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रामविलास पासवान का उत्तराधिकारी बनना चिराग के लिये आसान नहीं!

रामविलास पासवान का उत्तराधिकारी बनना चिराग के लिये आसान नहीं!

चुनावी मौसम गुजरने के बावजूद बिहार में राजनीतिक पारा गर्म है। लोक जनशक्ति पार्टी में उठापटक चालू है।

चुनावी मौसम गुजरने के बावजूद बिहार में राजनीतिक पारा गर्म है। लोक जनशक्ति पार्टी में उठापटक चालू है। ताजा घटनाक्रम में चिराग पासवान को हटाकर पशुपति कुमार पारस को एलजेपी का नया अध्यक्ष चुना गया है। जबकि चिराग पासवान ने पार्टी के संविधान का हवाला देते हुए कहा है कि उनके चाचा पशुपति कुमार पारस को ना तो संसदीय दल का नेता बनाया जा सकता है और ना ही वे पार्टी के अध्यक्ष हो सकते हैं। जाहिर तौर पर यह पार्टी और रामविलास पासवान की विरासत को हथियाने की लड़ाई है।

लगता है कि पहली बाजी पशुपति पारस ने जीत ली है। लेकिन बिहार की नब्ज समझने वाले कुछ पत्रकारों और राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि एलजेपी के समर्थक चिराग को अपना स्वाभाविक नेता मानते हैं। जबकि पारस की कोई जमीनी पकड़ नहीं है। 

एलजेपी का समर्थक और वोटर चिराग में रामविलास पासवान की छवि देखता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या चिराग रामविलास पासवान की विरासत पर कब्जा कर पाएंगे?

पंचायत चुनाव नज़दीक 

लोकसभा और विधानसभा के चुनाव अभी दूर हैं, लेकिन बिहार में जल्दी ही पंचायत चुनाव होने वाले हैं। रामविलास की विरासत का असली हकदार कौन है, इसका फैसला पंचायत चुनाव में हो सकता है। लेकिन सवाल यह है कि चिराग बिहार में टिककर राजनीति करेंगे अथवा दिल्ली में बैठकर पार्टटाइम पॉलीटिक्स करेंगे? आज के हालात में दिल्ली और मुंबई में रहते हुए चिराग राजनीति में सफल नहीं हो सकते। 

फिलहाल उन्हें तीन मोर्चों पर लड़ना है। उनकी पहली लड़ाई पार्टी पर कब्जे को लेकर है। क्या चिराग पशुपति पारस को पार्टी से हटा पाएंगे? राजनीतिक कुशलता तो तब है जब चिराग छिपे हुए शत्रु की चाल को नाकाम करने के लिए पारस को चित्त ही ना करें बल्कि अपने पाले में भी ले आएं। लेकिन विरासत से निकले नई पीढ़ी के 'राजकुमारों' में इतनी रणनीतिक कुशलता नहीं दिखाई देती। अक्सर देखने में आया है कि नए-नवेले नेता अपनी अहमन्यता और अकड़ से पार्टी और खुद का बहुत नुकसान कर बैठते हैं।

 - Satya Hindi

बिहार में अलग लड़े चिराग

एलजेपी में टूट और पारस के कब्जे की पटकथा संभवतया बहुत पहले लिखी जा चुकी थी। दरअसल, बिहार  विधानसभा चुनाव में चिराग ने एनडीए से अलग होकर 136 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे। उन्होंने अपने 'राम' के इशारे पर या उन्हें खुश करने के इरादे से नीतीश कुमार की पार्टी को नुकसान पहुंचाने के लिए अकेले लड़ने का जोखिम लिया था। 

अलग चुनाव लड़ने का एलान करते हुए चिराग ने खुद को नरेंद्र मोदी का हनुमान बताया था। उस दरमियान नरेंद्र मोदी की खामोशी इस बात की गवाह है कि चिराग के इस कदम से बीजेपी आलाकमान खुश था।

चुनाव में एलजेपी को 6 फ़ीसदी और 25 लाख वोट मिले। लेकिन चिराग केवल एक ही सीट जीत पाए। अलबत्ता वे अपने राम की मदद करने में कामयाब हुए। नीतीश कुमार की जेडीयू को सीधे तौर पर करीब 36 सीटों पर हार का सामना करना पड़ा। इसके बावजूद नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने। बीजेपी के मंसूबे धरे रह गए। 

देखिए, इस विषय पर चर्चा- 

नीतीश कुमार का खेल

बिहार की राजनीति में नीतीश एक मंझे हुए खिलाड़ी माने जाते हैं। सरकार में साथ होते हुए भी बीजेपी से उनका शह-मात का खेल चलता रहता है। माना जाता है कि एलजेपी में फूट और चिराग को अलग-थलग करने के पीछे भी नीतीश कुमार की भूमिका है। इस पटकथा को शायद उन्होंने ही लिखा है। इसके मार्फत नीतीश कुमार ने चिराग से अपना हिसाब चुकता किया है। 

जाहिर है कि चिराग को बिहार में राजनीति करने के लिए नीतीश कुमार और उनके रणनीतिक कौशल से भी जूझना होगा। यह उनके संघर्ष का दूसरा मोर्चा है। 

चिराग-तेजस्वी साथ आएंगे?

इसके लिए चिराग क्या तेजस्वी यादव से हाथ मिलाएंगे? तेजस्वी के साथ चिराग के रिश्ते ठीक-ठाक हैं। दोनों नौजवान हैं। बिहार में दोनों का राजनीतिक दुश्मन एक है। लेकिन चिराग द्वारा स्वघोषित नरेंद्र मोदी का हनुमान होना इस दोस्ती के मुफीद नहीं है। एलजेपी की टूट के समय चिराग ने अपने राम का स्मरण करते हुए उलाहने के अंदाज में कहा था कि 'वह राम ही क्या जो हनुमान के दिल की फरियाद ना सुन सके।' 

इशारों-इशारों में चिराग ने अपना संदेश नरेंद्र मोदी तक पहुंचा दिया था। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम के पीछे खुद नरेंद्र मोदी की भूमिका भी संदिग्ध है। लोकसभा स्पीकर ओम बिरला ने चिराग के स्थान पर पशुपति कुमार पारस को एलजेपी के संसदीय दल का नेता स्वीकार कर लिया है। 

साथ ही माना जा रहा है कि रामविलास पासवान के निधन के बाद हुए रिक्त स्थान पर पशुपति पारस को मंत्री बनाया जा सकता है। ऐसी अटकलों से साफ है कि बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने चिराग का इस्तेमाल करके छोड़ दिया है। 

चिराग के लिए सबसे जरूरी और कठिन मोर्चा है, जनमानस के बीच अपनी पकड़ बनाए रखना। क्या चिराग रामविलास पासवान की खाली जगह को भर सकते हैं? 

रामविलास पासवान को बिहार में दलित राजनीति का खेवनहार माना जाता था। दलित और खासकर पासवान बिरादरी का नेता बनने में क्या चिराग को कामयाबी मिल सकती है?

विरासत चिराग के पास!

माना जाता है कि बिहार की दलित आवाम चिराग में ही रामविलास पासवान की छवि देखती है। ज्यादातर लोगों का मानना है कि वारिस होने के नाते चिराग को लोगों का स्नेह और विश्वास प्राप्त है। पशुपति पारस द्वारा पार्टी पर कब्जा करने के दौरान बहुत लोगों को रोते और दुखी होते देखा गया। इसका मतलब है कि ऐसे लोग चिराग में ही रामविलास को देखते हैं। 

इसका एक दूसरा पहलू भी है। शुरुआती दौर से ही पार्टी से जुड़े रहे बहुत से नेता चिराग की अहमन्यता से नाराज हैं। वैचारिक रूप से समृद्ध दलित और पिछड़ी जमात के लोगों का मानना है कि रामविलास पासवान की मान्यताओं को चिराग ने सिर के बल खड़ा कर दिया है। रामविलास पासवान नास्तिक थे और ब्राह्मणवादी कर्मकांडों से कतई दूर रहते थे। लेकिन उनकी दूसरी पत्नी रीना शर्मा और बेटे चिराग ने अंतिम समय में उनके मानस पर कब्जा जमा लिया था। 

रामविलास पासवान के बेहद नजदीक रहे दीनानाथ क्रांति कहते हैं कि 'पासवान को उनकी पत्नी और बेटे ने बंधक बना लिया था।' इसका ही नतीजा था कि 2013 में उन्होंने चिराग को पार्टी के संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बनाया। 2014 के लोकसभा चुनाव में एनडीए के साथ जाने के फैसले के पीछे भी चिराग ही थे। ये तमाम घटनाक्रम चिराग को रामविलास पासवान के मूल्यों और उनकी राजनीतिक जमीन का असली वारिस होना संदिग्ध बनाते हैं। 

कुछ लोगों का मानना है कि रीना शर्मा का बेटा होने के नाते चिराग दलितों से उस अपनेपन और जिंदादिली के साथ नहीं जुड़ सकते। तब चिराग पासवान बिहार में दलित राजनीति की बागडोर कैसे संभाल पाएंगे? इस सवाल का जवाब तो आने वाले दौर में ही मिलेगा।

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