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दो से अधिक बच्चे पैदा करना तो संघ और बीजेपी के एजेंडे पर रहा है?

दो से अधिक बच्चे पैदा करना तो संघ और बीजेपी के एजेंडे पर रहा है?

मोहन भागवत ने 20 अगस्त 2016 को आगरा में आरएसएस से जुड़े शिक्षकों के सम्मेलन में कहा था कि हिंदुओं को अपनी आबादी बढ़ाने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा बच्चे पैदा करना चाहिए। बीजेपी और संघ का क्या रहा है रुख?

जिस तरह इस समय उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को लेकर माहौल गरमा रहा है, इसी तरह ठीक पांच साल पहले यानी 2016 के जुलाई-अगस्त में भी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए माहौल गरमाने लगा था। इससे दो साल पहले केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन चुकी थी। पार्टी का अगला बड़ा लक्ष्य उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने का था। इस लक्ष्य को पाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पूरी तरह सक्रिय हो चुका था। संघ के मुखिया मोहन राव भागवत प्रदेश भर में घूम-घूम कर हिंदू संगठनों के बीच सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने वाले भाषण दे रहे थे।

इसी सिलसिले में भागवत ने 20 अगस्त 2016 को आगरा में आरएसएस से जुड़े शिक्षकों के सम्मेलन में कहा था कि हिंदुओं को अपनी आबादी बढ़ाने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा बच्चे पैदा करना चाहिए। 'राष्ट्र के पुनर्निर्माण में शिक्षकों की भूमिका’ विषय पर भाषण देते हुए भागवत ने कहा था,

'जब दूसरे धर्म वाले ज़्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं तो हिंदुओं को ऐसा करने से किसने रोक रखा है। कौन सा क़ानून कहता है कि हिंदुओं की आबादी नहीं बढ़नी चाहिए।’ 

दरअसल हिंदुओं को ज़्यादा से ज़्यादा बच्चे पैदा करने के लिये प्रोत्साहित करना आरएसएस का पुराना आधिकारिक कार्यक्रम है। इसलिए भागवत ने जो कहा था, उसमें नया कुछ नहीं था। यह बात भागवत से पहले अन्य सर संघचालक भी कहते रहे हैं। भागवत के पूर्ववर्ती संघ प्रमुख केएस सुदर्शन ने भी 17 नवंबर 2005 को भोपाल में एक बयान में कहा था कि हर हिंदू दंपति को कम से कम तीन बच्चे तो पैदा करना ही चाहिए। इससे भी ज़्यादा कर सके तो ज़्यादा अच्छा होगा।

सिर्फ़ आरएसएस के नेता ही नहीं, बल्कि आरएसएस से जुड़े शंकराचार्य भी हिंदुओं से ज़्यादा बच्चे पैदा करने की बात कहते रहे हैं। जोशीमठ के शंकराचार्य वासुदेवानंद सरस्वती ने भी 17 जनवरी 2015 को इलाहाबाद के माघ मेले में आयोजित संत सम्मेलन में हिंदुओं को दस-दस बच्चे पैदा करने का आह्वान किया था। उन्होंने कहा था,

'जिस तेज़ी से हिंदुओं की आबादी कम हो रही है और दूसरे धर्मों की बढ़ रही है, उससे लगता है कि कुछ सालों में भारत में हिंदू अल्पसंख्यक हो जाएंगे। आज हिंदुओं की बड़ी आबादी के कारण ही नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन सके हैं। अगर हिंदू आबादी घट गई तो दूसरे धर्मों के लोग प्रधानमंत्री बनेंगे।’

भागवत और वासुदेवानंद के इन बयानों से भी पहले आरएसएस के मौजूदा सरकार्यवाह यानी महासचिव दत्तात्रेय होसबोले ने 26 अक्टूबर  2013 को कोच्चि में आरएसएस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के मौक़े पर पत्रकारों से चर्चा करते हुए कहा था कि जनसंख्या असंतुलन पर काबू पाने के लिए हर हिंदू को कम से कम तीन बच्चे पैदा करना चाहिए। होसबोले उस समय आरएसएस के सह सरकार्यवाह यानी संयुक्त महासचिव हुआ करते थे। उन्होंने कहा था,

'धर्मांतरण, हिंदुओं की जन्म दर में गिरावट और बांग्लादेशी घुसपैठियों की वजह से देश में जनसांख्यिकीय बदलाव आए हैं। इसलिए किसी भी समुदाय पर 'परिवार नियोजन’ लागू नहीं होना चाहिए। संतुलित विकास के लिए जनसंख्या संतुलन बेहद ज़रूरी है। हिंदू परिवार बड़े होंगे तो देश के कई हिस्सों में अल्पसंख्यकों को जनसंख्या के स्तर पर आगे बढ़ने का मौक़ा नहीं मिलेगा।’

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जनसंख्या को लेकर भागवत, वासुदेवानंद और दत्तात्रेय होसबोले के ये बयान तो महज बानगी हैं। अन्यथा आरएसएस, बीजेपी और इनके तमाम बगल बच्चा संगठनों के नेता, साक्षी महाराज और चिन्मयानंद जैसे साधु-साध्वियों की जमात और यहाँ तक कि कई सांसद, विधायक और मंत्री भी इसी आशय के जहरीले और विभाजनकारी बयान आए दिन देते रहते हैं। यही नहीं गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी जब-तब मुस्लिम आबादी को लेकर अपने भाषणों में कटाक्ष करते रहते थे। 

गुजरात में 2002 की व्यापक सांप्रदायिक हिंसा के शिकार मुसलमानों के राहत शिविरों को उन्होंने कई मौकों पर बच्चे पैदा करने के कारखाने कह कर उनका उपहास उड़ाया था।

हालांकि प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने इस तरह के कटाक्ष करना बंद कर दिए। उन्होंने मोहन भागवत, शंकराचार्य वासुदेवानंद या साक्षी महाराज की तरह हिंदुओं से ज़्यादा बच्चे पैदा करने को भी नहीं कहा और न ही कभी देश की बढ़ती आबादी से जुड़ी चुनौतियों और चिंताओं का ज़िक्र किया। इसके विपरीत उन्होंने देश में और देश के बाहर कई मौक़ों पर देश की विशाल जनसंख्या खासकर युवा आबादी को डेमोग्राफिक डिविडेंड बताते हुए उसके फायदे ही गिनाए। 

दो साल पहले 15 अगस्त, 2019 को स्वाधीनता दिवस के मौक़े पर लाल क़िला से देश को संबोधित करते हुए उन्होंने ज़रूर बढ़ती आबादी पर चिंता जताई थी। उन्होंने कहा था कि हमारे देश में जो बेतहाशा जनसंख्या विस्फोट हो रहा है, वह हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए कई तरह के संकट पैदा करेगा।

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बढ़ती जनसंख्या को लेकर प्रधानमंत्री मोदी की इस चिंता की वजह यह थी कि उस समय तक देश की अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में हर तरफ़ से बुरी ख़बरों के आने का सिलसिला तेज़ हो गया था। महंगाई और बेरोज़गारी बेतहाशा बढ़ने लगी थी और सकल घरेलू उत्पादन यानी जीडीपी में लगातार तेज गिरावट आने लगी थी। यानी कुल मिला कर देश की अर्थव्यवस्था ध्वस्त होने का सिलसिला तेजी से शुरू हो चुका था। चूँकि इस स्थिति के लिए प्रधानमंत्री अपनी सरकार की दोषपूर्ण नीतियों और फ़ैसलों को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकते थे, सो उनका देश की बढ़ती जनसंख्या पर चिंता जताना लाजिमी था।

लेकिन उनका यह पैंतरा परिस्थितिजन्य था, जैसे कि इस समय इस पैंतरे को उत्तर प्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण क़ानून बनाने की पहल करते हुए योगी आदित्यनाथ की अगुवाई वाली भाजपा सरकार आजमा रही है।

उत्तर प्रदेश सरकार की इस पहल को ढिंढोरची मीडिया के ज़रिए इस तरह प्रचारित किया जा रहा है मानो जनसंख्या नियंत्रण क़ानून पहली बार उत्तर प्रदेश में ही बनाया जा रहा है। जबकि हकीकत यह है कि ऐसा क़ानून देश के अन्य दस राज्यों- मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, असम और ओडिशा में पहले से ही लागू है। इनमें से ज़्यादातर राज्यों में यह क़ानून कांग्रेस की सरकारों के समय में बने थे। इन सभी राज्यों के जनसंख्या नियंत्रण क़ानून में लगभग एक जैसे प्रावधान हैं। राज्यों में ऐसे क़ानून लागू करने का मक़सद जनसंख्या नियंत्रण के लिए आम लोगों को प्रोत्साहित करना है।

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उत्तर प्रदेश से पहले जिन राज्यों में ऐसा क़ानून लागू किया गया, वहाँ जरा भी शोर नहीं मचा। लेकिन उत्तर प्रदेश में आगामी फरवरी-मार्च में विधानसभा चुनाव होना है, लिहाजा चुनावी फायदे के लिए योगी सरकार इस क़ानून के ज़रिए अपने वोट बैंक को संदेश दे रही है। गौरतलब है कि भाजपा ने पिछला चुनाव भी राज्य में व्यापक सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बूते ही जीता था और इस बार भी वह ध्रुवीकरण के सहारे ही अपना चुनावी सफर तय करना चाहती है। जनसंख्या नियंत्रण क़ानून के ज़रिए भी वह यही करने जा रही है।  

राष्ट्रीय स्तर पर हिंदुत्व का पोस्टर ब्वॉय या आइकॉन बनने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से होड़ कर रहे योगी आदित्यनाथ भले ही इस क़ानून के ज़रिए ध्रुवीकरण करना चाहते हों, मगर इस प्रस्तावित क़ानून की शक्ल और उत्तर प्रदेश की सामाजिक संरचना ऐसी है कि इस क़ानून से मुसलमान या अन्य अल्पसंख्यक वर्ग तो प्रभावित नहीं होंगे पर इसका प्रतिकूल असर हिंदुओं पर ज़रूर होगा। इस बात को आरएसएस भांप गया है। यही वजह है कि विश्व हिंदू परिषद ने इस प्रस्तावित क़ानून का विरोध करते हुए इसे हिंदू हितों के ख़िलाफ़ बताने में जरा भी देरी नहीं की। 

योगी आदित्यनाथ का यह दांव उन पर उलटा पड़ सकता है।

दरअसल बढ़ती जनसंख्या और उसकी चुनौतियाँ कभी भी आरएसएस या बीजेपी के लिए चिंता का विषय नहीं रहा है, बल्कि जनसंख्या नियंत्रण का मुद्दा भी उनके उस व्यापक मांगपत्र का हिस्सा है, जिसके बाकी हिस्से कभी गोहत्या पर पाबंदी की मांग और गोरक्षा के नाम पर हिंसा, कभी धर्मांतरण तो कभी कथित लव जिहाद का शोर, कभी ईसाई मिशनरियों को देश निकाला देने की मुहिम, कभी गिरजाघरों, पादरियों और ननों पर हमले, कभी धार की भोजशाला हिंदुओं के सुपुर्द करने की मांग, कभी अयोध्या, मथुरा और काशी, कभी कश्मीर, कभी समान नागरिक संहिता और कभी स्कूलों में वंदे मातरम और सरस्वती वंदना का गायन अनिवार्य करने की मांग और कभी शहरों तथा सार्वजनिक स्थानों के नाम बदलने के हास्यास्पद उपक्रम के रूप में सामने आते हैं। इनमें से कोई एक मुहिम परिस्थितिवश कमजोर पड़ जाती है तो दूसरी को शुरू कर दिया जाता है।

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