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यूपी: कांग्रेस ने क्यों थामा मौलाना तौक़ीर रज़ा का हाथ?

यूपी: कांग्रेस ने क्यों थामा मौलाना तौक़ीर रज़ा का हाथ?

विवादों में रहे मौलाना तौकीर रज़ा की इत्तेहद-ए-मिल्लत काउंसिल के साथ कांग्रेस ने गठबंधन आख़िर क्या सोचकर किया है? क्या इससे कांग्रेस को कुछ भी फायदा होगा?

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की सरगर्मियों के बीच कांग्रेस और इत्तेहद-ए-मिल्लत काउंसिल के गठबंधन की चौंकाने वाली ख़बर आई है। सोमवार को लखनऊ में इस गठबंधन का ऐलान हुआ। काउंसिल के अध्यक्ष मौलाना तौकीर रज़ा ने कांग्रेस का हाथ थामते ही अखिलेश पर ज़ोरदार हमला बोला। उन्होंने समाजवादी पार्टी को मुसलमानों का बीजेपी से भी बड़ा दुश्मन बताया। मौलाना ने आरोप लगाया कि अखिलेश के पांच साल के शासन के दौरान 176 मुसलिम विरोधी दंगे हुए और इनके दोषियों को सजा नहीं मिली।

ख़बर है कि मौलाना रज़ा पहले समाजवादी पार्टी से गठबंधन करना चाहते थे। इसे लेकर उनकी अखिलेश से कई बार मुलाक़ात भी हुई। लेकिन उनकी दाल नहीं गली तो उन्होंने कांग्रेस का दामन थाम लिया। उन्होंने बताया कि अखिलेश से कई दौर की बातचीत के दौरान उन्होंने जानना चाहा कि प्रदेश में दोबारा उनकी सरकार बनी तो वह मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा रोकने के लिए क्या क़दम उठाएंगे? लेकिन अखिलेश ने किसी भी तरह का भरोसा नहीं दिया। इसीलिए वह कांग्रेस से गठबंधन कर रहे हैं।

दरअसल, हर चुनाव में किसी न किसी पार्टी से गठबंधन करना मौलाना की मज़बूरी होती है। चुनाव में उन्हें किसी न किसी बड़ी पार्टी के सहारे की ज़रूरत होती है। लिहाज़ा उन्हें तो गठबंधन करना ही था। लेकिन सवाल यह पदा होता है कि आख़िर कांग्रेस के सामने ऐसी क्या मजबूरी थी कि उसने बग़ैर जनाधार वाली पार्टी से गठबंधन कर लिया।

हालाँकि अभी यह साफ़ नहीं है कि कांग्रेस मौलाना की पार्टी के लिए कितनी सीटें छोड़ेगी? यह भी साफ़ नहीं है कि क्या मौलाना कांग्रेस के मंच से प्रियंका गांधी के साथ कांग्रेस के लिए प्रचार करेंगे या नहीं? अगर मौलाना प्रियंका गांधी के साथ मंच साझा करके कांग्रेस के लिए वोट मांगेंगे तो क्या उनके कहने पर उत्तर प्रदेश के मुसलमान कांग्रेस को वोट देंगे? ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि इससे पहले जिन पार्टियों के साथ मौलाना तौक़ीर रज़ा ने गठबंधन किया उन्हें तो मौलाना के कहने पर मुसलमानों ने वोट नहीं दिया। तो यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि उनके कहने पर प्रदेश के मुसलमान कांग्रेस की झोली में अपना वोट डाल देंगे? कहीं कांग्रेस मौलाना से गठबंधन करके वही ग़लती तो नहीं कर रही जो उसने असम में मौलाना बदरुद्दीन अजमल की पार्टी पीडीएफ़ से गठबंधन करके की थी।

मौलाना तौक़ीर रज़ा के साथ हुए कांग्रेस के गठबंधन पर सवाल इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि 2009 के लोकसभा चुनावों से पहले इन्हीं की वजह से कांग्रेस की काफी फजीहत हुई थी। तब मौलाना ने 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को समर्थन देने का ऐलान किया था और बदले में कांग्रेस ने उन्हें भरोसा दिया था कि 2012 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी के साथ गठबंधन किया जाएगा। लेकिन मौलाना के एक पुराने विवादित बयान के चलते सारा खेल बिगड़ गया था। उस समय उत्तर प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष रीता बहुगुणा थीं और दिग्विजय सिंह उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी महासचिव थे। मीडिया के सवालों से घिरने पर इन सबको प्रेस कांफ्रेंस बीच में ही छोड़ कर भागना पड़ा था। 

अभी हाल ही में मौलाना ने हरिद्वार और रायपुर में हुई साधु संतों की धर्म संसद के जवाब में बरेली में मुसलिम धर्मगुरुओं की जवाबी धर्मसंसद बुलाई थी। इसमें भी मौलाना ने आपत्तिजनक बयान दिया था।

फ़रवरी 2009 में गठबंधन के ऐलान के लिए दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय 24 अकबर रोड पर हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान यह सवाल उठा था- कांग्रेस उस मौलाना की पार्टी से क्यों गठबंधन कर रही है जिसने 2006 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की गर्दन काटने वाले को 25 करोड़ रुपए इनाम देने का ऐलान किया था। जबकि कांग्रेस मुसलमानों  के हाथ काटने की बात करने वाले बीजेपी के उम्मीदवार वरुण गांधी की गिरफ्तारी की मांग को लेकर चुनाव आयोग का दरवाज़ा खटखटा रही थी। इस सवाल पर हंगामा मच गया था। हंगामे के बीच मौलाना के साथ रीता बहुगुणा और दिग्विजय सिंह को भी प्रेस कॉन्फ्रेंस छोड़कर भागना पड़ा था। बाद में सोनिया गांधी ने दिग्विजय सिंह को बुलाकर कड़ी फटकार लगाई थी। तब सोनिया ने दिग्विजय सिंह को हिदायत दी थी कि पार्टी में लोगों को शामिल कराने से पहले या उनके साथ गठबंधन करने से पहले उनके बारे में अच्छी तरह जांच पड़ताल कर लिया करें। 

सवाल यह है कि 2009 में तब के प्रभारी महासचिव दिग्विजय सिंह को दी गई सोनिया गांधी हिदायत मौजूदा प्रभारी महासचिव प्रियंका गांधी के लिए भी लागू होती या नहीं? जिस ग़लती पर दिग्विजय सिंह को सोनिया गांधी की फटकार पड़ी थी क्या उसी ग़लती को लेकर प्रियंका गांधी को भी फटकार नहीं पड़नी चाहिए? मौलाना तौक़ीर रज़ा के साथ गठबंधन का ऐलान प्रियंका गांधी से उनकी मुलाकात के बाद ही हुआ है।

 - Satya Hindi

ग़ौरतलब है कि हाल ही में मौलाना तौक़ीर रज़ा ने हरिद्वार और रायपुर में हुई साधु संतों की संसद धर्म संसद के जवाब में बरेली के इस्लामिया इंटर कॉलेज में मुसलिम धर्मगुरुओं की धर्म संसद बुलाई थी। इसमें उन्होंने भी काफ़ी भड़काऊ बयानबाज़ी की थी। सवाल उठता है कि जब कांग्रेस मुसलमानों के नरसंहार करने की साधु संतों की गिरफ्तारी की मांग कर रही है तो फिर मुसलििम धर्म गुरुओं की जवाबी धर्म संसद आयोजित करके मुसलमानों को भड़काने वाले मौलाना तौकीर रज़ा के साथ चुनावी गठबंधन क्यों कर रही है?

चुनावी राजनीति के लिहाज़ से भी देखें तो मौलाना तौक़ीर रज़ा की इत्तेहाद-ए-मिल्लत काउंसिल के साथ गठबंधन करके कांग्रेस को कुछ ख़ास हासिल होने वाला नहीं है। मौलाना तौकीर रज़ा खुद को देश भर में बरेलवी मसलक के मुसलमानों का एक छत्र नेता होने का दावा ज़रूर करते हैं लेकिन हकीकत यह है कि बरेली से बाहर उनकी और उनकी पार्टी की कोई ख़ास पहचान नहीं है। काउंसिल का कहीं कोई ठोस वोट बैंक नहीं है। पिछले विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी इत्तेहाद-ए-मिल्लत काउंसिल ने 13 सीटों पर चुनाव लड़ा था। उनकी पार्टी को सिर्फ़ 49,860 वोट मिले थे। यानी पूरे 50,000 वोट भी नहीं मिले। 12 सीटों पर उनके उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हुई थी। कुछ सीटों पर उनके उम्मीदवार पांच हज़ार से ज़्यादा वोट पा गए थे लेकिन ज़्यादातर सीटों पर हज़ार वोट भी नहीं मिल पाए थे।

2012 के चुनाव में मौलाना की पार्टी ने 18 सीटों पर चुनाव लड़ा था। तब उनके 16 उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हुई थी। उसे सिर्फ़ एक सीट मिली थी और उसे 1,90,052 वोट मिले थे।

बरेली ज़िले की भोजीपुरा सीट पर उनके उम्मीदवार शाज़िल अंसारी जीते थे। दरअसल शाज़िल अंसारी बीएसपी से बरेली के कई बार विधायक रहे इसलाम साबिर अंसारी के बेटे हैं। तब उन्हें सपा और बसपा से टिकट नहीं मिल पाया था तो वो मौलाना की पार्टी से चुनाव लड़े। मौलाना तब पीस पार्टी के साथ गठबंधन में शामिल थे। इस सीट पर पीस पार्टी का उम्मीदवार नहीं था। पीस पार्टी ने शाज़िल अंसारी को समर्थन दिया था। शाज़िल अंसारी मौलाना की पार्टी के जनाधार से कहीं ज़्यादा अपने पारिवारिक रसूख़ और अंसारी बिरादरी के वोटों के बलबूते चुनाव जीते थे।

पिछले साल हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने असम में मौलाना बदरुद्दीन अजमल की यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के साथ तालमेल किया था। इसके बावजूद वो चुनाव हार गई। तब इस गठबंधन को लेकर कांग्रेस के भीतर ही गंभीर सवाल उठे थे। आनंद शर्मा समेत कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं ने खुलेआम सवाल उठाया था कि धर्मनिरपेक्ष मूल्यों में यक़ीन करने वाली कांग्रेस ऐसी पार्टी से कैसे चुनावी गठबंधन कर सकती है जो धर्म विशेष को एकजुट करने की राजनीति करती है। इसे लेकर कांग्रेस की काफी फजीहत हुई थी। 

अहम सवाल यह भी है कि अगर कांग्रेस को किसी मुसलिम नेतृत्व वाली पार्टी से गठबंधन करना ही था तो उसने इसके लिए पीस पार्टी या असदुद्दीन ओवसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन को क्यों नहीं चुना। इन दोनों पार्टियों के अध्यक्ष पूरी तरह राजनीतिक हैं। पिछले चुनाव में मौलाना तौक़ीर रज़ा की पार्टी के मुकाबले इन पार्टियों का प्रदर्शन कहीं ज्यादा अच्छा रहा था। पिछले चुनाव में जहां पीस पार्टी ने 68 सीटें लड़कर 2,27,998 वोट हासिल किए। ये वोटों का 0.26% था। वहीं असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन को 2,04,142  वोट मिले थे। ये कुल वोटों का 0.23% प्रतिशत थे। आंकड़ों के हिसाब से ये दोनों पार्टियां उत्तर प्रदेश में मौलाना तौक़ीर रज़ा की इत्तेहाद-ए-मिल्लत काउंसिल के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा जनाधार रखती हैं। ऐसे में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि आख़िर इन पार्टियों को छोड़कर कांग्रेस ने मौलाना का हाथ क्यो थामा है?

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