पिछले कुछ दिनों में पहले ऑस्कर विजेता आर रहमान और अब रसूल पूकुट्टी ने हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री की खेमेबाज़ी को निशाना बनाया है। बीच में शेखर कपूर ने अपनी दार्शनिक और निर्णायक टिप्पणी से इसे ‘ऑस्कर अभिशाप’ घोषित कर दिया है। हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री के ख़िलाफ़ चल रही हवा के साथ उड़ रहे व्यक्तियों की धारणा मज़बूत हुई। लगभग समवेत स्वर से कहा गया कि ‘देखो, हम कहते थे न?’
बात शुरू हुई ए आर रहमान के एक इंटरव्यू से। रेडियो मिर्ची के आरजे सुरेन के शो में जब उनसे पूछा गया कि वे इन दिनों क्यों कम हिंदी फ़िल्में कर रहे हैं? ए आर रहमान ने कहा कि ‘हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में एक गैंग मेरे ख़िलाफ़ काम कर रहा है, जो मुझे काम मिलने से रोक रहा है। मैं अच्छी फ़िल्मों को मना नहीं करता लेकिन एक गैंग किसी ग़लतफहमी में ग़लत अफ़वाह फैला रहा है।’ उन्होंने आगे कहा कि “जब मुकेश छाबड़ा मेरे पास आए तो मैंने दो दिनों में उन्हें चार गाने दे दिए। उन्होंने मुझे बताया कि उनसे कहा गया, ‘ए आर रहमान के पास मत जाओ... उनके पास मत जाओ’। उन्होंने मुझे अनेक क़िस्से सुनाए।”
हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में ‘आउटसाइडर-इनसाइडर’ और ‘नेपोटिज़्म’ पर चल रही बहस के बीच ए आर रहमान की इस टिप्पणी का ख़ास संदर्भ बन गया। उँगलियाँ फ़िल्म इंडस्ट्री में मौजूद खेमेबाज़ी की तरफ़ उठ गईं। ए आर रहमान की इस टिप्पणी पर आई ख़बर को टैग करते हुए शेखर कपूर ने ट्वीट कर दिया, ‘ए आर रहमान क्या आप अपनी प्रॉब्लम जानते हैं? आप को ऑस्कर मिला। बॉलीवुड में ऑस्कर मौत का चुंबन है। इसका मतलब है कि आप की प्रतिभा को बॉलीवुड नहीं संभाल सकता।’
शेखर कपूर के इस ट्वीट ने बहस को और भड़काया। दो दिनों के अंदर रसूल पूकुट्टी का ट्वीट आ गया। उन्होंने शेखर कपूर को मेंशन करते हुए लिखा, “प्रिय शेखर कपूर, आप मुझसे पूछिए मैं लगभग टूट चुका था, क्योंकि हिंदी फ़िल्म (इंडस्ट्री) में मुझे कोई काम नहीं दे रहा था। रीजनल सिनेमा ने ऑस्कर के बाद मुझे संभाला। कुछ प्रोडक्शन हाउस ने सीधे मेरे मुँह पर कहा- ‘हमें आपकी ज़रूरत नहीं है’ फिर भी मैं अपनी इंडस्ट्री से प्यार करता हूँ।”
रसूल पूकुट्टी ने कुल चार ट्वीट किए। उनके ट्वीट का सार यही था कि ‘मैं हॉलीवुड में काम कर सकता था, लेकिन मैं नहीं गया और ना कभी जाऊँगा। भारत में किए काम से मुझे ऑस्कर मिला है।’ रसूल पूकुट्टी ने इस स्थिति की चर्चा एकेडमी के सदस्यों से की तो उन्होंने भी ‘ऑस्कर अभिशाप’ का हवाला दिया। उस दौर के लिये सच्चाई यही है कि जब आप ऊँचाई पर होते हैं तो लोग आप को दूर रखते हैं।’
हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में मौजूद खेमेबाज़ी और ‘मिडियोक्रिटी’ से इंकार नहीं किया जा सकता। इस इंडस्ट्री में औसत और साधारण काम का चलन है। बगैर हील-हुज्जत और नखरे (अहं) के कोई काम करता रहे तो उसे कोई दिक्कत नहीं होती।
मणिरत्नम की फ़िल्मों के ज़रिए हिंदी फ़िल्मों में आए ए आर रहमान को हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री के दिग्गज निर्माताओं ने उन्हें सिर पर बिठाया और उनकी शर्तों पर काम किया। उन्होंने नई, मधुर और बेहतरीन धुनों से हिंदी फ़िल्मों के संगीत संसार को समृद्ध किया। ऑस्कर मिलने के बाद उनकी इंटरनेशनल पहचान बनी। उन्हें हॉलीवुड और चीन की फ़िल्में मिलीं। उन्होंने विदेशों में कुछ अलग काम भी किए। भारत में उनकी दुर्लभता और पसंद की चुनिंदा फ़िल्मों की प्राथमिकता ने हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री के आम निर्माताओं को उनसे दूर किया।
ए आर रहमान पर आरोप!
‘दिल बेचारा’ के ताज़ा प्रसंग के पहले हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में यह आम राय थी कि ए आर रहमान की दी गई कोई भी धुन आख़िरी होती है। उसमें कोई भी बदलाव मुमकिन नहीं होता। ऐसी ज़िद निर्देशकों को नागवार गुजरती थी। फ़िल्म संगीत की रचना में हमेशा ज़रूरत और चाहत के मुताबिक़ तब्दीली की गुंज़ाइश बनी रहती है। इसके साथ उनसे मिलना सभी निर्माता-निर्देशकों के लिए इतना सहज नहीं रह गया था जितना रेडियो मिर्ची के इंटरव्यू से झलक रहा है। एक तो सभी को चेन्नई जाना पड़ता था और ए आर रहमान से मिलने के लिए उनके ऑफ़िस में घंटों इंतज़ार करना पड़ता था।
ताज़ा विवाद के बहुत पहले एक निर्देशक ने ए आर रहमान के साथ काम करने की अपनी कोशिश का कटु अनुभव सुनाया था कि उन्हें यह सब बेहद अपमानजनक लगा था। उनकी राय में ए आर रहमान ‘म्यूजिक गॉड’ हो गए हैं। और ऊपर से उनकी फ़ीस एवं माँग व शर्तें सभी को स्वीकार नहीं होतीं। शर्तों पर हुई अनबन की वजह से ही उन्होंने शाहरुख ख़ान और दीपिका पादुकोण की फ़िल्म ‘ओम शांति ओम’ छोड़ी थी। इसके बाद से म्यूजिक कंपनियों ने उनके साथ सहयोग करना कम कर दिया क्योंकि उनके मुताबिक़ वे कॉपीराइट के तहत ज़्यादा अधिकार माँगने लगे थे।
इन सभी बातों के अलावा ए आर रहमान हिंदी फ़िल्मों के दूसरे संगीतकारों की तुलना में इतने महंगे हो गए थे कि हर निर्माता उन्हें अफोर्ड नहीं कर सकता था। ऑस्कर अवार्ड मिलने के बाद रसूल पूकुट्टी की भी फ़ीस बढ़ गई थी। उनके साथ काम करने के इच्छुक अनेक निर्माताओं ने उनसे संपर्क करने के पश्चात फ़ीस सुन कर अपने हाथ खींच लिए थे।
हिंदी फ़िल्म में शेखर कपूर की दुर्लभता भी विख्यात है। वह अत्यंत महँगे, ज़िद्दी और विशेष निर्देशक हो चुके हैं। ‘पानी’ को लेकर उनके और यशराज के बीच जो कुछ हुआ, उसकी बड़ी वजह फ़िल्म का बजट और शेखर कपूर की फ़ीस रही है। यशराज एक निश्चित बजट में ‘पानी’ का निर्माण करना चाहता था जबकि शेखर कपूर की माँग की वजह से बजट बढ़ता जा रहा था। हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में इन दिनों गुलज़ार और जावेद अख्तर को भी गीत लिखने के लिए शायद ही कोई अनुबंधित करता है। इसे दक्षिण और मुंबई के एंगल से नहीं देखा जाना चाहिए।
हिंदी फ़िल्म को लेकर चालू बहस और विवाद में ए आर रहमान, शेखर कपूर और रसूल पूकुट्टी के बयान और ट्वीट, मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री की नेगेटिव छवि मज़बूत करते हैं। मीडिया और सोशल मीडिया विवाद की ‘बहती गंगा’ में हाथ धो रही है। ज़रूरत है कि ताज़ा बयान और ट्वीट के पीछे जाकर सारे तथ्यों और संदर्भों को खंगाल कर उन पर टिप्पणी की जाए। फिर कोई धारणा बनाई जाए।