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दो हजार के नोटों से किन्हें चाहिए आज़ादी?

दो हजार के नोटों से किन्हें चाहिए आज़ादी?

बीजेपी सांसद सुशील कुमार मोदी ने राज्यसभा में 2000 रुपये के नोटों को बंद करने की मांग क्यों की? क्या अब इसे ख़त्म करने की तैयारी है?

क्या दो हजार के नोटों से आज़ादी मिलेगी? किन्हें चाहिए यह आज़ादी? क्यों लाये गये थे दो हजार के नोट? क्या दो हजार के नोट देश के दुश्मन हैं? ऐसे कई सवाल आम लोगों के मन में उमड़-घुमड़ रहे हैं क्योंकि सत्ताधारी दल के राज्यसभा सांसद और बिहार के पूर्व वित्तमंत्री सुशील कुमार मोदी ने दो हजार के नोट वापस लेने की मांग सदन में रख दी है।

दो हजार के नोट तब पहली बार देखने को मिले थे जब नोटबंदी 2016 में लागू की गयी थी। इसने पांच सौ और हजार रुपये के वापस ले लिए गये नोटों का स्थान लिया था। दावा किया गया था कि नोटबंदी कालाधन पर प्रहार है, जाली नोटों के कारोबार और आतंकवादियों को फंडिग पर हमला है। लेकिन, हजार और पांच सौ के नोटों को बंद कर 2 हजार के नोटों को प्रचलन में लाने पर तब भी सवाल उठे थे, मगर सवालों को अनसुना कर दिया गया था।

जब गायब हैं नोट तो छापना भी बंद क्यों हुआ?

2019 के बाद से दो हजार के नये नोट छापना बंद किया जा चुका है। यह बात खुद आरबीआई ने बतायी है। ऐसा क्यों करना पड़ा है? पिछले साल सरकार ने लोकसभा में इसका उत्तर दिया था। सरकार का कहना है कि जमाखोरी और कालेधन पर लगाम लगाने के लिए ऐसा किया जा रहा है। नकली नोटों पर भी सरकार ने चिंता जताई थी।

यह स्पष्ट हो चुका है कि जब 500 और 1000 के नोटों को बंद करने के बाद भी जमाखोरी, कालाधन और नकली नोटों पर लगाम नहीं लग सका। तो, क्या दो हजार के नोट छापना बंद कर देने से ऐसा हो पाएगा? या फिर क्या दो हजार के नोट वापस ले लेने से ऐसा हो सकेगा?

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार कहते हैं कि कालाधन से बड़े नोटों को जोड़ना बिल्कुल ग़लत है। बल्कि, अर्थव्यवस्था में और भी बड़े नोट आने चाहिए। इससे इज ऑफ़ ट्रांजेक्शन होता है यानी ट्रांजेक्शन की सहूलियत बढ़ती है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि अगर ट्रांजेक्शन यानी लेन-देन को आसान बनाने के लिए दो हजार के नोट लाए गये थे तो पांच सौ और हजार रुपये के नोट हटाए ही क्यों गये थे?

जाली नोटों का तर्क कितना वाजिब?

अगर नकली नोटों के बढ़ते कारोबार को दो हजार के नोटों पर अंकुश लगाने की वजह माना जाए तो आँकड़े इसकी पुष्टि नहीं करते। दो हजार की शक्ल में 2.72 करोड़ और दो सौ रुपये की शक्ल में 1.66 करोड़ मूल्य के नकली नोट बीते तीन साल में जब्त हुए हैं। यह इतना बड़ा आँकड़ा नहीं है कि दो हजार के नोट वापस लेने या इसकी छपाई बंद कर देने के लिए बाध्य होना पड़े।

बीते तीन साल में देश में दो हजार के 39,422 नकली नोट जब्त हुए हैं। इसका मूल्य 2 करोड़ 72 लाख 33 हजार 818 रुपये होता है। दो सौ रुपये के कुल 83,288 नकली नोट बीते तीन साल में जब्त हुए हैं। इसका मूल्य 1 करोड़ 66 लाख 57 हजार होता है।

क्या भ्रष्टाचार पर प्रहार है मकसद?

भ्रष्टाचार में बड़े नोटों का बढ़ता योगदान रेखांकित करने वाली बात है। रिश्वतखोरी, खरीद-फरोख्त और हवाला क़ारोबार में बड़े नोटों की बड़ी भूमिका हुआ करती है। बड़े नोट इन कामों में इज ऑफ़ ट्रांजेक्शन की सहूलियत देते हैं। हालाँकि इज ऑफ़ ट्रांजेक्शन स्वस्थ क़ारोबार को बढ़ावा देने के मक़सद से इस्तेमाल की जाने वाली सोच होती है।

वरिष्ठ अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार इस बात का भी खंडन करते हैं कि भ्रष्टाचार कैश में ही होता है। उनका कहना है कि किसी संपत्ति को कम मूल्य में देकर, औने-पौने दाम में शेयर हस्तांतरित कर या फिर जमीन के रूप में करोड़ों रुपये की रिश्वतखोरी आसानी से की जा सकती है। इलेक्टोरल बॉन्ड का भी वे उदाहरण रखते हैं जिसके माध्यम से भ्रष्टाचार मज़बूत हो सकता है।

यह सच है कि भ्रष्टाचार के कई रूप हैं। मगर, कैश में रिश्वतखोरी और बड़े नोटों की भ्रष्टाचार में भूमिका को कमतर करके आँका नहीं जा सकता। चाहे सोना, चांदी, हीरा, मोती, जमीन-जायदाद, शेयर आदि कुछ भी क्यों ना हों, वे कालाधन के अलग-अलग रूप भी हो सकते हैं और भ्रष्टाचार के तरीक़े भी बन सकते हैं। मगर, बड़े नोटों की इनमें भी बड़ी भूमिका रहती है। अगर ऐसा नहीं होता तो नेता, नौकरशाह और कारोबारी के घर छापेमारी में बड़े नोटों की मौजूदगी का भोंडा प्रदर्शन नहीं दिख रहा होता।

सवाल यह है कि सुशील मोदी वास्तव में बड़े नोट के नकारात्मक प्रभाव से चिंतित हैं? क्या यह उनकी व्यक्तिगत सोच है? सुशील मोदी जैसे नेता व्यक्तिगत सोच को संसद में नहीं रख सकते। खासकर इसलिए कि यह सोच उनकी अपनी ही सरकार की नोटबंदी के मक़सद को चुनौती देती दिख रही है।

रिजर्व बैंक की ओर से बीते तीन साल से दो हजार रुपये के नोट छापना बंद कर देने के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो सुशील मोदी वास्तव में सरकार के ही किसी मक़सद को पूरा करने की कोशिश करते नज़र आ रहे हैं।

कहाँ दबे हैं दो हजार के नोट?

आरबीआई ने 2017 से 2022 तक दो हजार के 1217.33 करोड़ नोट छापे हैं। भारत की आबादी 140 करोड़ की मानें तो प्रतिव्यक्ति दो हजार रुपये के 8.695 नोट होते हैं। मूल्य में इसे कह सकते हैं कि प्रति व्यक्ति 17,390.42 रुपये दो हजार की शक्ल में प्रचलन में हैं। अगर 1217.33 करोड़ छपे नोट को 2000 से गुणा करें तो कुल मूल्य 24 लाख 34 हजार 660 करोड़ रुपये होता है। जाहिर है कि यह बहुत बड़ी रक़म है। यह रक़म अगर प्रचलन से बाहर है। आम आदमी को दो हजार रुपये के नोट देखने को तरसना पड़ रहा है तो कहीं न कहीं दो हजार रुपये के नोट दबे पड़े हैं। यह कालाधन है कि नहीं- इसका पता लगाना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए।

रिज़र्व बैंक का एक और आँकड़ा कहता है कि मूल्य के हिसाब से 500 और 2000 रुपये के नोटों की हिस्सेदारी 31 मार्च 2022 तक 87.1 प्रतिशत थी। जबकि, मूल्य के हिसाब से 2000 रुपये के नोटों का प्रचलन 13.8 फीसदी और संख्या के हिसाब से 1.6 फीसदी रह गया है। मगर, दो हजार के ये प्रचलित नोट नज़र क्यों नहीं आ रहे हैं? इन नोटों को गतिशील बनाए रखने के लिए सरकार को तत्काल क़दम उठाने चाहिए। यह क़दम चाहे दो हजार के नोटों को वापस लेकर किया जाए या किसी और तरीक़े से- यह विचार का विषय हो सकता है।

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