आख़िर, कांग्रेस में क्यों शामिल हो रहे हैं वामपंथी?
पिछले महीने जब मेरे संपादक रह चुके आशुतोष जी ने कांग्रेस में जाने की वजह पर लिखने का आग्रह किया तो मैं उलझन में पड़ गया। मेरे जैसे आम आदमी के कहीं जाने या न जाने से क्या फ़र्क पड़ता है कि लेख लिखा जाए! हाँ, एक सक्रिय पत्रकार के रूप में किसी पार्टी के साथ जाने की कोई सफ़ाई ज़रूर हो सकती थी, लेकिन इसमें आत्मप्रशंसा का ख़तरा था, लिहाज़ा लिखना न हो सका। लेकिन कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवानी के कांग्रेस ज्वाइन करने के बाद जिस तरह से सोशल मीडिया पर यूँ बौद्धिक कही जाने वाली जमात ट्रोल में बदलते दिख रही है, उसके बाद इस विषय पर लिखना ज़रूरी लग रहा है।
चूँकि मैं ख़ुद वामपंथी पृष्ठभूमि से कांग्रेस में आया, इसलिए कन्हैया जैसे मित्रों का अंतर्द्वंद्व समझ सकता हूँ। बहरहाल, पहले यह कि एक पत्रकार होने के बावजूद कांग्रेस के साथ सक्रिय होने के फ़ैसले का आधार क्या है? क्या यह पत्रकारिता के साथ दग़ा है?
शुरुआत
कहानी बड़ी लंबी है। उपन्यास बन सकता है। लेकिन मुख्तसर में इतना है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पीएच.डी की थी। नेट और जेआरएफ-एसआरएफ़ सब था, पर शिक्षक बनने के बजाय पत्रकारिता में जाना तय किया क्योंकि खुलकर बोलते रहने का अधिकार छोड़ना नहीं चाहता था। परिसर के एक बेहद सक्रिय छात्रनेता बतौर इसकी लत जो लग चुकी थी। शुरुआत अमर उजाला कानपुर से की, फिर सदी की शुरुआत के साथ लखनऊ आ गया। 2002 के आख़िर में स्टार न्यूज़ हिंदी में लाने की तैयारी हो रही थी और संयोग से मैं भी इसका हिस्सा बन गया। ये एक नई उड़ान थी। लगा कि फिर यूनिवर्सिटी रोड पर पहुँच गया हूँ और चैनल के माइक पर भाषण दे रहा हूँ। न्याय और शोषण का विरोध- संकल्प मेरी पत्रकारिता के बुनियादी मानक थे। जो भी स्टोरी करता था, यही प्रस्थान बिंदु होते थे। नाम-दाम सब मिला। भाषण देने का कौशल यहाँ काम आ रहा था। स्पेशल स्टोरी और ट्रैवलॉग के लिए चैनल के संपादकों का चहेता बन गया। पूरा देश घुमाया जाने लगा। जल्दी ही स्टार न्यूज़ का यूपी ब्यूरो प्रभारी हो गया। लगा कि आकाश में उड़ रहा हूँ।
झुलसना
अपनी उड़ान का आनंद लेने के दौरान ये भूल गया था कि अरबों लगाकर तैयार किया जा रहा न्यूज़ चैनलों का तामझाम न्याय या शोषण के प्रतिकार के लिए नहीं है। यह पूँजी का खेल है जिसे अंतत: सत्ता को अपने अनुकूल रखने के लिए रचा जा रहा है। चैनलों की कमाई का रिश्ता सीधे टीआरपी से जोड़ दिया गया। नतीजा ये हुआ कि संपादकों की आत्मा में साँप और नेवले की लड़ाई की हाँक लगाकर मंजन बेचने वाला मदारी घुस गया। चैनल अंधविश्वास के प्रसारक बन गये। धर्मभीरू और भाग्यवादी जनसमूह के बीच ये प्रोडक्ट सबसे ज़्यादा बिकाऊ था। मन में ये सवाल उठने लगा कि क्या मुझे भी ऐसी ख़बरें करनी होंगी। नहीं करूँगा!- एक संकल्प लिया और जल्द ही चुनौती सामने खड़ी हो गयी। असाइन्मेंट ने मैनपुरी जाने को कहा जहाँ उसके हिसाब से दिवंगत माधवराव सिंधिया का भूत दिखता है। चौपाल लगानी थी ग्रामीणों के साथ उनके क्रैश हुए हेलीक़ॉप्टर के मलबे के साथ। नौकरी की ज़रूरत थी लेकिन यह आत्महत्या जैसा लग रहा था। खड़े-खड़े इस्तीफ़ा भेज दिया यह कहते हुए कि ऐसी ख़बरें करना अपनी पीएचडी की डिग्री का अपमान समझता हूँ। इस्तीफ़ा स्वीकार नहीं हुआ, पर एक रिपोर्टर की इतनी हिम्मत कि सवाल उठाये? असाइन्मेंट ने काम लेना बंद कर दिया। संपादक शाज़ी ज़माँ के सारे स्नेह के बावजूद, स्पेशल एसाइन्मेंट देने के बावजूद, अपमान और खिन्नता का भाव बढ़ता जा रहा था। इसी बीच दिल्ली में समय चैनल शुरू हो रहा था। मौका मिला, दिल्ली चला आया।
‘समय’ सहारा ग्रुप का चैनल था। संपादक पुण्य प्रसून बाजपेयी थे। शुरुआत में ख़ूब पत्रकारिता की पर छह महीने में ही बात बिगड़ गयी। पूरी टीम ने इस्तीफ़ा दे दिया। अगला ठिकाना आईबीएन7 था। ‘स्वर्ग की सीढ़ी’ वहाँ भी बनाई जा रही थी तो रिपोर्टिंग की कोई बात न करके डेस्क पर बैठकर स्क्रिप्ट जाँचने लगा। इस तरह एक बेहद मुखर पत्रकारीय जीवन का अंत हुआ। हाँ, बीच-बीच में स्पेशल स्टोरी करने का मौक़ा मिल जाता था। इतना काफ़ी था।
इस बीच समाज पर चैनलों की भूमिका का असर दिखने लगा था। चैनलों ने अंधविश्वास और तर्कहीनता फैलाने का जो दौर शुरू किया था उसने आम आदमी को ज्ञान-विज्ञान से दूर कर दिया। इसका लाभ वही संगठन ले सकता था जो तर्क को संस्कृति विरोधी मानता हो। हुआ वही, विचार की दुनिया में आरएसएस की सूखी बेलों पर हरे पत्ते आने लगे। बज़रिये अन्ना आंदोलन देश भर में एक माहौल बनाया गया और 2014 में मोदी के नेतृत्व में बीजेपी सत्ता में आ गयी। पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ बनी आरएसएस की सरकार ने कोई ग़लती नहीं की और ज्ञान-विज्ञान के परिसरों के ख़िलाफ़ खुला युद्ध छेड़ दिया। तब तक ज़्यादातर चैनलों में बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों का पैसा लग चुका था। नये दौर में उन्हें संपादकीय शक्ति अपने पास रखना ज़रूरी थी। आईबीएन7 मुकेश अंबानी के नियंत्रण में चला गया और संपादकीय नीति बीजेपी और मोदी की ढोलक बन गयी। जनवरी 2015 में मैं चैनल से बरख़ास्त कर दिया गया। बिना किसी आरोप या प्रक्रिया के।
इसके बाद कई कोशिशें कीं। लेकिन स्पष्ट हो गया कि मोदी राज में आज़ाद पत्रकारिता असंभव है। जिन भी चैनलों में गया या तो निकाल दिया गया या चैनल ही बंद करा दिये गये।
वजह सिर्फ़ यह थी कि न्याय, शोषण का विरोध और सरकार की आँख में आँख डाल कर सवाल पूछने को लेकर लिया गया संकल्प छोड़ा नहीं। ये भारतीय संविधान के संकल्प हैं, लेकिन मोदी राज में बन रहा ‘नया भारत’ इसी संकल्प को नष्ट करने में जुटा है।
पत्रकार और राजनीति
पत्रकार का काम सत्ता से सवाल पूछना है, लेकिन अगर कोई सत्ता ऐसा करना असंभव बना दे तो फिर पत्रकार क्या करे? ये सवाल लगातार मन को मथ रहा था। स्वस्थ पत्रकारिता एक स्वस्थ लोकतंत्र में ही संभव है और अगर लोकतंत्र ही किसी तानाशाह की सनक का शिकार हो जाये तो? इतिहास का विद्यार्थी होने के नाते ये अहसास भी गहराने लगा कि हालात आज़ादी के पहले जैसे हैं। यानी एक नये स्वतंत्रता संघर्ष की आवश्यकता है। सवाल उठा कि आज़ादी की लड़ाई के दौरान पत्रकार क्या कर रहे थे? इस सवाल के जवाब में गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम ज़हन में चमका जो कानपुर से निकलने वाले ‘दैनिक प्रताप’ के संपादक थे। समर्पित गाँधीवादी थे पर क्रांतिकारियों के भी मददगार थे। जिनके पास शहीदे आज़म भगत सिंह छिपकर रहते थे। जो 1930 के नमक आंदोलन के दौरान संयुक्त प्रांत में कांग्रेस के डिक्टेटर (अध्यक्ष) थे। जो हिंदू-मुसलिम एकता के प्रबल समर्थक थे और दंगा रोकने के प्रयास में ही शहीद हुए थे। समझ आया कि जब बात मुल्क की आज़ादी की हो तो पत्रकार भी लड़ाई का हिस्सा होता है न कि एक टाइपिस्ट की तरह घटनाओं को दर्ज करता है। वैसे, आजकल तो इतनी आज़ादी भी नहीं है कि घटनाओं को जैसी हैं, वैसे ही दर्ज किया जा सके। सत्ता के इशारे पर झूठ का निस-दिन प्रसारण ही आज की मुख्यधारा की पत्रकारिता है। विद्यार्थी जी कांग्रेस के नेता भी थे। तो सूत्र ये निकला- जब सरकार पत्रकार को पत्रकार न रहने दे तो फिर पत्रकार का फ़र्ज़ है कि सरकार को सरकार न रहने दे!
कांग्रेस ही क्यों?
छात्रजीवन में मैं प्रगतिशील छात्र संगठन (पीएसओ) का सदस्य था जो आज के बेहद सक्रिय छात्रसंगठन आइसा का मूल है। 1990 की 7, 8, 9 अगस्त को विभिन्न प्रदेशों में सक्रिय वाम-धारा के छात्र संगठनों ने मिलकर ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन का गठन किया था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ भवन में सम्मेलन हुआ था जिसके आयोजन में सक्रिय भूमिका थी। बहरहाल, पत्रकारिता में आने के बाद राजनीति से पूरी तरह दूरी बना ली थी। पत्रकारिता की कड़ी कसौटियों पर ही अपने को खरा उतारने की कोशिश की, लेकिन जब सरकार के ख़िलाफ़ युद्ध में कूदने का फ़ैसला लिया तो कोई वामदल नहीं कांग्रेस ज़रूरी लगी जिसकी सरकार में पड़ी लाठियों का दर्द आज भी उठता है।
वजह बेहद साफ़ है। देश फ़ासीवाद के जिस ख़तरे में फँसा है, उससे मुक़ाबला कांग्रेस जैसा ही कोई अखिल भारतीय उपस्थिति वाला दल कर सकता है। जिसमें हर विचार के लोगों के लिए जगह है। आज़ादी के पहले भी कांग्रेस में वामपंथियों से लेकर दक्षिणपंथियों तक का जमावड़ा रहा है। समाजवादी तो बाक़ायदा पार्टी (सीएसपी) बनाकर कांग्रेस के अंदर काम कर रहे थे।
आचार्य नरेंद्र देव तो घोषित मार्क्सवादी थे और एक समय जय प्रकाश नारायण सुभाषचंद्र बोस से मिलकर भारत में मार्क्सवादी लेनिनवादी क्रांति करने का सपना देख रहे थे। जे.पी. की इस बाबत सुभाष को लिखी चिट्ठी नेताजी समग्र में उपलब्ध है। ये सभी कांग्रेस में थे।
उधर, गाँधी जी के पास वह भाषा थी जिसने समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े लोगों को आज़ादी की जंग का सिपाही बना दिया था। कुल मिलाकर भारत की विविधता का आईना थी कांग्रेस जहाँ एक तरफ नेहरू और सुभाषचंद्र बोस की जोड़ी थी तो दूसरी तरफ़ राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल आदि थे। ख़ुद भगत सिंह ने एक लेख लिखकर देश के नौजवानों से नेहरू का साथ देने का आह्वान किया था। यह उदारता ही डॉ.आंबेडकर को कांग्रेस के क़रीब लाई और उन्हें संविधान निर्माण की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी सौंपी गयी। विचारों की एकता और संघर्ष का यह दौर आज़ादी के बाद भी जारी रहा। कांग्रेस के आवढ़ी अधिवेशन (1957) में ‘समाजवादी ढंग का समाज’ और भुवनेश्वर अधिवेशन (1964) में ‘लोकतांत्रिक समाजवाद’ का लक्ष्य स्वीकार किया गया। इंदिरा गाँधी ने निर्णायक लड़ाई लड़के कांग्रेस को एक समाजवादी मोड़ दिया। राजीव गाँधी से लेकर मनमोहन सिंह तक के राज में जिस विकास को आवाज़ दी गयी उसमें आम आदमी की पीड़ा को हमेशा जगह दी गयी। ये संयोग नहीं कि यूपीए-2 ने भोजन से लेकर रोज़गार की गारंटी से जुड़े जैसे जो क़ानून पारित किये वे किसी क्रांति से कम नहीं हैं।
ये स्थिति आज भी है। बीते दिनों राहुल गाँधी के ख़िलाफ जिस तरह से आवाज़ें उठी हैं वे उसी वैचारिक संघर्ष की निशानदेही कर रही हैं। राहुल गाँधी ने आरएसएस को अपना मुख्य दुश्मन मानते हुए सीधा ऐलान किया है कि जो इस लड़ाई में कमज़ोर हों वे पार्टी छोड़ दें और जो बाहर रहकर आरएसएस से बेख़ौफ़ संघर्ष कर रहे हैं वे पार्टी में आयें। उनके इस ऐलान ने देश के लाखों लोगों को प्रभावित किया। इनमें हमारे गुरु और प्रख्यात इतिहासकार प्रो.लालबहादुर वर्मा भी थे जो बीती 17 मई को दिवंगत हुए हैं। 7 मार्च को वे हमारे साथ दिल्ली के ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर थे। क्रांति पूर्व फ्रांस जैसे हालात को भारत में देख रहे थे। उनके साथ हुई चर्चा में निकलकर आया कि वक़्त खुलकर राहुल गाँधी का साथ देने का है। वे देश में फासीवाद के विरुद्ध व्यापक मोर्चा बनाने का आह्वान करने के लिए राहुल गाँधी का भाषण लिखना चाहते थे। उनकी स्पष्ट समझ ने मेरे सामने का तमाम धुंधलका हटा दिया। हर हिचक टूट गयी और मैंने राहुल गाँधी का सिपाही बनना तय कर लिया। ताकि देश में वास्तविक लोकतंत्र स्थापित हो सके और हमारे जैसे लोग बेख़ौफ़ पत्रकारिता कर सकें। ज़ाहिर है, ये लड़ाई सत्ता पाने की नहीं, देश बचाने की है, लोकतंत्र बचाने की है।
वामपंथ
कन्हैया और जिग्नेश मेवानी के कांग्रेस में शामिल होते ही एक ट्रोल आर्मी सक्रिय हो गयी जो यूँ ख़ुद को बीजेपी का विरोधी बताती है। अचानक उनका सीपीआई के लिए प्रेम उमड़ पड़ा जबकि इनमें ज़्यादातर लोग सीपीआई छोड़िये, किसी भी वामपंथी दल में न हैं और न इसकी ज़रूरत समझते हैं। उनके लिए क्रांति आसमान से टपकने वाला फल है जो उनकी दोपहर की नींद को तोड़ने के लिए एक दिन अचानक गिर पड़ेगा।
बहरहाल, वामपंथ और कांग्रेस के रिश्ते को एक ऐतिहासिक संदर्भ में समझना चाहिए। जब केंद्र में कांग्रेस होती है तो उससे नीतियों को वामपंथी रंग देने के लिए संघर्ष करना लोकतंत्र को मज़बूत करना होता है। इसी का नतीजा है कि देश में भोजन से लेकर रोज़गार गारंटी क़ानून और आरटीआई से लेकर शिक्षा का अधिकार क़ानून बन सका। लेकिन जब केंद्र में आरएसएस है तो कांग्रेस खुद एक वामपंथी पक्ष हो जाता है। वामपंथी दलों की राष्ट्रीय मोर्चा की समझ भी यही है, इसलिए वे कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही हैं। देश में कोई भी वामपंथी दल ऐसा नहीं है जो बीती सदी के तीस-चालीस के दशक जैसी सशस्त्र क्रांति करने का इरादा रखता हो (जंगलों में छिपे बैठे माओवादियों को छोड़कर)। सबको भारत में जनवादी क्रांति ही करनी है यानी सच्चे लोकतंत्र की स्थापना ही लक्ष्य है। लेकिन वामपंथी दलों का इरादा जो हो, उनके पास ऐसा कोई कार्यक्रम नहीं है जो भारत में लोकतंत्र को स्थापित करने वाली कांग्रेस से ज़्यादा चमकदार हो। ऐसे में अगर दफ्तर में बैठकर सर्कुलर पढ़ने के बजाय कोई नौजवान कांग्रेस के साथ जाता है तो वो कोई वामपंथ विरोधी काम नहीं करता, बल्कि उसी संविधान की चमक को स्थापित करने में ज़्यादा ऊर्जा से जुटना चाहता है जिसकी कसम वामपंथी दल भी खाते हैं।
भूलना नहीं चाहिए कि 1920 में हुए दूसरे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल में लेनिन ने भारतीय कम्यूनिस्टों को गाँधी जी के नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होने की सलाह दी थी, लेकिन महान भारतीय कम्युनिस्ट विचारक एम.एन.राय के क्रांतिकारी जोश के सामने लेनिन की लाइन परास्त हो गयी थी। कल्पना ही की जा सकती है कि अगर भारतीय कम्युनिस्टों ने लेनिन की बात मान ली होती तो स्वतंत्रता आंदोलन और संविधान सभा का रंग क्या होता। वक़्त ने उन्हें ग़लत साबित किया और ‘ये आज़ादी झूठी है’ का नारा लगाने वाली सीपीआई ने भारतीय संविधान को स्वीकार किया। 1952 के चुनाव में उसने हिस्सा लिया और उसके संघर्षों का ही नतीजा था कि वह संसद में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी।
और एम.एन.राय?
एम.एन.राय अपने तमाम प्रयोगों की असफलता से निराश होकर कांग्रेस में गये। 1936 में फ़ैज़पुर अधिवेशन के मंच पर वे मौजूद थे जहाँ जवाहरलाल नेहरू ने उनका ज़ोरदार स्वागत किया। 1938 में उन्होंने ‘लीग ऑफ़ रेडिकल कांग्रेसमैन’ बनाई और और बाद में रेडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी। शास्त्रीय साम्यवादी सिद्धांतों से अलग ‘रेडिकल ह्युमेनिज़्म’ के चिंतन में डूबे भारत के इस पहले अंतरराष्ट्रीय मार्क्सवादी दार्शनिक ने 25 जनवरी 1954 को देहरादून में इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
नहीं, मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि कम्युनिस्ट पार्टियों की भूमिका नहीं है, लेकिन अगर किसी कार्यकर्ता को उसकी शैली रास नहीं आ रही है और राहुल का आह्वान रास आ रहा है तो उसके लिए कांग्रेस के दरवाज़े खुले हैं। राहुल गाँधी का ये कहना कि ‘कांग्रेस के अंदर जो लोग आरएसएस से लड़ने में डर रहे हैं, बाहर जायें और बाहर जो लोग बेख़ौफ़ आरएसएस से लड़ रहे हैं, कांग्रेस में आयें’, ऐतिहासिक है। इसका असर दिख रहा है, जैसा कि कविमित्र देवेंद्र आर्य ने लिखा भी है-
बंद हैं तो और भी खोज़ेंगे हम,
रास्ते हैं कम नहीं तादाद में...।
(लेखक डॉ.पंकज श्रीवास्तव, उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के मीडिया एंड कम्युनिकेशन विभाग में वाइस चेयैरमैन हैं।)