर जाती और न ही कोई लोकतंत्र के लिए आकस्मिक ख़तरा आ पड़ा था। 

माना जा सकता है कि यह चुनाव एक तरह से उस विधायक की ओर से चुनाव आयोग और मतदाताओं पर थोपी गई अनावश्यक प्रक्रिया है। उस विधायक की अंतरात्मा की आवाज़ ने अचानक शोर मचाया और उसने दल-बदल लिया। अब उस विधानसभा क्षेत्र, प्रदेश सरकार और निर्वाचन आयोग की ज़िम्मेदारी बन गई है कि दमोह में लोकतंत्र की रक्षा करे। 

कोरोना के भयावह हालात 

बताना आवश्यक है कि मध्य प्रदेश के सारे ज़िलों में कोरोना भयावह और बेहद खूँखार आकार ले चुका है। एक-एक ज़िला मातम में डूबा हुआ है। पूरे राज्य में लॉकडाउन अंशकालिक अथवा पूर्णकालिक तौर पर चल रहा है। रात का कर्फ्यू लागू है। मौतों का आँकड़ा विकराल है। श्मशान कम पड़ने लगे हैं। अंतिम संस्कार के लिए एक से दो दिन की प्रतीक्षा सूची है। 

अस्पतालों में अब मरीज़ों को भर्ती करना क़रीब-क़रीब बंद सा ही है। सारे कोरोना वार्ड ठसाठस हैं। दवाएँ और इंजेक्शन नदारद हैं। ऑक्सीजन संकट से कमोबेश सभी ज़िलों में हाहाकार है। प्रदेश सरकार का रोज़ जारी होने वाला स्वास्थ्य बुलेटिन इन का सुबूत है। इस बुलेटिन में प्रत्येक ज़िले के कोरोना के ताज़ा आँकड़े होते हैं। 

विडंबना है कि यह बुलेटिन दमोह के बारे में भी ख़तरनाक सूचनाएँ दे रहा है। कैसे माना जाए कि यह ज़िला एकदम कोरोना मुक्त है और चुनाव के लिए फिट है? ज़िले से मिलने वालीं ख़बरें बताती हैं कि ग्रामीण आबादी बहुल इस ज़िले में भी महामारी का संक्रमण फ़ैल चुका है। 

दमोह को लॉकडाउन से छूट क्यों?

अस्पतालों में मरीज़ों के लिए पर्याप्त सुविधाएँ नहीं हैं। भारतीय निर्वाचन आयोग की मासूमियत यह है कि उसने ज़िले को लॉकडाउन से मुक्त कर दिया है। वहाँ धड़ल्ले से चुनावी रैलियाँ हो रही हैं। अधिकतर नेता, प्रत्याशी, राजनीतिक कार्यकर्ता और समर्थक बिना मास्क लगाए घूम रहे हैं। वे सोशल डिस्टेंसिंग का पालन भी नहीं कर रहे हैं। 

ज़िला प्रशासन से हर चुनाव के पहले रिपोर्ट माँगी जाती है कि वहाँ मतदान के लायक परिस्थितियाँ हैं अथवा नहीं। क्या दमोह के अफसर किसी दबाव में थे? क्या वे चुनाव आगे बढ़ाने के बारे में रिपोर्ट नहीं दे सकते थे?

पहले भी टाले गए हैं चुनाव 

प्रसंग के तौर पर याद दिलाना ज़रूरी है कि आपदा की स्थिति में चुनाव पहले भी टाले जाते रहे हैं। जब 1984 में भोपाल गैसकाण्ड हुआ तो उसके बाद भोपाल में लोकसभा क्षेत्र के चुनाव टाल दिए गए थे। उस समय संसदीय लोकतंत्र पर कोई क़हर नहीं टूटा था। तो अब इसे क्या माना जाए। संवैधानिक लोकतंत्र की एक अनिवार्यता या फिर ज़िले में कोरोना को और फैलने देने तथा लोगों को मौत के मुँह में धकेलने का एक षड्यंत्र। 

अनिवार्यता इसे इसीलिए नहीं माना जा सकता कि एक सीट की ऊँगली पर मध्य प्रदेश विधानसभा का कोई गोवर्धन पर्वत नहीं टिका है। इस अपेक्षाकृत पिछड़े ज़िले के मतदाता संभव है कि उतने जागरूक नहीं हों या फिर उन्हें भरोसा हो कि वे जिनकी रैलियों और सभाओं में जा रहे हैं, वे उन्हें कोरोना से बचा लेंगे।

हद की लापरवाही 

अगर एक निर्वाचित विधायक की सनक इस चुनाव का सबब बन सकती है तो समूचे चुनाव का सारा ख़र्च उससे क्यों नहीं वसूला जाना चाहिए। अगर तनिक कठोर रवैया अपनाना हो तो कहा जा सकता है कि चुनाव लड़ रही सियासी पार्टियों, उनके उम्मीदवारों, जिला प्रशासन के अफसरों, निर्वाचन आयोग के अधिकारियों और राज्य सरकार के ख़िलाफ़ लोगों की जान ख़तरे में डालने का आपराधिक मामला क्यों नहीं चलाया जाना चाहिए?

लेकिन बात अकेले दमोह की ही नहीं है। केरल, तमिलनाडु, बंगाल, पुडुचेरी और असम में भी कोरोना का प्रकोप कोई कम गंभीर नहीं है। इन सभी प्रदेशों में इस बीमारी के शिकार पीड़ितों और मरने वालों का आँकड़ा बीते सप्ताह अपने उच्चतम शिखर पर पहुँचा है।

अंतरराष्ट्रीय आपदा की इस घड़ी में हिंदुस्तान की विधानसभाओं के चुनाव अगर छह महीने से एक साल तक आगे बढ़ा दिए जाते तो भी कोई असंवैधानिक क़रार नहीं देता। भारतीय संविधान में इस तरह की व्यवस्थाएँ हैं। 

 - Satya Hindi

इन पाँचों राज्यों में आपात हालात के मद्देनज़र सरकारों का कार्यकाल छह महीने या एक साल तक बढ़ाया जा सकता था। उसके लिए कैबिनेट के प्रस्ताव को संसद की स्वीकृति लेनी थी और राष्ट्रपति को उस पर मुहर लगानी थी। 

स्वतंत्रता के बाद हमने देखा है कि संसद के माध्यम से लोकसभा का कार्यकाल पाँच से बढ़ाकर छह साल भी किया गया है और छह साल से घटाकर पाँच साल की अवधि भी की गई है। यही नहीं, पाँच साल का समय पूरा होने से पहले भी चुनाव करा लिए गए हैं। 

पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में समय से पहले भी चुनाव कराए गए थे। इसी प्रकार विधानसभाओं को समय से पहले बर्ख़ास्त किया गया है और राष्ट्रपति शासन को छह-छह महीने लगाकर कई बार बढ़ाया गया है। 

मध्य प्रदेश में ही सुन्दर लाल पटवा की सरकार को अयोध्या प्रसंग के बाद बर्ख़ास्त करने के बाद राष्ट्रपति शासन लगाया गया था। राष्ट्रपति शासन की अवधि भी कई बार बढ़ाई गई थी। अगर केंद्र सरकार संबंधित राज्यों में चुनी हुई सरकारों को एक साल तक और हुक़ूमत नहीं करने देना चाहती थी तो उनके पाँच साल पूरे होते ही राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता था और हालात सामान्य होते ही नई तारीख़ों का ऐलान चुनाव आयोग कर सकता था। 

कुल मिलाकर सारी बात इस पर आकर टिक जाती है कि संसदीय लोकतंत्र मतदाताओं के लिए मतदाताओं द्वारा बनाई गई व्यवस्था है। अगर मतदाता की जान पर ही बन आए तो लोकतंत्र किसके लिए बचेगा?

लोकमत समाचार में प्रकाशित। 

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