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क्या देश में धर्म और क़ानून का घालमेल हो रहा है?

क्या देश में धर्म और क़ानून का घालमेल हो रहा है?

क्या क़ानून को सभी धर्मों से ऊपर नहीं होना चाहिए? इसमें भी क्या कोई शक होना चाहिए? धर्म को आख़िर एक निजी विचार तक ही सीमित क्यों नहीं रखा जाता?

भारतीय संविधान के आर्किटेक्ट डॉ. बी. आर. आंबेडकर धर्म, क़ानून और राज्य के बीच के संबंधों को लेकर, सैद्धांतिक रूप से मान चुके थे कि "धर्म को निजी क्षेत्र तक सीमित कर दिया जाना चाहिए, और एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में क़ानून धर्म से ऊपर होना चाहिए। न्यायपालिका को धर्म के किसी भी प्रभाव से स्वतंत्र रूप से कार्य करना चाहिए ताकि कानून के समक्ष समानता सुनिश्चित हो सके।" लेकिन संभवतया वो आने वाले भारत को नहीं देख सके थे जहाँ संविधान के ‘अभिरक्षक’ सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश स्वयं इस सिद्धांत की अनदेखी करने वाला था।

बीते दिनों भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ महाराष्ट्र में अपने पैतृक गाँव में एक अभिनंदन समारोह में शामिल हुए थे। निश्चित रूप से यह अभिनंदन व्यक्तिगत रूप से डी वाई चंद्रचूड़ का नहीं रहा होगा। इस अभिनंदन को छोटे से गाँव ने अपने उस बेटे के लिए आयोजित किया होगा जो मध्यम गति से आगे बढ़ते हुए भारतीय न्यायपालिका के शिखर पर जा पहुँचा था। यह अभिनंदन गाँव के गौरव की अभिव्यक्ति रहा होगा। यह गौरव भारतीय संविधान की वजह से है। वही संविधान जिसकी प्रस्तावना, संविधान का कोई भी पन्ना पलटने से पहले ही भारत के ‘धर्म-निरपेक्ष’, ‘समाजवादी’ ‘गणराज्य’ स्वरूप की घोषणा कर देता है। वही संविधान जिसकी प्रस्तावना शुरुआत में ही ‘समानता’ और ‘बंधुत्व’ के आदर्शों को स्पष्ट कर देना चाहता है और यह भी बता देना चाहता है कि किसी भी हालत में भारत की ‘एकता’ व अखंडता ‘अक्षुण्ण’ रखी जाएगी। किसी भी क़ानून के विद्यार्थी की तरह यह बात निश्चित ही वर्तमान सीजेआई को भी पता होगी। लेकिन उन्होंने अपने पैतृक गाँव जाकर जो कहा वह निश्चित ही संविधान की गरिमा के ख़िलाफ़ था। उनका कहना था कि जब राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विवाद उनके सामने आया तो वो महीनों तक रास्ता निकालने की कोशिश करते रहे और फिर जब कुछ नहीं समझ आया तो इस मामले के हल के लिए ईश्वर से प्रार्थना की। उनका मानना था कि इससे रास्ता भी निकला। 

वास्तव में यह बेहद आश्चर्जनक है कि जिस सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश को न सिर्फ़ देश की सबसे बड़ी अदालत का प्रशासन संभालना होता है, बल्कि देश भर की सभी अदालतों के प्रशासन की जिम्मेदारी भी उसी पर है वह इस देश के सबसे बड़े क़ानूनी विवाद का फ़ैसला सुस्थापित न्यायिक सिद्धांतों से न करके ईश्वरीय प्रार्थना से कर रहा था। भारत का संविधान सीजेआई समेत इस देश के सभी नागरिकों को अपने-अपने धर्मों के पालन का अधिकार देता है लेकिन क्या न्यायपालिका के शिखर पर बैठे व्यक्ति को, अपने पद पर रहते हुए, मुख्य न्यायाधीश के तौर पर, अपने धर्म को सार्वजनिक रूप से न्यायिक सिद्धांतों के ऊपर रखने का अधिकार है? आंबेडकर की मानें तो बिल्कुल नहीं! उन्होंने संविधान का प्रारूप बनाया और लगभग 3 सालों तक संविधान सभा में तर्क और बहस के माध्यम से संविधान के जिस स्वरूप को प्रदान किया वह, क़ानून के शासन को धर्म के ऊपर रखने के सिद्धांत को मानता है। उसके लिए धर्म को निजी आचरण मानना चाहिए न कि सार्वजनिक मंच पर चल रहे अभिनंदन समारोह के भाषण का आधार! 

हर नागरिक की तरह सीजेआई चंद्रचूड़ को अपने घर के बंद दरवाजों में, अपने मनचाहे भगवान को पूजने, प्रार्थना करने और जो चाहे मांगने का अधिकार है। हो सकता है कि कभी परेशानी में आकर उन्होंने ऐसे प्रार्थना कर ही ली हो, सभी करते हैं। लेकिन अहम सवाल है कि उन्हें अपनी इस प्रार्थना को लोगों के समक्ष जाहिर करना क्यों जरूरी लगा? चंद्रचूड़ लगभग 25 सालों से संवैधानिक न्यायालयों में न्यायाधीश हैं।वह निश्चित ही जानते होंगे कि एक न्यायाधीश के लिए इस बात के क्या अर्थ निकाले जाएँगे? उन्हें क्या समझा जाएगा? और उनकी नीयत पर फिर कभी भरोसा क़ायम नहीं हो सकेगा। लेकिन संभवतया सीजेआई चंद्रचूड़ को इसकी फ़िक्र नहीं है, तभी तो उन्होंने गणपति के कार्यक्रम में, अपने आवास पर राजनीति को नृत्य करने का अवसर प्रदान कर दिया। उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने घर इस धार्मिक कार्यक्रम में न सिर्फ़ बुलाया बल्कि उनके आने और पूजा करने को लेकर वीडियो भी बनाने की अनुमति दी। यह वीडियो पूरे भारत में देखा गया।

यह उन लोगों द्वारा भी देखा गया जिनके समुदाय की ‘टोपी’ से मोदी जी को परेशानी रही है, जिस समुदाय का डर दिखाकर वो वोट माँगते रहे हैं, जिस समुदाय के ख़िलाफ़ घृणा को बढ़ाने में उनका अपना योगदान है जिसकी परतें गुजरात में उनके मुख्यमंत्री काल से जुड़ी हुई हैं। जिस समुदाय को वो ‘कपड़ों’ से पहचान लेते हैं। जब इस समुदाय ने देखा होगा कि धर्म को लेकर भारत का न्याय प्रमुख और राजनैतिक प्रधान एक ही जगह खड़े हैं तब उनमें पैदा हुई असुरक्षा और असंतोष को नापा नहीं जा सकता। सीजेआई के रिटायरमेंट के कुछ ही वक्त बचा था, वो चाहते तो ‘शक्तियों के पृथक्करण’ के महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक सिद्धांत को क़ायम रख सकते थे। लेकिन उन्होंने अपने व्यक्तिगत धर्म को देश की राजनीति और न्यायपालिका के साथ घोल के रख दिया। जिस कार्यपालिका को न्यायपालिका का स्पष्ट और कठोर मुख देखना चाहिए था उस कार्यपालिका का राजनैतिक प्रमुख न्यायपालिका का इस्तेमाल करता दिखा।

भारत का संविधान कोई व्यक्तिगत कर्मकांड नहीं है जिसे जब चाहा तब अपने तरीके से कर डाला। न सिर्फ़ भारतीय संविधान में बल्कि दुनिया के सभी समृद्ध लोकतंत्रों में इस बात की स्वीकार्यता है कि कार्यपालिका का न्यायपालिका में हस्तक्षेप उचित नहीं है।

लेकिन जब स्वयं सीजेआई प्रधानमंत्री को व्यक्तिगत तौर पर घर बुलाएँगे और न्यायिक निर्णयों पर धर्म का प्रभाव स्थापित करेंगे तब इस हस्तक्षेप को आने वाली पीढ़ी में रोकना असंभव हो जाएगा। भारतीय संविधान बनने के 200 साल पहले 1748 में फ्रांसीसी दार्शनिक मॉन्टेस्क्यू ने अपनी किताब स्पिरिट ऑफ़ द लॉज़ में शक्तियों के पृथक्करण के विचार को लोकतांत्रिक सरकार का एक आवश्यक तत्व बताया। उनका मानना था कि सत्ता का दुरुपयोग रोकने के लिए न्यायपालिका स्वतंत्र होनी चाहिए। "यदि न्याय देने की शक्ति विधायिका और कार्यपालिका शक्तियों से अलग नहीं होती है, तो स्वतंत्रता अस्तित्व में नहीं हो सकती।" इसके लगभग 200 सालों बाद जब भारत का संविधान बनने की प्रक्रिया चल रही थी तब डॉ. आंबेडकर ने भी न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर जोर दिया ताकि कार्यपालिका के अतिक्रमण को रोका जा सके। संविधान सभा की बहसों में उन्होंने तर्क दिया कि नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए यह पृथक्करण ज़रूरी है। लेकिन दुर्भाग्य से CJI ने इन सब बातों को भुला दिया। सीजेआई का यह नया स्वरूप उनके रिटायरमेंट से बस दो महीने पहले ही दिखना शुरू हुआ है। क्या यह सिर्फ़ एक इत्तेफाक है? लगता तो नहीं! क्योंकि पिछले कुछ न्यायाधीशों-अरुण मिश्रा और गोगोई- का अनुभव काफ़ी कुछ साफ़ तस्वीर पेश करता है। 

अमेरिका के प्रसिद्ध मुख्य न्यायाधीश ने मारबरी (1803) के मामले में टिप्पणी करते हुए कहा था कि- चाहे कुछ भी हो लेकिन न्यायपालिका को स्वतंत्र रहना चाहिए ताकि कानूनों को लागू किया जा सके और कार्यपालिका के अत्यधिक अधिकार को रोका जा सके। सवाल यह है कि सीजेआई चंद्रचूड़ जिस ग़लत परंपरा को छोड़कर जाने वाले हैं उसका भारत के लोकतंत्र पर क्या प्रभाव पड़ेगा? भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के मूल्यों पर स्थापित हुआ भारतीय संविधान, क्या स्वयं को कार्यपालिका के अतिक्रमण से बचा पाएगा? 

यह जानते हुए भी कि- देश में पिछले दस सालों से धर्म को लेकर किस तरह का माहौल है, किस तरह धार्मिक प्रतीकों को लोकतंत्र के दमन के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, किस तरह धर्म का इस्तेमाल भारत के ध्रुवीकरण के लिए किया जा रहा है, किस तरह धर्म के आधार पर लोगों के ख़ान-पान और जीवन शैली को टारगेट किया जा रहा है, किस तरह राज्यों में जानबूझकर ऐसे नेताओं को ताक़त दी जा रही है जो एक धर्म विशेष को ‘सबक़ सिखाने’ का लक्ष्य लेकर चल रहे हैं, किस तरह सत्ता पक्ष के किसी बड़े नेता का कोई भी भाषण सांप्रदायिक तपिश के बिना पूरा नहीं होता- इसके बावजूद सीजेआई द्वारा धर्म के खुले प्रदर्शन ने, वो भी पद पर बने रहते हुए, करोड़ों अल्पसंख्यकों को असुरक्षित बना दिया है। उनके इस कृत्य ने धर्मनिरपेक्ष हिंदुओं को भी दबाव में लाकर असुरक्षित बना दिया है। उन्हें इससे बचना चाहिए था, अब इतिहास उनके द्वारा दिए गए, सभी निर्णयों को इसी आलोक में देखेगा।

इतिहास देखेगा कि किन कारणों से जस्टिस चंद्रचूड़ ने हिंडनबर्ग रिपोर्ट पर ‘उचित’ कार्यवाही नहीं की, इलेक्टोरल बांड्स के निर्णय में आरोपियों के ख़िलाफ़ जांच क्यों नहीं बिठायी गई? सेबी की विश्वसनीयता को तार-तार करने वाली माधवी बुच पर कार्यवाही क्यों नहीं की?

पूजा स्थल अधिनियम 1991, जैसे महत्वपूर्ण और देश को अखंड और शांत रखने वाले क़ानूनों के बावजूद वाराणसी, मथुरा समेत सैकड़ों मंदिर-मस्जिद विवादों को उभारने का काम क्यों किया? महाराष्ट्र की महायुति सरकार को अवैध सरकार मानने के बावजूद ऐसा कोई फैसला क्यों नहीं लिया जो बीजेपी सरकार के ख़िलाफ़ जाता दिखता? इतिहास उनका आकलन करते हुए पूछेगा कि जब वो न्यायपालिका के शिखर पर बैठे थे तब उन्होंने कार्यपालिका को उमर ख़ालिद जैसे छात्रों को चार सालों तक बिना ट्रायल के जेल में कैसे बने रहने दिया? क्या वो समझा पाएंगे कि वो कैसे सरकार की नीयत नहीं समझ सके? क्या वो बता पाएंगे कि वो कैसे चुनाव आयोग की नीयत नहीं समझ सके, जिस पर लोकतंत्र का बड़ा हिस्सा टिका हुआ है?    

सीजेआई चंद्रचूड़ के बेटे अभिनव चंद्रचूड़ की किताब ‘सुप्रीम व्हिस्पर्स’ यह बताती है कि सर्वोच्च न्यायालय के जजों में भी लालच होता है, विशेषकर उनके रिटायरमेंट के बाद। न्यायाधीश का पद सामान्यतया उनके लिए ‘पर्याप्त’ नहीं होता। उनका ध्यान रिटायरमेंट के बाद के जीवन ख़ुद की सुख-सुविधाओं और परिवार के सदस्यों के हितों पर होता है। 

हर बार जब जजों के व्यक्तिगत हित संवैधानिक मर्यादाओं से टकराते हैं तो लोकतंत्र को चोट पहुँचती है। सभी संवैधानिक पदों की तरह ही न्यायाधीशों को भी अपनी संवैधानिक शपथ याद रखनी चाहिए। और भारत के पहले प्रधानमंत्री और महान स्वतंत्रता सेनानी जवाहरलाल नेहरू के इन शब्दों को याद रखना चाहिए कि-

"किसी भी धर्म को हमारी राजनीति या न्यायपालिका पर हावी होने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। न्यायपालिका को धर्मनिरपेक्ष, स्वतंत्र और धार्मिक पक्षपात से मुक्त रहना चाहिए।" 

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