स्वतंत्रता दिवस समारोह में संबोधन के दौरान भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना ने संसद में काम करने के तौर-तरीक़ों पर सवाल उठाया है। उन्होंने कहा है कि संसद में सही बहस नहीं होना खेदजनक स्थिति है। मुख्य न्यायाधीश का इशारा मौजूदा दौर में संसद की कार्यवाही की ओर लगता है। इस बार बेहद हंगामेदार रहे संसद के मानसून सत्र को समय से पहले अचानक अस्थाई तौर स्थगित कर दिया गया है। इस सत्र में हंगामे की वजह से अब तक 85% से अधिक काम के घंटे बर्बाद हो चुके हैं। दोनों ही सदनों में ठीक से बहस नहीं हुई, इसके बावजूद राज्यसभा में 19 विधेयक पास हो गए।
इसी बीच आज 75वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर सुप्रीम कोर्ट में एक समारोह में भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना ने संसद के कामकाज की कड़ी आलोचना की, न केवल बार-बार आने वाले व्यवधानों के लिए बल्कि क़ानूनों पर ठीक से बहस नहीं होने के लिए भी। मौजूदा हालात को एक खेदजनक स्थिति बताते हुए उन्होंने कहा कि 'कोई उचित बहस नहीं है। क़ानूनों की कोई स्पष्टता नहीं है। हम नहीं जानते कि क़ानून का उद्देश्य क्या है। यह जनता के लिए एक नुक़सान है। ऐसा तब होता है जब वकील और बुद्धिजीवी सदनों में नहीं होते हैं।'
केंद्र सरकार ने तीन दिन पहले ही गुरुवार को कहा था कि संसद के मानसून सत्र में ज़्यादा हंगामा होने के बावजूद राज्यसभा में प्रति दिन औसत रूप से एक से अधिक विधेयक पारित किया गया।
इतने व्यवधान के बावजूद राज्यसभा में ओबीसी से जुड़े संविधान संशोधन विधेयक सहित 19 विधेयक पारित हो गए। सरकार ने ही कहा कि वर्ष 2014 के बाद यह दूसरा मौका था, जब इतनी संख्या में विधेयक पारित किए गए।
बता दें कि ऐसा तब हुआ है जब संसद के पूरे मॉनसून सत्र में पेगासस जासूसी कांड को लेकर दोनों सदनों में गतिरोध बरकरार रहा। इस वजह से पहले दो हफ्तों में 85% से अधिक काम के घंटे बर्बाद हो चुके हैं। दो हफ्तों में 107 घंटे में से संसद में केवल 18 घंटे ही कार्यवाही चली और व्यवधानों के कारण 89 घंटे बर्बाद हो गए।
बहरहाल, मुख्य न्यायाधीश ने पहले के समय से इसकी तुलना की जब संसद के दोनों सदन वकीलों से भरे हुए थे। उन्होंने क़ानूनी बिरादरी से भी सार्वजनिक सेवा के लिए अपना समय देने के लिए कहा। सीजेआई रमन्ना ने कहा, 'अगर हम अपने स्वतंत्रता सेनानियों को देखें, तो उनमें से कई क़ानूनी बिरादरी में भी थे। लोकसभा और राज्यसभा के पहले सदस्यों में वकीलों के समुदाय से भरे हुए थे।'
बाद में उन्होंने कहा, 'दुर्भाग्यपूर्ण है जो अब आप सदनों में देख रहे हैं... तब सदनों में बहस बहुत रचनात्मक थी। मैंने वित्तीय विधेयकों पर बहस देखी और बहुत रचनात्मक बिंदु रखे जाते थे। क़ानूनों पर चर्चा की जाती और विचार-विमर्श किया जाता था। क़ानून के विधायी पक्ष की स्पष्ट तस्वीर होती थी।'