महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी लेकिन सत्ता के संघर्ष के ड्रामे के बाद यदि एक वाक्य में उसके बारे में बोलना हो तो यह शेर, 'न ख़ुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम' अक्षरशः सटीक बैठता है। चुनाव नतीजों के बाद जब साथ मिलकर चुनाव लड़ी शिवसेना बीजेपी के साथ सरकार बनाने में सहयोगी नहीं बनी तो देवेंद्र फडणवीस और उनके मंत्रियों तथा बीजेपी नेताओं ने मीडिया के माध्यम से शिवसेना पर हमले शुरू कर दिए। शिवसेना को बरसों पुरानी दोस्ती का हवाला दिया गया (हालांकि 2014 का विधानसभा चुनाव दोनों पार्टियों ने गठबंधन तोड़कर ही लड़ा था)। इसके अलावा बाला साहब ठाकरे के आदर्शों की दुहाई दी, हिंदुत्व की विचारधारा से नाता न तोड़ने की बात कही। इस पूरी प्रक्रिया में कहीं ना कहीं आम लोगों के मन में यह धारणा बनती दिखी थी कि शिवसेना कुछ गलत कर रही है और उसे अपने पुराने सहयोगी के साथ चले जाना चाहिए।
सामान्य आदमी चूंकि राजनीति में पर्दे के पीछे जो ‘खेल’ होता है, उससे अनभिज्ञ रहता है तथा जो दांव-पेच खेले जाते हैं, उन्हें भी समझ नहीं पाता है, लिहाजा उसकी पसंद-ना पसंद का एक बड़ा आधार आजकल मीडिया ही बना है और उस पर किसका अधिपत्य है, यह किसी को बताने की ज़रूरत नहीं है। इसलिए इस पूरे ‘खेल’ में शिवसेना और उसके दो नए साथी कांग्रेस और एनसीपी जिनके साथ मिलकर वह सरकार बनाना चाहती थी, मीडिया के निशाने पर रहे। इन तीनों दलों की कोई सामान्य बैठक भी किसी कारणवश आगे-पीछे हुई तो ब्रेकिंग न्यूज़ बनाकर टेलीविजन के पर्दे पर प्रमुखता से दिखाई जाती रही कि यह गठबंधन टूट रहा है।
इस पूरी प्रक्रिया में देवेंद्र फडणवीस को एक ईमानदार नेता और सत्ता के पीछे नहीं भागने वाला नेता कहकर प्रचारित किया गया। और जब फडणवीस ने बहुमत सिद्ध करने का दावा जब पहली बार छोड़ा था, तब उनकी छवि सत्ता का त्याग करने वाले नेता के रूप में दिखायी गयी।
लेकिन इसके बाद सत्ता का जो ड्रामा चला उसमें लोगों की राय बीजेपी और फडणवीस दोनों के ख़िलाफ़ बनने लगी। इसका पहला एपिसोड शुरू हुआ शिवसेना को समर्थन साबित करने के लिए अतिरिक्त समय नहीं देने से और इसकी इंतहा हुई 23 नवंबर की सुबह, जब लोगों ने टेलीविजन पर फडणवीस और अजीत पवार को मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते देखा। जनता स्तब्ध सी थी और उसे कुछ समझ नहीं आया। दूसरी ओर बीजेपी नेता तथा कार्यकर्ता मिठाइयां बांटने और खुशियां मनाने में व्यस्त रहे। लेकिन जैसे-जैसे इस सियासी ‘खेल’ की परतें खुलने लगीं, लोगों को यह पता चलने लगा कि किस तरह से रातों-रात राष्ट्रपति शासन हटाया गया।
कैबिनेट की बैठक बुलाये बिना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी विशेष शक्तियों का प्रयोग कर राष्ट्रपति शासन हटा दिया तो लोगों के बीच यह चर्चा जोर पकड़ने लगी कि जब शपथ लेनी ही थी तो पहली बार में बहुमत नहीं होने की असमर्थता क्यों जतायी गयी? शपथ के तुरंत बाद प्रधानमंत्री ने ट्वीट कर दोनों को बधाई दे दी। उनकी देखा-देखी अन्य केंद्रीय मंत्रियों ने भी बधाई देनी शुरू कर दी। इससे यह स्पष्ट होने लगा कि पूरा ड्रामा दिल्ली में बीजेपी हाई कमान द्वारा रचा गया है।
राज्यपाल ने फडणवीस को बहुमत सिद्ध करने के लिए 14 दिन का समय दे दिया लेकिन इसे भी सार्वजनिक रूप से नहीं बताया गया और उसकी जानकारी सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान सरकारी वकील के द्वारा दी जाने पर लोगों को मिली।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पहले ही अजीत पवार के साथ एनसीपी के विधायक होने के दावे की हवा निकल चुकी थी और जब कोर्ट का आदेश आया तो कुछ ही घंटे में अजीत पवार इस्तीफ़ा देकर वापस अपने घर पहुंच गए। इसके बाद जब फडणवीस इस्तीफ़ा देने से पहले पत्रकारों के समक्ष अपना पक्ष रखने आये तो उन्होंने सारा ठीकरा अजीत पवार के सिर फोड़ने की कोशिश की।
जवाब नहीं दे सके फडणवीस
फडणवीस बड़ी मासूमियत से बार-बार यह बताते रहे कि अजीत पवार उनके पास आये थे और उसी के आधार पर उन्होंने सरकार बनाने की पहल की थी। लेकिन वह इस बात का जवाब देने से बचते रहे कि वह एनसीपी के साथ क्यों खड़े हो गए? क्योंकि अजीत पवार ने विधायकों के दस्तखत वाला जो पत्र दिया था, वह पार्टी का समर्थन पत्र तो था नहीं? फडणवीस तो शिवसेना को विरोधी दलों के साथ मिलने के लिए घेर रहे थे लेकिन एनसीपी ने उनके ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा है, ऐसे में उसका समर्थन लेने की बात पर कुछ भी बोलने से कतराते रहे!
मिट्टी में मिल गई छवि!
सरकार गिरने से 80 घंटे पहले फडणवीस महाराष्ट्र के युवा, ईमानदार, बेदाग छवि वाले नेता थे। लेकिन उसके बाद सोशल मीडिया में अजीत पवार के भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ उनका 'अजीत दादा चक्की पीसिंग, पीसिंग ऐंड पीसिंग' वाला बयान जब वायरल हुआ तो उसका सीधा संकेत इस बात का था कि सरकार बनाने के लिए वह कुछ भी कर सकते हैं। पारदर्शी सरकार चलाने की जो छवि पांच साल में उन्होंने बनाई थी वह एक रात में ही मिट्टी में मिल गई।
एक बात समझ में नहीं आती है कि बीजेपी ने जो गलतियां कर्नाटक में येदियुरप्पा की सरकार बनाने के समय की थीं, उन्हें ही वह महाराष्ट्र में भी कैसे दोहराती गयी। बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व क्या इतना कच्चा खिलाड़ी बन गया है? वह उतावलेपन के बजाय थोड़ी गंभीरता और सहजता से काम लेता तो कुछ समय बाद ऐसा भी हो सकता था कि उसे सहज रूप से सरकार मिल जाती। लेकिन शायद बीजेपी नेतृत्व को कहीं न कहीं यह डर जरूर सता रहा था कि चुनाव से पहले दल-बदल का जो खेल उसने खेला था वही अगर कांग्रेस और एनसीपी की सरकार बन गई तो उलटा पड़ सकता है। यानी कांग्रेस और एनसीपी के वे विधायक वापस अपनी-अपनी पार्टियों में चले जायेंगे और बीजेपी की ताक़त करीब आधी रह जाएगी? इस उतावलेपन से उसे सत्ता तो मिली नहीं, इसके उलट विरोधी खेमे में जबरदस्त एकता हो गई।
बीजेपी नेतृत्व के द्वारा खेले गए सत्ता के इस ‘खेल’ में ना सिर्फ उसकी अपितु संवैधानिक पदों - राष्ट्रपति और राज्यपाल की गरिमा को भी ठेस पहुंची है।