+
नागरिकता क़ानून : हिंसा के लिए क्या वाकई ज़िम्मेदार है पीएफ़आई?

नागरिकता क़ानून : हिंसा के लिए क्या वाकई ज़िम्मेदार है पीएफ़आई?

क्या उत्तर प्रदेश और केंद्र की सरकारें नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ चलने वाले आन्दोलन के पीछे पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इंडिया (पीएफ़आई) का हाथ होने की बात कह कर लोगों का ध्यान असली मुद्दे से हटाने की कोशिश कर रही है?

क्या उत्तर प्रदेश और केंद्र की सरकारें नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ चलने वाले आन्दोलन के पीछे पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इंडिया (पीएफ़आई) का हाथ होने की बात कह कर लोगों का ध्यान असली मुद्दे से हटाने की कोशिश कर रही है? क्या वह इस बहाने पुलिस ज़्यादती को उचित हराने की कोशिश कर रही है?

ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि पीएफ़आई पर सरसरी निगाह डालने से भी यह पता चल जाता है कि बड़े आन्दोलन या बड़े पैमाने पर हिंसा फैलाने की क्षमता उसकी नहीं है।

केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने पीएफ़आई पर हिंसा फैलाने का आरोप लगाते हुए कहा है कि इसके ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाएगी। उन्होंने कहा : 

हिंसा में पीएफ़आई की भूमिका सामने आ रही है। केंद्र सरकार सबूतों के आधार पर कार्रवाई करेगी। उन पर सिमी के साथ संबंध रखने के अलावा दूसरे कई आरोप हैं।


रवि शंकर प्रसाद, केंद्रीय क़ानून मंत्री

यूपी पुलिस का दावा

इसके पहले उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक ओ. पी. सिंह ने केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय को एक चिट्ठी लिख कर कहा था कि नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ हुए आन्दोलन में उसने हिंसा की थी। इसके अलावा उत्तर प्रदेश पुलिस ने तीन लोगों को कथित तौर पर पीएफ़आई से जुड़े होने के आरोप में गिरफ़्तार किया। इसमें उत्तर प्रदेश ईकाई के अध्यक्ष वसीम अहमद भी हैं। 

पर इससे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या वाकई पीएफ़आई के पास यह क्षमता है कि वह किसी आन्दोलन को प्रभावित कर सकता है या अपने बल बूते कोई बड़ा आन्दोलन खड़ा कर सकता है? केरल के पुलिस महानिदेशक और केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल के अतिरिक्त महानिदेशक एन. सी. अस्थाना ने यह सवाल उठाया। उन्होंने ‘द वायर’ में एक लिख कर कई सवाल पूछे हैं। 

क्या है पीएफ़आई?

पीएफ़आई की स्थापना 2006 में नेशनल डेवलपमेंट फंड के संगठन के रूप में की गई थी। एनडीएफ़ की स्थापना 1993 में केरल में की गई थी। पीएफ़आई का दावा है कि उसका मक़सद मुसलमानों और दूसरे उपेक्षित तबक़ों के विकास के लिए काम करना है। 

पीएफ़आई का राजनीतिक संगठन सोशल डेमोक्रेटिक पीपल्स पार्टी ऑफ़ इंडिया (एसडीपीआई) है। इसकी स्थापना 2009 में हुई और इसे 2010 में चुनाव आयोग की मान्यता मिल गई।  

क्या कहना है पूर्व डीजीपी का?

पर इससे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या वाकई पीएफ़आई के पास यह क्षमता है कि वह किसी आन्दोलन को प्रभावित कर सकता है या अपने बल बूते कोई बड़ा आन्दोलन खड़ा कर सकता है? केरल के पुलिस महानिदेशक और केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल के अतिरिक्त महानिदेशक एन. सी. अस्थाना ने यह सवाल उठाया। उन्होंने ‘द वायर’ में एक लिख कर कई सवाल पूछे हैं। 

क्या हुआ उत्तर प्रदेश में?

उत्तर प्रदेश में नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ कई शहरों में लोग सड़कों पर आए और कुछ जगहों पर हिंसा भी हुई। इन विरोध प्रदर्शनों में 19 लोग मारे गए, 300 पुलिस जवान घायल हुए, पुलिस ने 1,000 लोगों को गिरफ़्तार किया। 

सवाल यह है कि दक्षिण भारत, ख़ास कर केरल स्थित इस संगठन ने उत्तर प्रदेश में कैसे इतने लोगों को एकत्रित कर लिया और ख़ुफ़िया एजेंसियों को इसकी भनक तक नहीं लगी। 

पहली बात तो यह है कि उत्तर प्रदेश के कई शहरों में एक साथ इतना बड़ा आन्दोलन खड़ा करने के लिए बहुत बड़ी तादाद में लोगों की ज़रूरत है। सिर्फ़ कुछ लोग किसी कोने में बैठे-बैठे बड़ी तादाद में लोगों को जुटा नहीं सकते। इसके लिए ज़मीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं की ज़रूरत है, जो पीएफ़आई के पास उत्तर प्रदेश में होगा, इस पर संदेह है। 

क्या ख़ुफ़िया एजंसियों को इसकी भनक तक नहीं लगी कि उत्तर प्रदेश में इसका इतना बड़ा संगठन बन चुका है? यदि ऐसा ही हुआ है तो क्या यह पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियों की नाकामी नहीं है, सवाल यह है।

पीएफ़आई की ताक़त पर सवाल

यदि पुलिस की बातों पर यकीन किया जाए तो उत्तर प्रदेश में जो विरोध प्रदर्शन हुए, वे स्वत: स्फूर्त नहीं थे, पीएफआई ने कराए थे। यदि यह सच है तो इस संगठन की पकड़ इतनी मजबूत होनी चाहिए कि इसके नाम पर या इसके एक बार कहने पर ही हज़ारों की तादाद में लोग सड़कों पर उतर आए।

क्या पीएफ़आई का ऐसा जादुई असर राज्य के लोगों पर है कि उसके एक बार कहने पर लाखों की तादाद में लोग मरने-मारने पर उतारू हो जाएँ?

इसके साथ यह भी साफ़ है कि यदि पीएफआई ने ही हिंसा करवाई तो इसकी तैयारी उसने काफ़ी समय से की होगी। आख़िर इतना बड़ा बावेला बग़ैर किसी तैयारी के तुरत-फुरत नहीं हो सकता है। ख़ुफ़िया एजेंसियों और पुलिस को इतनी बड़ी तैयारियों की भनक तक नहीं लगी?

उत्तर प्रदेश सरकार ने दावा किया है कि खाली कारतूस के 405 खोखे बरामद किए गए। इसका मतलब है कि उससे जुड़े दूसरे उपकरण भी होंगे। ज़ाहिर है, ये चीजें बड़े पैमाने पर असम में होंगी और काफी पहले से होंगी। चूंकि इन चीजों को पहले बरामद नहीं किया गया, उपद्रव के समय ही बरामद किया गया, तो साफ़ है कि पुलिस को इसकी जानकारी पहले से नहीं थी। यदि यह सच है तो क्या यह राज्य पुलिस की नाकामी नहीं दिखाता है? 

ख़फ़िया एजेंसियों का काम कोई वारदात होने से पहले जानकारी देना है। उससे यह उम्मीद नहीं की जाती है कि वह वारदात होने के बाद सबको सबकुछ बताती रहे और उसके पहले चुप रहे। 

तो क्या वाकई पीएफ़आई ने ही उत्तर प्रदेश में पूरी हिंसा करवाई? या पुलिस अपनी ज़्यादती से ध्यान बँटाने के लिए यह कह रही है। क्या राज्य सरकार जानबूझ कर इस संगठन का नाम ले रही है ताकि लोग पुलिस ज़्यादतियों पर बात न करें? क्या यह इसलिए भी किया जा रहा है कि एक समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ जनभावना भड़काई जा सके?   

सत्य हिंदी ऐप डाउनलोड करें