कमाल की चीज़ है, हिंदी सिनेमा। समाज का हर ट्रेंड, मानवीय व्यवहार की हर गुत्थी, आपकी आम जिंदगी से जुड़े हर संदर्भ आपको किसी ना किसी हिंदी फिल्म में मिल जाएंगे। आज एक खास तरह ट्रेंड की बात कर रहा हूँ। ये ट्रेंड है, अपने उत्कर्ष के दिनों में लोकप्रियता के चरम पर रहे कलाकारों के सठियाने के बाद का रचनात्मक व्यवहार। दो उदाहरण सबसे बड़े हैं, देव आनंद और मनोज कुमार।
निर्देशक देव आनंद ने अपनी करनी से हर उस बड़े काम को धोने की पुरजोर कोशिश की है, जो कलाकार देव आनंद के नाम पर दर्ज हैं। लेकिन लकीर इतनी बड़ी थी कि धुंधली नहीं हो पाई, इसलिए लोग कहते हैं कि अगर छोटे भाई विजय आनंद ना होते तो देव आनंद भी ना होते।
बतौर निर्देशक देव आनंद ने स्वामी दादा से लेकर अव्वल नंबर, लूटमार और सौ करोड़ तक ना जाने कितनी फिल्में बनाई, सब एक से बढ़कर एक बकवास। खास बात ये है तीन घंटे की इन फिल्मों में कैमरा ढाई घंटे तक उनपर ही रहता था।
मनोज कुमार एक कदम आगे थे। बात समझनी हो कालजयी कृति `क्लर्क’ देखनी चाहिए। जिद ये कि सबसे बड़ा देशभक्त मैं रहूंगा, रोमांस मैं करूंगा, गाने मैं गाउंगा और तो और एक्शन भी मैं करूंगा। साठ साल की उम्र में तोंद पर हाफ स्वेटर चढ़ाये रेखा के साथ रोमैंटिक गीत गाते मनोज कुमार। शास्त्रों में माया इसी को कहा गया है।
ये माया उम्र बढ़ने के साथ बढ़ती चली जाती है। रोटी, कपड़ा और मकान बना तब मनोज कुमार की उम्र कम थी लेकिन रचनात्मक व्यवहार वही था। फिल्म में अपने साथ उन्होंने सह-अभिनेता के रूप में लगभग अनजान धीरज कुमार को रखा। दूसरे सह-अभिनेता तेजी से लोकप्रिय हो रहे अमिताभ बच्चन थे, जिन्हें फिल्म शुरू होने के दस मिनट के भीतर ही मनोज कुमार ने देशद्रोही और भ्रष्ट होने के इल्जाम में घर से निकाल दिया।
वो बेचारा पापों का प्रायश्चित करने के लिए सैनिक बना और वापस जब लौटा, तब तक महफिल लुट चुकी थी। फिल्म के कुछ आखिरी सीन बाकी थे। बड़े भइया मनोज कुमार जमाने की सबसे हॉट हीरोइन जीतन अमान के साथ बारिश में भीग चुके थे, कई रोमांटिक गाने गा चुके थे। भ्रष्टाचार से लड़ चुके और दिल जीतने वाले देशभक्ति से ओत-प्रोत डायलॉग बोलकर तालियां बटोर चुके थे।
सबसे सुंदर हीरोइन मेरे साथ, सबसे धांसू डायलॉग मेरे और कैमरा सबसे ज्यादा देर तक मुझपर। ये चिर-परिचित ट्रेंड हिंदी सिनेमा के सठियाते बड़े नायकों का है जो असल में भारतीय समाज का भी है। इतिहास में हम प्राचीन राजवंशों के पतन के जो कारण पढ़ते हैं, उसमें एक बड़ा कारण व्यक्तिगत शौर्य की जरूरत से ज्यादा प्रदर्शन की अभिलाषा भी थी।
एक हजार किलो का भाला, उड़ने वाला घोड़ा, दरख्तों के दो दुकड़े कर देने वाली धारदार तलवार, ब्रहांड को हिला देनेवाली धनुष की टंकार लेकिन फिर भी हार। जीवन हो या सिनेमा पटकथा लेखक का काम अलग होता है। वो अपने पैसे लेता है और चुपके से कट लेता है। फिल्म ज़रूर आत्म मुग्धता का प्रमाण पत्र बनकर सठियाये नायक के गले से लटक जाती है, जैसे क्लर्क मनोज कुमार के साथ लटकी हुई है।
(राकेश कायस्थ की फ़ेसबुक वाल से साभार)