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पांच राज्यों में करारी हार, क्या ग़लतियों से कुछ सीखेगा कांग्रेस नेतृत्व?

पांच राज्यों में करारी हार, क्या ग़लतियों से कुछ सीखेगा कांग्रेस नेतृत्व?

पांच राज्यों में बेहद ख़राब प्रदर्शन के बाद निश्चित रूप से कांग्रेस की हालत और कमजोर होगी। लेकिन क्या वह इन नतीजों से कुछ सबक सीखेगी?

पांच राज्यों के चुनाव नतीजे सबसे ज्यादा कांग्रेस को प्रभावित करने वाले हैं। 2019 लोकसभा चुनाव के बाद यह कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी हार है। तब राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था और कांग्रेस अब तक उस सदमे से उबर नहीं पायी है। इस बार यूपी में प्रियंका गांधी की साख को गहरा धक्का लगा है और उनकी छवि राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावित होगी। 

कांग्रेस क्या इस सदमे को झेल पाएगी? और, अब इन दोनों सदमों का असर क्या होगा? क्या राष्ट्रीय स्तर पर खुद को बीजेपी का स्वाभाविक विकल्प मानती रही कांग्रेस का यह ओहदा भी ख़तरे में नहीं आ गया है?

क्यों कांग्रेस के लिए यह 2019 के बाद सबसे बड़ा धक्का है- इस पर गौर करें। पंजाब और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के प्रदर्शन ने कांग्रेस समर्थकों का दिल बैठा दिया है। 

पंजाब में 77 सीटों वाली कांग्रेस के पास अब 20 सीटें भी नहीं रहीं। पंजाब में मुख्यमंत्री का चेहरा चरणजीत सिंह चन्नी दोनों सीटों से चुनाव हार गये। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू आम आदमी पार्टी से हार गये। 

यूपी में कांग्रेस पिछले चुनाव में 6.25 फीसदी वोटों के मुकाबले 2.4 फीसदी वोट ही पा सकी। यानी वोट ढाई गुने से भी कम हो गए। बीते चुनाव में कांग्रेस ने 7 सीटें जीती थीं, इस बार यह 2 रह गयीं। 

जाहिर है इन नतीजों ने प्रियंका गांधी की साख को अनन्त नुकसान पहुंचाया है जिसका आकलन कर पाना मुश्किल होगा। निश्चित रूप से यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या प्रियंका गांधी इन निराशाजनक चुनावी नतीजों के बाद कमजोर होंगी?

हालांकि प्रियंका गांधी ने यूपी में पूरी मेहनत की और संगठन को खड़ा भी किया है। फिर भी परिणाम नहीं मिल सका। मेहनत का पूरा फायदा दो ध्रुवीय हो चुके चुनाव में समाजवादी पार्टी को मिला। यह बहुत कुछ ऐसा है जैसे अन्ना आंदोलन के बाद आम आदमी पार्टी ने जहां देशभर में अपने प्रत्याशियों की ज़मानतें ज़ब्त कराने का रिकॉर्ड बनाया था लेकिन उसका फायदा बीजेपी को हुआ। 

मगर, इस विश्लेषण मात्र से प्रियंका गांधी को कोई मदद नहीं मिलेगी। सवाल यही है कि आगे वह क्या करें?

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कांग्रेस की जगह लेने को बेताब ‘आप’

उत्तराखंड में चुनाव जीतने की उम्मीद कर रही कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान चुनाव में अघोषित चेहरा हरीश रावत भी चुनाव हार गये। कांटे का मुकाबला और सरकार बनाने की तैयारी तक के बीच परिणाम ऐसे आए कि कांग्रेस बीजेपी की आधी भी नहीं रह गयी। गोवा में भी चुनाव नतीजे उत्तराखंड जैसे ही रहे। सरकार बनाने का अवसर नहीं मिला। 

बीजेपी के मुकाबले सीटों का अंतर बड़ा हो गया। मणिपुर की बात ही न की जाए क्योंकि जब उन प्रदेशों में निराशा हाथ लग रही हो जहां उम्मीदें थीं तो मणिपुर में निराशाजनक परिणाम से कोई आश्चर्य नहीं होता। 

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बीजेपी से मुकाबले में कांग्रेस का हारना देश की सियासत का स्वभाव बन चुका है। मगर, आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस से दिल्ली छीन लेने के 10 साल के भीतर पंजाब छीन कर यह जता दिया है कि कांग्रेस के लिए अस्तित्व का संकट या यूं कहें कि राजनीति में खुद को बचाए या बनाए रखने का संकट बड़ा हो चुका है। 

आम आदमी पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने जीत के बाद देश में ऐसे बदलाव की इच्छा रखी है कि युवाओं को पढ़ने के लिए यूक्रेन ना जाना पड़े। जाहिर है केजरीवाल अब देश बदलने की बात करने लगे हैं तो यह भाषा बीजेपी का विकल्प बनने की ही है। 

यूपी में दरकिनार हो चुकी कांग्रेस क्या अब राष्ट्रीय स्तर पर भी किसी गैर बीजेपी दल के हाथों दरकिनार कर दी जाएगी?- इस चिंता को महसूस करना कांग्रेस के लिए आवश्यक हो गया है।

राष्ट्रीय स्तर पर वैकल्पिक गठबंधन का केंद्र बनने के लिए पांच राज्यों के चुनाव में कांग्रेस का अच्छा प्रदर्शन करना जरूरी था। स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए यह आवश्यक हो चुका था। खासकर इसलिए कि ममता बनर्जी या केसीआर जो कोशिशें कर रहे हैं उनमें कांग्रेस को किनारे रखने की प्रवृत्ति अधिक नज़र आयी है। 

अब ऐसी प्रवृत्ति तेज होंगी और कांग्रेस के मोल-तोल करने की क्षमता में भारी गिरावट आएगी।

कांग्रेस के लिए अकेला चलना और भी ख़तरनाक होगा। इससे ऐसा संदेश जाएगा कि कांग्रेस विकल्प बनना ही नहीं चाहती। ऐसे में दूसरे दलों को जोड़ने की पहल गैर कांग्रेसी दल अपने हाथ में ले सकते हैं। ऐसा करते हुए अरविंद केजरीवाल, केसीआर, ममता बनर्जी, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, अखिलेश यादव या कोई और नेता दिख सकते हैं। 

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जी-23 अब और आंख दिखाएगा

कांग्रेस आलाकमान के लिए अब जी-23 को झेलना और मुश्किल हो जाएगा। चन्नी, सिद्धू, रावत की हार वास्तव में आलाकमान की हार के तौर पर देखे जाने वाले दृष्टांत हो गये हैं। इसका फायदा वे जरूर उठाएंगे। आलाकमान के खिलाफ बयानबाजी का सिलसिला बहुत जल्द देखने को मिल सकता है। ऐसे में संगठन को लोकतांत्रिक बनाने की लंबित कोशिशों को अंजाम तक पहुंचाना प्राथमिकता होनी चाहिए। मगर, इतने मात्र से भी पांच राज्यों में हार की भरपाई हो जाएगी, ऐसा नहीं लगता।

कांग्रेस के कार्यकर्ता लगातार यह महसूस कर रहे हैं कि उन्हें चुनाव के दौरान अकेले राहुल गांधी या प्रियंका गांधी पर निर्भर रहना पड़ता है। बाकी स्टार प्रचारक सही मायने में स्टार प्रचारक नहीं रह गये हैं। अकेले राहुल या प्रियंका न तो संगठन का समन्वय कर सकते हैं और न ही वे प्रेरणा बन सकते हैं। नेताओं का एक समूह तैयार करना प्राथमिकता होनी चाहिए जो अपने कार्यकर्ताओं के साथ लगातार संपर्क में रहे। 

कब समझेगा कांग्रेस नेतृत्व?

पार्टी में नेताओं की एक बेंच स्ट्रेंथ दिखनी चाहिए जो पार्टी को संकट की घड़ी में निकाल सके या फिर बीजेपी के नैरेटिव का जवाब दे सके। इन सबके लिए जरूरी हो चुका है पार्टी में संगठनात्मक चुनाव।

संगठनात्मक चुनाव के बगैर राजनीतिक कार्यक्रम नहीं किए जा पा रहे हैं। इसके बगैर कोई संगठन आगे नहीं बढ़ सकता। सवाल यह है कि इस जरूरत को कांग्रेस नेतृत्व कब समझेगा?

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