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दलितों-पिछड़ों को मुखौटे के रूप में इस्तेमाल करती है बीजेपी!

दलितों-पिछड़ों को मुखौटे के रूप में इस्तेमाल करती है बीजेपी!

बीजेपी और आरएसएस के लिए यूपी चुनाव ज़्यादा बड़ा मसला है। बीजेपी और संघ यूपी को किसी भी क़ीमत पर नहीं गँवाना चाहते। दक्षिणपंथी राजनीति के लिए यूपी का चुनाव कई लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण होने जा रहा है।

किसान आंदोलन, बढ़ती महंगाई-बेरोज़ग़ारी और कोरोना की तीसरी लहर की आहट के बीच बीजेपी और आरएसएस के लिए यूपी चुनाव ज़्यादा बड़ा मसला है। बीजेपी और संघ यूपी को किसी भी क़ीमत पर नहीं गँवाना चाहते। दक्षिणपंथी राजनीति के लिए यूपी का चुनाव कई लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण होने जा रहा है।

पहली बात तो यह है कि 2022 की यूपी की जीत ही 2024 में दिल्ली की राह सुनिश्चित करेगी। दूसरा, बंगाल चुनाव में मिली बड़ी पराजय के भाव को मिटाने के लिए यूपी को जीतना बीजेपी के लिए बहुत ज़रूरी है। तीसरे स्तर पर यह चुनाव बीजेपी और संघ की विचारधारा के लिए भी अग्नि परीक्षा साबित होगा। संघ इस चुनाव के मार्फत जाँचना चाहेगा कि अभी स्वाधीनता आंदोलन के मूल्य बाक़ी हैं या नहीं। माने, संसदीय लोकतंत्र में जनता के अधिकारों की चिंता किए बगैर उसके हित में कुछ भी डिलीवर किए बिना चुनाव जीता जा सकता है या नहीं? दूसरे शब्दों में लोकतांत्रिक मूल्यों और समावेशी भारत के विचार को हिन्दुत्व और सांप्रदायिकता से परास्त किया जा सकता है या नहीं?

यूपी चुनाव में जाने के लिए राम मंदिर और हिंदुत्व के मुद्दे के अलावा बीजेपी-संघ के पास कुछ भी नहीं है। जबकि इसके बरक्स बहुत कुछ है, जिसका मुक़ाबला बीजेपी-संघ को करना है; पाँच साल की एंटी-इंकम्बेंसी यानी सत्ता विरोधी लहर है, योगी आदित्यनाथ की मठवादी कार्यशैली की नकारात्मक छवि है, कोरोना संकट की कुव्यवस्था और गंगा के किनारे सड़ती लाशें हैं, महंगाई और बेरोज़ग़ारी से पस्त जनता है, रोज़ बढ़ रहे अपराधों से लहूलुहान क़ानून-व्यवस्था है, प्रशासन में एक जाति का बोलबाला है, दलितों और पिछड़ों को सताए जाने का एहसास है, और तो और विधायकों और मंत्रियों की नाराज़गी है। इन हालातों में खासतौर पर संघ चुनाव मैदान में जाने से घबराया हुआ है। इसीलिए संघ युद्ध स्तर पर यूपी चुनाव की तैयारियों में जुट गया है।

नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ के बीच चल रहे तनाव से भी संघ का चिंतित होना स्वाभाविक है। संघ हिंदुत्व के नए चेहरे योगी आदित्यनाथ को नहीं छोड़ना चाहता। इसलिए योगी और मोदी के बीच खिंची तलवारों को संघ विपक्ष पर हमला करवाने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है। यही कारण है कि संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने लखनऊ में डेरा डाल लिया है। यहीं से वे चुनावी रणनीति बनाएंगे और बीजेपी के विभिन्न संगठनों तथा नेताओं के बीच तालमेल बनाने की कोशिश करेंगे।

2022 का यूपी चुनाव 2014, 2017 और 2019 के चुनावों के मुक़ाबले एकदम अलग होगा। 2014 के लोकसभा चुनाव में यूपीए सरकार की नकारात्मक छवि के उलट मोदी की ब्रांडिंग पर सवार बीजेपी को आसान जीत हासिल हुई।

2017 का यूपी चुनाव दूसरे दलों की कमजोरी और आपसी तालमेल की कमी से ज़्यादा नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का चुनाव साबित हुआ। 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी का राष्ट्रवाद और पाकिस्तान विरोध का मुद्दा सपा और बसपा के मज़बूत गठबंधन पर भारी पड़ गया। लेकिन इस समय कोरोना आपदा और बंगाल की पराजय के कारण नरेंद्र मोदी की अजेय और शक्तिशाली छवि को धक्का लगा है। महंगाई, बेरोज़गारी, आर्थिक बदहाली और बढ़ती ग़रीबी-भुखमरी के कारण जनता बेहाल है। इन परिस्थितियों में संघ के नेतृत्व और हिंदुत्व के मुद्दे के अलावा बीजेपी के पास कोई और विकल्प नहीं है। यही कारण है कि बीजेपी संघ के सहारे सोशल इंजीनियरिंग के अपने पुराने नुस्खे पर लौट रही है।

 - Satya Hindi

पहली बात तो यह है कि यह सोशल इंजीनियरिंग नहीं है। इसमें पिछड़ी और दलित जातियों के मुखौटों का इस्तेमाल किया जाता है। इन प्यादों को कुछ पद और प्रलोभन देकर इनकी जाति का वोट हड़प लिया जाता है। इन जातियों की उन्नति के लिए ना नीति होती है और ना नीयत। ऐसे में सवाल उठता है कि इन जातियों की नाराज़गी और उनके दुख दर्द को क्या इन मुखौटों के मार्फत दूर किया जा सकता है? फ़िलहाल बीजेपी संगठन के स्तर पर यही कोशिश कर रही है। संगठन में विभिन्न जातियों के नेताओं को शामिल किया गया है। साढ़े चार साल बाद एससी-एसटी और पिछड़ा वर्ग आयोग में दर्जनों सदस्यों की नियुक्ति के ज़रिए सोशल इंजीनियरिंग का नया खेल रचा जा रहा है।

लोगों की नाराज़गी दूर करने के लिए बीजेपी जातिगत समीकरण दुरुस्त करके अपनी स्थिति को मज़बूत करने की कोशिश कर रही है। योगी राज के खासकर पिछले 2 सालों में ब्राह्मणों की नाराज़गी की बात ख़ूब उछाली गई। इसे दूर करने के लिए कुछ दिन पहले यूपी कांग्रेस का ब्राह्मण चेहरा माने जा रहे जितिन प्रसाद को बीजेपी में शामिल किया गया। संगठन की कार्यकारिणी में शामिल किए गए दो प्रदेश सचिव  में एक अर्चना शर्मा ब्राह्मण हैं। जबकि युवा मोर्चा की कमान प्रांशुदत्त द्विवेदी को सौंपी गई है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण यह है कि 20 सदस्यों वाले मीडिया पैनल में 10 ब्राह्मणों को प्रवक्ता और मीडिया प्रभारी बनाया गया है। जाहिर तौर पर मीडिया में दिखने और बोलने वाले चेहरों के मार्फत ब्राह्मणों के भरोसे को जीतने की यह रणनीति है। 

इसके अलावा ग़ैर यादव पिछड़ों और ग़ैर जाटव दलित जातियों के नेताओं को भी संगठन में जगह दी गई है। योगी सरकार का मुखर विरोध करते रहे कौशल किशोर को अनुसूचित जाति प्रकोष्ठ का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है। जबकि पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ का अध्यक्ष नरेंद्र कश्यप को बनाया गया है। इसके अतिरिक्त महिला प्रकोष्ठ के अध्यक्ष के तौर पर पिछड़ी जाति से आने वाली गीता शाक्य को नियुक्त किया गया है। जबकि दलित समाज के अमित वाल्मीकि को प्रदेश मंत्री की ज़िम्मेदारी दी गई है। अब सवाल यह है कि दलित पिछड़े समाज के इन नेताओं के बलबूते यूपी में बीजेपी क्या चुनावी वैतरिणी पार कर पाएगी? 

योगी आदित्यनाथ की कार्यशैली नितांत मठाधीश वाली रही है। उन्होंने अपने विधायकों और मंत्रियों को कभी तवज्जो नहीं दी। यूपी में एक ही केन्द्र रहा है- ख़ुद मुख्यमंत्री।

डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य की कोई हैसियत नहीं मानी जाती है। इस वजह से भी पिछड़ा वर्ग योगी से नाराज़ है। केशव प्रसाद मौर्य और स्वामी प्रसाद मौर्य ने पिछले दिनों बयान दिए कि यूपी चुनाव सामूहिक नेतृत्व में लड़ा जाएगा और अगले मुख्यमंत्री का फ़ैसला केंद्रीय नेतृत्व करेगा। इस बयान के पीछे मोदी और अमित शाह की शह मानी जा रही थी। इस दरम्यान होसबोले सहित योगी आदित्यनाथ केशव प्रसाद मौर्य के घर गये, उन्हें मनाने।

दूसरा, अखिलेश यादव के आवास को गंगाजल से धुलवाकर प्रवेश करने वाले योगी आदित्यनाथ ने पिछड़ी जाति के मौर्य के घर भोजन भी किया। इसके बाद केशव मौर्य का स्वर भी बदल गया। अब वे भी योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की बात कर रहे हैं। दरअसल, यह असर योगी का नहीं बल्कि होसबोले का है। मौर्य की पृष्ठभूमि विश्व हिन्दू परिषद और आरएसएस की रही है। संघ को ऐसे ही आज्ञाकारी दलित और पिछड़े चाहिए। संघ को बगावती और महत्वाकांक्षी दलित पिछड़े नहीं भाते। संघ और बीजेपी के लिए दलित-पिछड़े सत्ता तक पहुँचाने का माध्यम मात्र हैं।

लेकिन एक सवाल यह भी है कि मौर्य के स्वर बदलने के बावजूद मौर्य, कुशवाहा सहित अन्य पिछड़ी जातियाँ क्या बीजेपी के साथ जाएँगी? क्या थाने में दुत्कारने और गाँव के बाबू साहिबान की प्रताड़ना को भूलकर यह समाज भाजपा को फिर से वोट करेगा? फ़िलहाल ऐसा नहीं लगता। यही कारण है कि पिछड़ी जाति के दूसरे अन्य छोटे दलों को भी बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व फिर से जोड़ने की कवायद में लगा है।

बीजेपी और संघ को लंबे समय से हिंदुत्व की विचारधारा और सांप्रदायिक एजेंडे पर भरोसा रहा है। लेकिन एक तरफ़ पश्चिमी यूपी में किसान आंदोलन के चलते जाट और मुसलमानों के बीच हुए एका से उसके मंसूबों पर पानी फिर गया है। दूसरी तरफ़ राम मंदिर निर्माण ट्रस्ट द्वारा ज़मीन सौदों में हुए खुले भ्रष्टाचार के कारण संघ का यह मुद्दा फ़िलहाल अविश्वसनीय हो गया है। ग़रीब, अनपढ़ दलित-पिछड़े समाज के लोग भी निर्लज्जता के साथ हुए इस बंदरबांट को देख-समझ रहे हैं। उनके लिए राम मंदिर आस्था का विषय है लेकिन इन घोटालों के कारण भी बीजेपी के प्रति उनका विश्वास दरक गया है। राम के नाम पर दिए चंदे पर दिन दहाड़े पड़ने वाले इस डाके से उनकी आस्था भी डगमगा गई है। यानी बीजेपी के लिये आने वाले दिन भारी पड़ने वाले हैं।

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