केंद्र सरकार ने अब कहा है कि राज्य भी अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा दे सकते हैं। इसने यह बात हलफनामा देकर तब कही है जब राज्य स्तर पर अल्पसंख्यकों की पहचान करने और उन राज्यों में हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा देने के राजनीतिक रूप से संवेदनशील सवाल पर स्टैंड नहीं लेने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की खिंचाई की थी। 31 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार पर 7,500 रुपये का जुर्माना लगाया था और उसे जवाब देने के लिए 'एक और मौका' दिया था।
खिंचाई किए जाने के बाद केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने कहा कि राज्य सरकारें राज्य के भीतर एक धार्मिक या भाषाई समुदाय को अल्पसंख्यक समुदाय घोषित कर सकती हैं। इसने यह भी कहा कि यह समवर्ती सूची में है जिसे केंद्र या राज्य दोनों तय कर सकते हैं। सरकार की यह प्रतिक्रिया उस मामले में आई है जिसमें 2020 में ही इसको लेकर एक याचिका दाखिल की गई थी। वकील अश्विनी उपाध्याय की याचिका में कहा गया था कि 2011 की जनगणना के अनुसार, लक्षद्वीप, मिज़ोरम, नागालैंड, मेघालय, जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और पंजाब में हिंदू अल्पसंख्यक हैं और उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाना चाहिए।
सरकार की यह प्रतिक्रिया ऐसे वक़्त में आई है जब 'द कश्मीर फाइल्स' फिल्म आने के बाद कश्मीरी पंडितों का मुद्दा उठा है। बीजेपी सरकारें इस फिल्म को यह कहकर बढ़ावा दे रही हैं कि इसमें कश्मीरी पंडितों के साथ हुए अत्याचार और अन्याय को अब ठीक से बताया गया है। हालाँकि, विपक्षी दलों के नेता बीजेपी पर राजनीति करने का आरोप लगा रहे हैं और पूछ रहे हैं कि इतने साल सत्ता में होने के बाद इसने कश्मीरी पंडितों के लिए क्या किया?
सवाल यह भी पूछा जा रहा है कि बीजेपी सरकार ने कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए क्या क़दम उठाए और क्या इसने उन्हें न्याय दिलाया।
जम्मू कश्मीर में कश्मीरी पंडितों की ऐसी स्थिति के बीच वहाँ हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा दिए जाने की मांग जब तब होती रही है। इसके अलावा लक्षद्वीप, मिज़ोरम, नागालैंड, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर जैसे राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में भी ऐसी ही मांग की जाती रही है।
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 की धारा 2 (सी) के तहत केंद्र ने 1993 में पांच समुदायों - मुसलिम, सिख, बौद्ध, पारसी और ईसाई को अल्पसंख्यक के रूप में अधिसूचित किया था।
इस अधिनियम में हिंदुओं का ज़िक्र नहीं था इसलिए इस धारा को रद्द करने की मांग भी की गई थी। द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार अश्विनी उपाध्याय ने सबसे पहले 2017 में अल्पसंख्यकों की पहचान के लिए उचित दिशा-निर्देशों के लिए शीर्ष अदालत का रुख किया था। उसमें उन्होंने उन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में हिंदुओं को अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में घोषित करने की मांग की थी जहाँ उनकी संख्या बहुसंख्यक समुदाय से कम थी।
1993 की केंद्रीय अधिसूचना को रद्द करने की मांग करते हुए उपाध्याय ने कहा था कि जैन को भी 2014 में अल्पसंख्यकों की सूची में जोड़ा गया था, लेकिन कुछ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में अल्पसंख्यक होने के बावजूद हिंदू नहीं जोड़े गए थे।
बहरहाल, केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दिए हलफनामे में बताया है कि महाराष्ट्र ने 2016 में यहूदियों को अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में अधिसूचित किया था और कर्नाटक ने उर्दू, तेलुगु, तमिल, मलयालम, मराठी, तुलु, लमानी, हिंदी, कोंकणी और गुजराती को अल्पसंख्यक भाषाओं के रूप में अधिसूचित किया था।
सरकार ने तर्क दिया है कि, "इसलिए लद्दाख, मिजोरम, लक्षद्वीप, कश्मीर, नागालैंड, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब और मणिपुर में यहूदी, बहावी और हिंदू धर्म के अनुयायियों को अल्पसंख्यक घोषित कर सकते हैं और अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान स्थापित कर सकते हैं। संबंधित राज्य अपनी पसंद के संस्थानों और राज्य स्तर पर अल्पसंख्यक की पहचान के लिए दिशानिर्देश निर्धारित करने पर विचार कर सकते हैं।
याचिका को खारिज करने की मांग करते हुए केंद्र ने हलफनामे में कहा कि 'याचिकाकर्ता द्वारा मांगी गई राहत बड़े सार्वजनिक या राष्ट्रीय हित में नहीं है'। अब इस पर अगली सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट फ़ैसला लेगा।