आँध्र प्रदेश में जम्मू-कश्मीर की तरह विपक्षी नेताओं को नज़रबंद क्यों किया गया है? क्या आँध्र प्रदेश में इतने बुरे हालात हैं कि सरकार को स्थिति अनियंत्रित होने का डर है? और यदि हालात सामान्य हैं तो फिर पूर्व मुख्यमंत्री और तेलुगु देशम पार्टी यानी टीडीपी नेता चंद्रबाबू नायडू सहित पार्टी के कई नेताओं को नज़रबंद क्यों किया गया है? राज्य में सबकुछ सामान्य दिख रहा था और इसी बीच नायडू ने एक रैली करने की घोषणा की। वाईएसआर कांग्रेस पार्टी यानी वाईएसआरसीपी के मुखिया और राज्य के मुख्य मंत्री को हिंसा भड़कने की आशंका दिखी। और इसी के साथ टीडीपी के नेताओं को नज़रबंद कर दिया गया। बिल्कुल जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ़्ती जैसे विपक्षी दलों के नेताओं की तरह। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या विपक्ष को दबाने का नज़रबंदी एक औजार बन गयी है? अनुच्छेद 370 में फेरबदल के बाद जम्मू-कश्मीर में इसको आजमाया गया और अब इसे आंध्र प्रदेश में आजमाया जा रहा है। क्या दूसरी सरकारें भी विपक्ष को दबाने और राजनीतिक बदले के लिए इसका प्रयोग नहीं करने लगेंगी?
आँध्र प्रदेश में जिस तरह से राजनीतिक गतिविधियाँ एकाएक तेज़ हुई हैं, वह असामान्य है। दरअसल मामला सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ विरोध-प्रदर्शन का है। वाईएस जगनमोहन रेड्डी के नेतृत्व वाली सरकार के ख़िलाफ़ बड़े स्तर पर प्रदर्शन में भाग लेने से रोकने के लिए चंद्रबाबू नायडू, उनके बेटे नारा लोकेश और टीडीपी के कई नेताओं को घर में नज़रबंद रखा गया है। पुलिस ने राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता से प्रभावित हिंसा से सबसे ज़्यादा प्रभावित पलनाडु क्षेत्र में पुलिस द्वारा बड़ी सभाओं पर प्रतिबंध लगाया गया है। पलनाडु और गुंटूर ज़िले का क्षेत्र कथित तौर पर हिंसा प्रभावित है।
नायडू ने पुलिस की कार्रवाई को 'अत्याचारी' और 'इतिहास में अभूतपूर्व' क़रार दिया। उन्होंने कहा, ‘यह लोकतंत्र के लिए एक काला दिन है।’ नायडू ने अपने घर पर पत्रकारों से कहा, ‘यह सरकार मानवाधिकारों और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर रही है। मैं सरकार को चेतावनी दे रहा हूँ। मैं पुलिस को भी चेतावनी दे रहा हूँ। आप हमें गिरफ़्तार करके हमें नियंत्रित नहीं कर सकते।’ वह शाम 8 बजे तक उपवास पर भी बैठेंगे। नायडू ने यह भी कहा कि नज़रबंदी से छूटने के बाद वह अत्माकुर जाएँगे।
टीडीपी ने प्रदर्शन की योजना सत्ताधारी पार्टी आईएसआरसीपी की कथित धमकियों के विरोध में बनाई है। चंद्रबाबू नायडू की पार्टी ने आरोप लगाया है कि रेड्डी की पार्टी की ओर से टीडीपी के कई कार्यकर्ताओं को धमकियाँ दी जा रही हैं और आठ कार्यकर्ताओं की हत्या भी कर दी गई है।
वाईएसआरसीपी ने हिंसा के इन आरोपों को ख़ारिज़ किया है और कहा है कि एक झूठा नैरेटिव तैयार कर मुद्दा बना रहे हैं।
नज़रबंदी क्या लोकतंत्र पर हमला?
चंद्रबाबू के बेटे नारा लोकेश को भी प्रदर्शन में शामिल होने से रोक दिया गया। उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी लोकतांत्रिक तरीक़े से चल रही थी लेकिन सभी नेताओं को नज़रबंद कर लिया गया। उन्होंने इसे लोकतंत्र की हत्या बताया। उन्होंने कहा कि यह तानाशाही है। लोकेश ने कहा कि वाईएसआरसीपी के विधायक हमें खुलेआम धमका रहे हैं। ऐसे ही आरोप जम्मू-कश्मीर में भी विपक्षी नेता तब से लगाते रहे हैं जब अनुच्छेद 370 में फेरबदल कर राज्य का विशेष दर्जा ख़त्म कर दिया गया था। उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ़्ती ने भी लोकतांत्रिक अधिकारों के छीने जाने के आरोप लगाये थे। महबूबा की बेटी इल्तिजा ने तो यहाँ तक आरोप लगाए थे कि जानवरों जैसा व्यवहार किया जा रहा है।
जम्मू-कश्मीर में नज़रबंदी क्यों?
बता दें कि जम्मू-कश्मीर में स्थिति आंध्र प्रदेश से अलग है। आँध्र प्रदेश में जहाँ राज्य सरकार और इसकी नीतियों के ख़िलाफ़ रैली और प्रदर्शन प्रस्तावित हैं, वहीं जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा समाप्त करने का मामला है। जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त कर इसे दो टुकड़ों में बाँटकर केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया है। यह हर कश्मीरी को प्रभावित करने वाला फ़ैसला है और इसकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही तीखी होने की आशंका रही है। यही कारण है कि बड़े स्तर पर पाबंदी लगाई गई, संचार साधन पर रोक लगा दी गई और बड़ी संख्या में सशस्त्र जवान तैनात किए गए। सरकार की ऐसी कार्रवाई पर सवाल उठे। लोगों को काफ़ी दिक़्क़तें आईं। लोगों के मौलिक अधिकारों के हनन की शिकायतें की गईं। लंबे समय तक पाबंदी लगाने के लिए सरकार को निशाने पर लिया गया। सामाजिक कार्यकर्ता जम्मू-कश्मीर के लोगों के साथ खड़े दिखे।
नज़रबंदी के मायने क्या?
नज़रबंदी की आलोचनाओं के बावजूद सरकार इसको जब तब क़ानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए लागू करती रही है। प्रशासन इसको लेकर तर्क देता है कि जब किसी व्यक्ति की वजह से हिंसा बढ़ने की आशंका रहती है तो नज़रबंदी का तरीक़ा अपनाया जाता है। बता दें कि भारतीय क़ानून में हाउस अरेस्ट यानी नज़रबंदी का ज़िक्र नहीं है। इसका मतलब सिर्फ़ इतना होता है कि गिरफ़्तार किया गया व्यक्ति अपने घर से बाहर नहीं निकल पाए। इसमें व्यक्ति को थाने या फिर जेल नहीं ले जाया जाता है।
हाउस अरेस्ट के दौरान गिरफ़्तार व्यक्ति किस से बात करे, किससे नहीं, इस पर पाबंदी लगाई जा सकती है। उन्हें सिर्फ़ घर के लोगों और अपने वकील से बातचीत की इजाज़त दी जा सकती है।
इस पूरे मामले में इतना तो साफ़ है कि नज़रबंदी कोई सामान्य स्थिति नहीं है। बहुत बड़े स्तर पर हिंसा फैलने या सरकार पर इसका बुरा प्रभाव पड़ने की आशंका के बाद ही नज़रबंदी जैसे क़दम उठाए जाते हैं। क्या आँध्र प्रदेश में वैसी स्थिति है? क्या राजनीतिक फ़ायदे के लिए दूसरी सरकारें इसे परिपाटी के तौर पर तो इस्तेमाल नहीं करने लगेंगी?