एक पत्रकार के तौर पर मेरे लिए तारक सिन्हा पहले ‘इंटरनेशनल’ थे जिनसे मैं अपने करियर की शुरुआत में मिला। बात शायद 2002 की शुरुआत की रही होगी जब वह भारतीय महिला क्रिकेट टीम के कोच बनाये गये थे जिसमें मिथाली राज और झूलन गोस्वामी जैसी प्रतिभायें थीं। सिन्हा की कोचिंग में उस टीम ने साउथ अफ्रीका के दौरे पर ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी लेकिन हैरानी की बात है कि उन्हें कभी भी बीसीसीआई ने सहायक कोच के भी लायक नहीं समझा।
टीम इंडिया तो चलिए बहुत ही दूर की बात थी, घरेलू क्रिकेट के इतिहास में सबसे कामयाब कोच को बोर्ड ने न तो अंडर-19, न ही इंडिया ए का कोच बनाया और यहाँ तक कि नेशनल क्रिकेट एकेडमी की ज़िम्मेदारी तक नहीं दी। दरअसल, यह पुरानी बीसीसीआई के अहंकारी स्वभाव का हिस्सा था वरना जिस कोच ने बिना किसी सुविधा के एक नहीं बल्कि दर्जनों अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटर भारत को दिये, उन्हें बोर्ड ने नाकाम होने तक के लिए भी एक मौक़ा नहीं दिया। लेकिन, सिन्हा इन बातों से हमेशा बेफिक्र रहे। उन्हें क्रिकेट से इतना प्यार था कि उन्होंने बस नई-नई प्रतिभा को तलाश करने में अपना पूरा जीवन बिता दिया।
71 साल की उम्र में कैंसर से लड़ते हुए सिन्हा भले ही ज़िंदगी से हार गये हों लेकिन ऋषभ पंत के तौर पर उन्होंने भारतीय क्रिकेट को एक सुपरस्टार दे दिया है।
तारक सर से मेरी अगली मुलाक़ात क़रीब दो साल बाद 2004 में हुई जब मैंने ये सुना कि उन्हीं की एकेडमी से आने वाले शिखर धवन ने अंडर 19 वर्ल्ड कप में सबसे ज़्यादा रन बटोरे थे। मैं उस वक़्त भारत के नंबर 1 चैनल के लिए धवन का इंटरव्यू करने दिल्ली के वेकेंटेश्वर कॉलेज में पहुँचा तो तारक सर ने कान में एक बात कही- “याद रखना विमल जी, ये लड़का बहुत आगे जायेगा।” उन्होंने जान-बूझकर ये बात धवन से दूर होकर कही थी। इसके बाद आने वाले सालों में कोच और धवन के बीच दूरी इतनी बढ़ी कि उन्होंने सोनेट क्लब छोड़ दिया लेकिन चेला अपने असली गुरु की भविष्याणी पर खरा ज़रूर उतरा।
तारक सर के निधन की ख़बर सुनते ही इस लेखक के जेहन में पिछले दो दशक के वो हर दिन अचानक आँखों के सामने तैर गये जब आशीष नेहरा और आकाश चोपड़ा जैसे खिलाड़ियों के साथ बैठकर क्रिकेट की गप्पें सर के साथ हुआ करती थीं। एक उभरते हुए क्रिकेट पत्रकार को खेल की बारीकियाँ सर ठीक वैसे ही समझाने की कोशिश करते जैसा कि वो अपने बल्लेबाज़ों या गेंदबाज़ी की कमियाँ दूर करने के दौरान किया करते थे।
भले ही नेहरा और चोपड़ा उस दौर में टीम इंडिया के लिए नियमित खेला करते थे लेकिन उस्तादजी (उन्हें खिलाड़ी इसी नाम से पुकारते थे) उनके साथ वैसा ही बर्ताव करते जैसा कि किसी भी नये खिलाड़ी के साथ सोनेट में हुआ करता था।
टीम इंडिया के पूर्व ऑलराउंडर मनोज प्रभाकर के बारे में एक मशहूर क़िस्सा है। एक बार किसी विदेशी दौरे से लौटने के बाद प्रभाकर सीधे अपने कोच के पास पहुँचे और एक्शन को लेकर परेशान दिखे क्योंकि हर कोई इसकी आलोचना कर रहा था। कोच ने बहुत शांत तरीक़े से उन्हें समझाते हुए कहा कि आप अनोखे हो। आपको अनोखा आपके ऐक्शन ने ही बनाया है, इसी के चलते आपने टीम इंडिया का सफर तय किया है, आप उसको लेकर क्यों परेशान होते हैं।
कहा जाता है कि प्रभाकर ने उसके बाद से एक्शन को लेकर किसी भी तरह की सलाह और आलोचना के वक़्त अपना कान बंद कर लिया करते थे।
तारक सर को अक्सर उन खिलाड़ियों को तराशने में ज़्यादा मज़ा आता था जिसे शुरुआती दौरे में कोई कोच नकार चुका होता था। वो कम सुविधा के बावजूद बेहतरीन प्रतिभा को निखारने का हुनर जानते थे। जब रणजी ट्रॉफी सर्किट में उन्होंने ज़िम्मेदारी संभालनी शुरू की तो वो दिल्ली को एक बार चैंपियन बनाने में कामयाब हुए लेकिन उन्होंने राजस्थान जैसी कमज़ोर टीम का काया पलटने में हमेशा गर्व महसूस किया।
2010 में जब वो राजस्थान क्रिकेट के डायरेक्टर बने तो हर ज़िले का उन्होंने दौरा किया और नये नये खिलाड़ी चुने और इसका नतीजा ये रहा कि राजस्थान की टीम उस सीजन चैंपियन बनी। इसके बाद जब वो झारखंड के कोच बने तो उन्होंने ईसान किशन को 10000 लड़कों की भीड़ से चुनकर निकाला। रांची में ओपन ट्रॉयल के दौरान जिस तरह से सिन्हा ने किशन की प्रतिभा को पहचाना उसके क़िस्से आज भी झारखंड क्रिकेट में सुनाई देते हैं। घरेलू क्रिकेट में अक्सर फिसड्डी साबित होने वाले झारखंड टीम को प्लेट डिविज़न से नॉक आउट में ले जाने का कमाल महेंद्र सिंह धोनी ने नहीं बल्कि 2012-13 सीज़न में सिन्हा ने किया।
लेकिन, आपको यह सुनकर अजीब लगेगा कि इन तमाम सफलताओं के बावजूद उन्हें लंबे समय तक द्रोणाचार्य अवार्ड के लायक नहीं समझा गया। उन्होंने कभी भी किसी को यह बात नहीं बतायी लेकिन अक्सर ये बात उन्हें कचोटती थी। इसलिए पहली बार जब उन्हें एक बड़ी संस्था ने उनके योगदान के लिए सम्मानित किया तो उनकी आँखें नम हो गयीं। देखिए, SEETALKS के इस वीडियो में-
2016 में उनके शिष्य आकाश चोपड़ा ने ही स्टेज पर उनका इटंरव्यू किया। उस कार्यक्रम के दौरान भारतीय क्रिकेट के उभरते सितारे पंड्या बंधु की मौजूदगी के बावजूद सबसे ज्य़ादा लोगों ने ऑटोग्राफ तारक सर के ही लिये।
ऐसा माना जाता है कि तारक सर को अक्सर अपने करियर में वो जीतें सबसे ज्य़ादा सुखद रहीं जब कमज़ोर से दिखने वाले उनके बच्चों ने अपने से मज़बूत या ज़्यादा बड़े नाम वालों को पिच पर पछाड़ा। उनकी कोचिंग वाली एक बच्चों की टीम ने टाटा स्पोर्ट्स क्लब की टीम को पटखनी दी थी जिसमें पदमाकर शिवालकर और राजू कुलकर्णी जैसे खिलाड़ी थे। यहां तक कि एक बार गुंडप्पा विश्वनाथ वाली ऑल इंडिया स्टेट बैंक वाली टीम को भी उनके क्लब ने हराया था!
कुछ साल पहले की ही बात है जब मैं एक बार तारक सर के साथ टैक्सी में एअरपोर्ट के लिए जा रहा था और अचानक उन्होंने किसी युवा खिलाड़ी को फोन दिया और दिल्ली के सरोजनी नगर के पास किसी रोड के सामने इंतज़ार करने को कहा। जब मैं वहां पहुंचा तो वो खिलाड़ी कोई और नहीं बल्कि पंत थे। तारक सर अपने चेले पंत को शहर छोड़ने से पहले वैसे ही हिदायतें दे रहे थे जैसा कि माता-पिता शहर जाने से पहले अपने बच्चों को देते हैं। पंत के साथ सिन्हा का लगाव अपने बच्चे जैसा ही था। पंत ही नहीं, बाकि सारे बच्चों के साथ भी सिन्हा पिता-तुल्य ही थे क्योंकि उन्होंने शादी नहीं की और हमेशा अपना पूरा जीवन क्रिकेट को ही दे दिया।
ऋषभ पंतफ़ोटो साभार: ट्विटर/ऋषभ पंत
मुझे वैसे निजी तौर पर इस बात का मलाल रहेगा कि कई मौक़े पर तारक सर के साथ बात-चीत होने के बावजूद मैं उनकी आत्म-कथा पर काम शुरू नहीं कर पाया। आलम ये भी रहा कि सत्य हिंदी के संपादक ने भी कुछ साल पहले मेरे ज़रिये उन्हें ये संदेश भिजवाया था कि उनकी दिलचस्पी भी तारक सर की आत्मकथा लिखने में थी। लेकिन, कुछ कारणों या फिर सच कहूँ तो आलस्य के चलते ऐसा नहीं हो पाया। कुछ साल पहले एक और पूर्व सहयोगी ने उनके साथ एक नेटफ्लिक्स के लिए डॉक्यूमेंट्री करने की चर्चा उनके क्लब में जाकर मेरे साथ की और सब कुछ तय भी हो गया था लेकिन नियति को शायद कुछ और ही मंजूर था क्योंकि दो साल तक पूरी दुनिया कोरोना से जूझती रही और उसके बाद जब जीवन सामान्य होती दिख रही थी तो तारक सर ने अपनी पारी घोषित कर दी।