दुष्कर्म मामले में आरोपी से पीड़िता की शादी के कथित प्रस्ताव वाली रिपोर्टों को मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे ने खारिज किया है। उन्होंने कहा कि पिछले हफ़्ते उस मामले में सुनवाई के दौरान पूरी तरह ग़लत रिपोर्टिंग की गई। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट महिलाओं को हमेशा सबसे ऊँचा सम्मान देता रहा है। पिछले हफ़्ते मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी के बाद अलग-अलग लोगों ने प्रतिक्रियाएँ दी थीं। सोशल मीडिया पर भी ज़बर्दस्त प्रतिक्रिया आई थी।
महिला अधिकारों की पैरवी करने वाले क़रीब 4000 एक्टिविस्टों ने तो खुला ख़त लिखकर मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे से इस्तीफ़ा देने की मांग भी कर दी थी।
इसी बीच अब मुख्य न्यायाधीश की ताज़ा टिप्पणी आई है। उन्होंने सोमवार को कहा, "हमने उसे (दुष्कर्म के आरोपी) को शादी करने के लिए नहीं कहा था। हमने पूछा था कि क्या आप शादी करने जा रहे हैं? हमने 'शादी करो' नहीं कहा।"
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने भी कहा कि अदालत ने एक अलग संदर्भ में सवाल पूछा था। 'एनडीटीवी' की रिपोर्ट के अनुसार, मुख्य न्यायाधीश ने कहा, 'हमारे सामने कोई वैवाहिक बलात्कार का मामला नहीं था। मैंने पीठ में बैठे न्यायाधीशों से पूछा। उन्हें भी याद नहीं है। यह संस्थान, विशेषकर इस पीठ, के लिए नारीत्व का सबसे अधिक सम्मान है।'
मुख्य न्यायाधीश की यह ताज़ा टिप्पणी तब आई जब वह एक नाबालिग लड़की द्वारा 26 सप्ताह की गर्भावस्था को ख़त्म करने की अनुमति की याचिका पर सुनवाई कर रहे थे।
एक मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र राज्य इलेक्ट्रिक प्रोडक्शन कंपनी के एक तकनीशियन मोहित सुभाष चव्हाण की जमानत याचिका पर सुनवाई के दौरान एक टिप्पणी की थी। उन पर नाबालिग स्कूली लड़की से बलात्कार करने का आरोप है और पॉक्सो के तहत मुक़दमा चल रहा है।
तब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एस. ए. बोबडे ने बलात्कार अभियुक्त से कहा था, 'यदि आप शादी करना चाहते हैं तो हम आपकी मदद कर सकते हैं। यदि नहीं, तो आप अपनी नौकरी खो देंगे और जेल जाएँगे। आपने लड़की को बहकाया, उसके साथ बलात्कार किया।'
बेंच ने आगे कहा था, 'हम आपको शादी करने के लिए मजबूर नहीं कर रहे हैं। अगर आप करेंगे तो हमें बताएँ। नहीं तो आप कहेंगे कि हम आपको उससे शादी करने के लिए मजबूर कर रहे हैं।' मुख्य न्यायाधीश ने यह कहते हुए उस व्यक्ति की गिरफ्तारी पर एक महीने तक के लिए रोक लगा दी।
इस फ़ैसले के बाद अलग-अलग क्षेत्रों से लोगों ने तीखी प्रतिक्रिया दी थी। सबसे अहम प्रतिक्रिया एक खुले ख़त में आई थी। महिला अधिकार की पैरवी करने वाले, प्रगतिशील समूहों और संबंधित नागरिकों के एक समूह ने वह ख़त लिखा था।
ख़त में लिखा गया था, 'सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई जैसे ऊँचे पद से अन्य अदालतों, न्यायाधीशों, पुलिस और अन्य सभी क़ानून लागू करने वाली एजेंसियों को यह संदेश जाता है कि न्याय भारत में महिलाओं का संवैधानिक अधिकार नहीं है। यह लड़कियों और महिलाओं को आगे चुप कराने का ही काम करेगा।'
ख़त में आगे कहा गया था, 'बलात्कारियों को यह संदेश देता है कि शादी बलात्कार का लाइसेंस है; और इस तरह का लाइसेंस प्राप्त करने से बलात्कारी वास्तव में अपने अपराध को डिक्रिमिनलाइज यानी अपराध मुक्त कह सकता है या वैध कह सकता है।'
खुले ख़त में एक्टिविस्टों का कहना था, 'यह हमें ग़ुस्सा दिलाता है कि भारत के संविधान की व्याख्या करने और फ़ैसला देने वाले भारत के मुख्य न्यायाधीश को भी 'प्रलोभन', 'बलात्कार', और 'विवाह' का अर्थ समझाने की ज़िम्मेदारी महिलाओं पर ही है।' ख़त में कहा गया है कि 'आपके शब्द देश की सर्वोच्च अदालत की प्रतिष्ठा को कमतर करते हैं'।