आख़िर कंगना रनौत को ग़ुस्सा क्यों आता है? 

05:28 pm Aug 23, 2020 | अजय ब्रह्मात्मज - सत्य हिन्दी

यह इंसानी फ़ितरत है। हम ख़ुद में और अपने आसपास देख सकते हैं। हमारी हर फ़िक्र में किसी न किसी तरह ख़ुद का ज़िक्र जारी रहता है। कंगना रनौत इस इंसानी फ़ितरत से परे नहीं हैं। अपनी मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि, शिक्षा-दीक्षा और ज़िंदगी के विविधयामी अनुभवों ने उन्हें अधिक संवेदनशील, फ़िक्रमंद और आक्रामक बना दिया है। वह आए दिन किसी न किसी की फ़िक्र करती हैं। उसी के साथ अपना ज़िक्र ज़रूर करती हैं। हाल के उनके अधिकांश बयानों में इस फ़िक्र और ज़िक्र को पढ़ा-सुना जा सकता है।

बहुत पहले लोकप्रिय जीवन जी रहे एक कलाकार ने कहा था कि आप पक्ष में बोलें या विपक्ष में बोलें, लेकिन मेरे बारे में ही बोलें। चर्चा में रहने के लिए ज़रूरी है कि किसी न किसी बहाने नाम आए। नाम का उल्लेख हो, कंगना इस उक्ति पर यक़ीन करती हैं। सोशल मीडिया के इस दौर में पक्ष-विपक्ष में बोली उनकी हर बात वायरल हो जाती है। अगर ‘कॉफी विद करण’ का बहुचर्चित एपिसोड फिर से देखें तो याद आएगा कि करण जौहर का सवाल था… फ़िल्म इंडस्ट्री में कौन आपको अनावश्यक एटीट्यूड दिखाता है- मेल या फ़ीमेल स्टार कंगना का जवाब था… आप करण! 

करण ने शो में माफ़ी माँगी और कहा था कि अगर कुछ हुआ है तो वह इरादतन नहीं था। उस बातचीत में कंगना आगे कहती हैं... अगर मेरी बायोपिक बनी तो आप उसमें बॉलीवुड की बिगी (बड़ी हस्ती) की भूमिका निभाएँगे, जो घमंडी और आउटसाइडर के प्रति असहिष्णु है... नेपोटिज़्म का झंडाबरदार और मूवी माफिया।

उस शो में कही गई कंगना रनौत की बातें अपनी ही संभावित बायोपिक के बारे में थी। याद करें तो यह सब रैपिड फ़ायर का हिस्सा था, लेकिन वह ऐसी चिंगारी बन कर निकला कि आज हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में आग सी लगी है। धुआँ-धुआँ सा है। ‘आउटसाइडर’, ’नेपोटिज़्म’ और मूवी माफिया’ हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री की कमियों को उजागर और बदनाम करने के अनिवार्य ‘टर्म’ बन गए हैं। सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध मौत के बाद ये तीनों शब्द फिर से नए सन्दर्भ और अर्थ के साथ विमर्श में हैं।

कंगना लगातार किसी न किसी फ़िल्म स्टार को लेकर टिप्पणी कर रही हैं और हर टिप्पणी में उनकी ख़ुद की मौजूदगी रहती है। अपनी टिप्पणियों में वह कई बार असंयमित, अतार्किक और तात्कालिक हो जाती हैं। उनकी बातों में ये तीनों शब्द धड़ल्ले से आते हैं। अगर कंगना रनौत के बयानों को ग़ौर से पढ़ें-सुनें तो उनकी बातों में ‘आउटसाइडर’ और नेपोटिज़्म’ का निजी अनुभव और प्रसंग रहता है।

कंगना रनौत ने भट्ट बंधुओं की फ़िल्म ‘गैंगस्टर’ से शुरुआत की, जिसका निर्देशन एक आउटसाइडर डायरेक्टर अनुराग बसु ने किया था। यहाँ से उन्हें पहचान मिली। इस फ़िल्म के लिए उन्हें नई तारिका का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला था। तब उन्होंने कहा था… मैं तो इस लायक नहीं हूँ। मैं इसका पूरा श्रेय महेश भट्ट, मुकेश भट्ट और अनुराग बसु को देती हूँ। यह सब शुरू की बातें हैं। इन दिनों भट्ट बंधुओं को लेकर आई उनकी टिप्पणियों में ज़ाहिर कटुता आप सुन सकते हैं।

लंबे समय से फ़िल्मों की पत्रकारिता से जुड़े पत्रकारों के पास कंगना रनौत से जुड़े अनेक क़िस्से हैं। जिनमें उनकी तुनकमिज़ाजी, एटीट्यूड, तेवर, तीखे, कड़वे और मीठे अनुभव हैं। निर्माता-निर्देशक और सह कलाकारों के साथ उनके जुड़ाव, खिंचाव, तनाव और मनमुटाव की अनेक कहानियाँ हैं।

कंगना रनौत का निजी जीवन और फ़िल्मी करियर अनेक घटनाओं से भरा पड़ा है। इन सभी अनुभवों ने उन्हें ‘स्वयंसिद्धा’ और ‘अचीवर’ बना दिया है। कई बार लगता है कंगना में एक कड़वाहट भी भर गई है, जिसे वह योग, अनुशासन और साधना से प्रक्षालित करती रही हैं। सद्गुरु के साथ उनकी संगत उसी का एक हिस्सा है। उनकी यह कड़वाहट-झुंझलाहट का स्वर ले लेती है।

कंगना रनौत।फ़ोटो साभार: ट्विटर/कंगना रनौत

सुशांत सिंह राजपूत की घटना

सुशांत सिंह राजपूत की घटना ने कंगना रनौत को उद्वेलित किया है। वह शुरू से ही पूरे मामले को निजी अनुभवों के नज़रिए से पेश करती रही हैं और बेहद स्पष्ट तरीक़े से व्याख्यायित करती रही हैं। उनकी बातों में सच्चाई रहती है, लेकिन आत्मश्लाघा से वह अपनी तीक्ष्णता कम कर देती हैं। कभी बिखरी और बेतुकी भी लगती हैं बातें। सुशांत सिंह राजपूत और कंगना रनौत समेत सभी ‘आउटसाइडर’ के फ़िल्मी करियर में अपमान, तिरस्कार, वंचना, नज़रन्दाज़ करने और फ़िल्मों से निकालने की घटनाएँ हैं। प्रतिभाशाली और धैर्यशील कलाकार व निर्देशक अडिग रहकर जुटे रहे और उन्हें छोटी-बड़ी सफलताएँ मिलीं। 

ऐसा नहीं कहा जा सकता कि सभी को अपनी प्रतिभा के अनुपात में फ़िल्में और कामयाबी मिल पाई। अनेक हिम्मत थक-हार कर लौट गए और कुछ ने परिस्थितियों के आगे समर्पण कर दिया। कंगना रनौत के ही करियर को देखें तो उनकी अंग्रेज़ी, फैशन, स्टाइल, एटीट्यूड और हरकतों का छिद्रान्वेषण कर मखौल उड़ाया गया। इन सभी तिरस्कारों और मखौल से कंगना रनौत ने सीखा। ख़ुद में परिष्कार किया, लेकिन नाराज़गी और कड़वाहट तो अंत में धँस गई।

‘तनु वेड्स मनु’ और ‘क्वीन’ की अप्रतिम कामयाबी के पहले कंगना रनौत ने उम्दा अभिनेत्री की साख बना ली थी। लेकिन स्टारडम, माँग और फ़िल्मों की दृष्टि से उनकी स्थिति मज़बूत नहीं थी। फ़िल्में कामयाब हुईं तो वह सफलता का पर्याय बन कर उभरीं।

उनकी प्रतिभा अलग ढंग से प्रस्फूटित हुई और चाहत ने कुलांचे भरनी शुरू की। इस हड़बड़ी में एक बड़बोलापन, अहंकार और एटीट्यूड भी आया। किसी अन्य फ़िल्म स्टार की तरह नखरे और क़िस्से बढ़े। उनके अनेक क़रीबी और शुभचिंतक उनसे दूर हो गए। पुराने निर्देशकों से संबंध मधुर नहीं रहे।

हमने देखा है कि हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में सीढ़ी चढ़ती प्रतिभाएँ उन सहारों को भी संभालती और ठुकराती जाती हैं, जिनकी मदद से वे सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ी हैं। ऐसा अनेक कलाकारों के साथ हुआ है। इसी फ़िल्म इंडस्ट्री ने सुपरस्टार राजेश खन्ना का अवसान भी देखा है।

कंगना रनौतफ़ोटो साभार: ट्विटर/कंगना रनौत

‘मणिकर्णिका’ के समय फ़िल्म बिरादरी की गहन चुप्पी हैरतअंगेज़ थी। कंगना रनौत ने सभी ‘इनसाइडर’ को आड़े हाथों लिया था। फ़िल्म इंडस्ट्री में सोशल मीडिया पर एक्टिव सदस्य हर छोटी-बड़ी और अच्छी-बुरी फ़िल्म की तारीफ़ से नहीं थकते। दर्शकों को गुमराह करते हैं। ‘मणिकर्णिका’ की कामयाबी पर भी उन्हें बधाई नहीं दी गयी और पुरस्कारों में नामांकित नहीं किया गया। इस तथ्य ने उन्हें आहत किया। 

पिछले कुछ सालों में कंगना रनौत का ‘राष्ट्रवादी’ स्वर मुखर हुआ है। इन दिनों देश के अनेक बौद्धिक प्रतिभाएँ और इनफ्लुएंसर ‘राष्ट्रवाद के नवाचार’ के प्रभाव में दिख रहे हैं। यह प्रभाव और बदलाव वैचारिक है तो इसे स्वीकार करना चाहिए। समय बताएगा कि उनमें आया यह झुकाव और बदलाव सकारात्मक रहा कि नहीं कई बार तात्कालिक लाभ और अवसर बढ़ जाते हैं। कुछ और माँग होने लगती है। फिर एक नई ताक़त महसूस होती है। लेकिन वक़्त बीतने पर पता चलता है कि वह करियर की भारी भूल थी। फ़िलहाल देश में कथित ‘राष्ट्रवाद’ की लहर चल रही है और इसमें दिग्गज भी अपना पक्ष बदल रहे हैं।

कहना मुश्किल है कि कोविड-19 का कहर ख़त्म होने और ‘न्यू नॉर्मल’ के बाद क्या स्थिति होगी हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री निश्चित रूप से बदली प्राथमिकता, ज़रूरत और माँग से काम करेगी। कहा जा सकता है कि आउटसाइडर का फ़िल्म इंडस्ट्री में प्रवेश और दुरूह व अवरुद्ध होगा। कोई भी एजेंसी ‘इनसाइडर’ और ‘आउटसाइडर’ का लोकतांत्रिक निदान नहीं सुझा पा रही है। फ़िल्में कलात्मक उत्पाद हैं और आजकल उनके उत्पाद होने को अधिक महत्व दिया जा रहा है। फ़िल्म इंडस्ट्री फ़िल्मों का जटिल बाज़ार है। यहाँ कामयाबी का कोई स्पष्ट और आजमाया फ़ॉर्मूला नहीं है। हर कामयाबी एक नया फ़ॉर्मूला रचती है।

देखना यह होगा कि न्यू नॉर्मल में हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री और कंगना रनौत का परस्पर व्यवहार कैसा रहता है वह फ़िल्म इंडस्ट्री का अनिवार्य हिस्सा हैं, लेकिन…